लाइफस्टाइल | बिजनेस | राजनीति | कैरियर व सफलता | राजस्थान पर्यटन | स्पोर्ट्स मिरर | नियुक्तियां | वर्गीकृत | येलो पेजेस | परिणय | शापिंगप्लस | टेंडर्स निविदा | Plan Your Day Calendar



:: सामाजिक चेतना ::

 


विश्व तंबाकू निषेध दिवस, महीने भर तंबाकू के खर्च में कर सकतें है प्रतिदिन पोष्टिक भोजन
31 May 2023
जयपुर|राजस्थान के युवाओं व किशोरों में तंबाकू व अन्य धूम्रपान उत्पादों की लत का बढ़ना हम सभी के लिए चिंता का गंभीर विषय है। प्रदेश में 65 हजार से अधिक लोगों की तंबाकू व अन्य धम्रपान उत्पादों के सेवन से होने वाली बीमारियों से अकारण मौत हो जाती है। वहीं प्रतिदिन तंबाकू व अन्य धूम्रपान उत्पादों के सेवन में खर्च होने वाली राशि से आसानी से पौष्टिकता से भरपूर भोजन आसानी से किया जा सकता है। “हमें भोजन की आवश्यकता है तंबाकू की नहीं” इस बार ‘‘विश्व तंबाकू निषेध दिवस’ पर विश्व स्वास्थ्य संगठन की थीम “हमें भोजन की आवश्यकता है तंबाकू की नहीं” रखी गई है। जिस तरह से हर इंसान को अपना जीवन चलाने के लिए रोटी, कपड़ा और मकान जैसी मूलभूत आवश्यकता होती है। उसी तरह से तंबाकू को न चुनकर पोष्टिक भोजन को मूलभूत प्राथमिकता में शामिल करने की जरुरत है। महीने भर तंबाकू के खर्च में कर सकतें प्रतिदिन पोष्टिक भोजन एक अनुमान के हिसाब से प्रतिदिन तंबाकू व धम्रपान उत्पादों का सेवन करने वाला 5 गुटखा सेवन कर लेता है और सिगरेट व बीड़ी पीने वाले इसी मात्रा में उपभोग करता है। जिसका अनुमानित खर्च 40 से 50 रुपये आता है। इतनी ही राशि से दो समय का भोजन किया जात सकता है, जोकि पूरी तरह से पोष्टिकता से भरपूर होता है। खासतौर पर राजस्थान सरकार की इंदिरा रसोई इसका अच्छा उदाहरण साबित हो सकती है। राजस्थान में 77 हजार की प्रतिवर्ष मौत सवाई मान सिंह चिकित्सालय जयपुर के कान नाक गला विभाग के वरिष्ठ आचार्य डा.पवन सिंघल ने बताया कि ग्लोबल एडल्ट टोबैको सर्वे के अनुसार राज्य में तंबाकू व अन्य धूम्रपान उत्पादों से होने वाले रोगों से प्रतिवर्ष 77 हजार से अधिक लोगों की मौत हो जाती है और देशभर में 13.5 लाख व विश्वभर में 80 लाख लोगों की जान इससे जाती है। जबकि प्रदेशभर में 300 से अधिक बच्चे और देशभर में 5500 बच्चे प्रतिदिन तंबाकू उत्पादों का सेवन शुरु करते है। तंबाकू से कैंसर के साथ अन्य बीमारियां उन्होने बताया कि सभी जानतें है कि ऐसे उत्पादों के सेवन से मुंह व गले के कैंसर के साथ शरीर में और कई तरह की बीमारियां होती है। लेकिन इसके बावजूद भी जागरुकता के अभाव में यूजर इस और अग्रसर होता है। राजस्थान में 24.7 प्रतिशत तंबाकू यूजर राजस्थान में वर्तमान में 24.7 प्रतिशत लोग (5 में से 2 पुरुष, 10 में से 1 महिला यूजर) किसी न किसी रुप में तंबाकू उत्पादों का उपभोग करते है। जिसमें 13.2 प्रतिशत लोग धूम्रपान के रुप में तंबाकू का सेवन करते है, जिसमें 22.0 प्रतिशत पुरुष, 3.7 प्रतिशत महिलांए शामिल है। यंहा पर 14.1 प्रतिशत लोग चबाने वाले तंबाकू उत्पादों का प्रयोग करते है, जिसमें 22.0 प्रतिशत पुरुष व 5.8 प्रतिशत महिलाएं शामिल है। डा.सिंघल ने बताया कि युवाओं को इससे बचाने के लिए तंबाकू उद्योगों द्वारा अपने उत्पादों के प्रति आकर्षित करने के प्रयास पर प्रभावी अंकुश, बच्चों व युवाओं के निंरतर तंबाकू से होने वाले दुष्प्रभाव के प्रति निंरतर जागरुक करने तथा तंबाकू उत्पादों के विज्ञापनों के साथ इसकी बिक्री पर भी रोक लगाने की जरुरत है। जेजे एक्ट व कोटपा की हो प्रभावी पालना राजस्थान में किशोरों व युवाओं को तंबाकू की पहुंच से दूर रखने के लिए तंबाकू निंयत्रण अधिनियम 2003 (कोटपा) तथा किशोर न्याय अधिनियम की धारा 77 (जेजे एक्ट) की प्रभावी अनुपालना कराने की जरुरत है। वहीं सिगरेट की खुली बिक्री पर प्रतिबंध है लेकिन इसकी भी पालना नही होने के कारण आपको ये सभी उत्पाद आसानी से मिल रहें है। खुली सिगरेट खरीदना युवाओं के लिए सुगम है, इसलिए खुली सिगरेट की बिक्री पर प्रतिबंध को प्रभावी बनाये जाने की जरुरत है। सावर्जनिक स्थल, शिक्षण संस्थानों आसपास, किरयाना स्टोर, पान शॉप इत्यादि स्थानों पर तंबाकू व धूम्रपान उत्पादों की बिक्री पर प्रतिबंध लगाकर भी तंबाकू यूजर की संख्या में कमी लाई जा सकती है। तंबाकू उत्पादों की बढ़ती खपत सभी के लिए नुकसानदायक प्रदेश में तंबाकू उत्पादों की बढ़ती खपत हम सभी के लिए नुकसानदायक है। इससे जहां जनमानस को शारीरिक, मानसिक और आर्थिक भार झेलना पड़ता है वहीं सरकार को भी आथर््िाक भार वहन करना पड़ता है। इसलिए तंबाकू पर टैक्स बढ़ाने की नीति को निरतर बनाए रखना चाहिए या फिर इस पर प्रतिबंध लगा देना चाहिए। राजस्थान सरकार ने जनमानस के स्वास्थ्य को ध्यान में रखते हुए देश में सबसे अधिक टैक्स की श्रेणी में रखा। जिसके चलते प्रदेश में तंबाकू का उपभोग में कमी आई। हर पांच मौतों में से एक मौत तंबाकू की वजह से उन्होंने बताया कि दुनियाभर में होने वाली हर पांच मौतों में से एक मौत तंबाकू की वजह से होती है तथा हर छह सेकेंड में होने वाली एक मौत तंबाकू और तंबाकू जनित उत्पादों के सेवन से होती है। विश्व स्वास्थ्य संगठन का अनुमान है कि सन 2050 तक 2-2 अरब लोग तंबाकू या तंबाकू उत्पादों का सेवन कर रहे होंगे। स्वस्थ जीवन जीने के लिए ये जरुरी सामान्य इंसान को जीवन जीने के लिए प्रतिदिन 2500 कैलोरी की आवश्यकता होती है। जिसमें महिलाओं को 2000 कैलोरी की जरुरत पड़ती है। तभी वे स्वस्थ जीवनयापन कर सकते है। पुलिस महानिदेशक को दिया ज्ञापन राजस्थान के ईएनटी चिकित्सकों, सुखम फाउंडेशन ने ‘‘विश्व तंबाकू निषेध दिवस पर गंभीर चिंता जताई है। इसके लिए प्रदेशभर में कोटपा व जेजे एक्ट में कार्रवाई को लेकर पुलिस महानिदेशक को ज्ञापन दिया गया। जिसमें बताया गया कि राजस्थान में तंबाकू व अन्य धूम्रपान उत्पादों की रोकथाम के लिए राज्य के सभी जिलों व संभाग मुख्यालयों पर कोटपा व जेजे एक्ट में प्रभावी कार्रवाई की जाए तो तंबाकू यूजर को हत्तोसाहित किया जा सकेगा।





साहित्य में वैज्ञानिक एवं सामाजिक चेतना
Our Correspondent :22 jan 2013

भारतीय मानस तपस्या, हवन, पूजा आदि से ऐसी दैवी शक्तियों तथा असाधारण सामर्थ्य की अवधारणा करता रहा है जो आज वैज्ञानिक अनुसंधानों के रूप में हमारे समक्ष भौतिक रूप में विद्यमान हैं। महाभारत, रामायण आदि प्राचीन ग्रंथों में युद्ध में प्रयुक्त विशेष अस्त्र शस्त्र जो पारंपारिक अस्त्रों से भिन्न दैवी वरदान के रूप में प्राप्त होते थे उनकी तुलना आज के अत्याधुनिक अस्त्रों से की जा सकती है।
इसी तरह रामायण में प्रयुक्त पुष्पक विमान किसी छोटे हेलीकॉप्टर या हावर क्राफ्ट की तरह लगता है। आकाशवाणी का भी कई जगह जिक्र आता है कुछ इस तरह जैसे पास ही कहीं से कोई पब्लिक एड्रेस सिस्टम की तरह उद्घोषणा कर रहा हो। औषधि विज्ञान की तो ऐसी चमत्कारिक स्थितियाँ हैं कि जीता हुआ व्यक्ति लोप हो जाए, मरा हुआ पुन: जिन्दा हो जाए, एक शरीर के दो टुकड़े और पुन: दो के एक हो जाएं। कुल मिलाकर मन्तव्य यह कि विज्ञान, जो कि यथार्थ और सुविचारित स्वाध्याय तथा मेधा द्वारा नये नये आविष्कार करता है वह भारतीय प्राचीन ग्रंथों में शक्ति और वरदान की तरह प्रयुक्त होते हैं।
मोटे तौर पर कहा जा सकता है कि मनुष्य ने वैज्ञानिक शक्तियों से काफी पहले ही साक्षात्कार कर लिया था। परंतु उस समय की सामाजिक व्यवस्था ऐसी थी कि वैज्ञानिक अनुसंधान निहायत व्यक्तिगत संपत्ति की तरह उपयोग में लिये जाते थे और सारे चमत्कार राजाओं और राजकुमारों के पास ही रहते थे। भारतीय प्राचीन साहित्य में इन चमत्कारों और शक्तियों का भरपूर प्रयोग हुआ है परंतु चँूकि साधारण जन के पास उन शक्तियों के बारे में जानने का कोई जरिया नहीं था अत: उसने इन्हें चमत्कार के रूप में ही स्वीकारा।
आज विज्ञान हमारी जीवन शैली का एक अभिन्न अंग है। आज बहुत कुछ समाज के सामने हैं। यद्यपि आज भी सत्ताधारी वर्ग के स्वार्थ हैं। सम्पन्नता की जीत है और सामर्थ्य का बोलबाला है परंतु फिर भी विज्ञान हमारे दैनिक जीवन में एक महात्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करने लगा है। यातायात के आधुनिक साधन, प्रौद्योगिकी का विकास, उद्योग धंधे, उत्पादन, बिजली और प्रचार माध्यम, रसायन एवं औषधि विज्ञान हमारे दैनंदिन जीवन का अंग बन चुके हैं। जहिर है समाज पर विज्ञान की इतनी बड़ी पकड़ को साहित्यकार भी नजर अंदाज नहीं कर सकता। प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप से हमारी चेतना को वैज्ञानिक अनुसंधान प्रभावित कर रहे हैं। अत: साहित्य सृजन को भी वह प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से प्रभावित कर रहे हैं। हाँ उनका सीधा-सीधा उपयोग साहित्य में उस तरह स्थूल रूप में संभव नहीं है कि हमें लगे कि यह साहित्य वैज्ञानिक युग का प्रतिबिम्ब है अलबत्ता वैज्ञानिक साहित्य अब प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है।
विज्ञान और साहित्य के अंर्तसंबंधों की बात जब की जाती है तब यह ध्यान अवश्य रखा जाना चाहिए कि विज्ञान, विज्ञान है कला, कला। यहाँ बात मैं अंर्तसंबंधों की कर हूँ स्थूल संबंधों की नहीं। साहित्य पर विज्ञान का प्रभाव रूपांतरित होकर पड़ता है सीधा नहीं। हाँ कहीं कभी यदि भावभूमि की जगह दृश्य चित्रण होता है तब अवश्य वैज्ञानिक उपकरण या ये दृश्य साहित्य में अंकित होते हैं जिन्हें साहित्यकार देखता सुनता है।
हिन्दी कविता में साठ के दशक में प्रयोगवाद के तहत वैज्ञानिक चिंतन तथा चित्रण की अनेकों कविताएं लिखी गई परंतु विज्ञान की मूलभावना को पकड़ने वाले कवि बहुत कम थे। गजानन माधव मुक्तिबोध उन गिने चुने कवियों में थे जिन्होंने विज्ञान और फैंटेसी के आधुनिक तथा कलात्मक बिंब और भाव कविता में लिए। उनकी एक कविता 'मुझे मालूम नहीं' में मनुष्य की उस असहायता का चित्रण है जिसमें वह यथास्थिति तोड़ नहीं पाता। वह दूसरों के बने नियमों तथा संकेतों से चलता है। उसका स्वयं का सोच दूसरों के सोच पर आधारित होता है। दूसरों का सोच सत्ता के आसपास का चरित्र होता है। सत्ता अपने को स्थापित करने के लिए मनुष्य के सोच की स्थिरीकरण करती है। परन्तु मनुष्य की चेतना कभी कभी चिंगारी की भांति इस बात का अहसास कराती है कि वह जो सामने का सत्य है उससे आगे भी कुछ है। संवेदनहीन होते व्यक्ति की संवेदना को वह चिंगारी पल भर के लिए जागृत करती है।
कोई फिर कहता
कि देख लो-
देह में तुम्हारे
परमाणु केन्द्रों के आसपास
अपने गोलपथ पर
घूमते हैं अंगारे
घूमते हैं इलेक्ट्रॉन
निज रश्मि-रथ पर
बहुत खुश होता हूँ निज से कि
यद्यपि सांचे में ढ़ली हुई मूर्ति में मजबूत
फिर भी हंू देवदूत
इलेक्ट्रॉन - रश्मियों में बंधे हुए
अणुओं का पंुजीभूत
एक महाभूत में
ऋण एक राशि का वर्गमूल साक्षात्
ऋण धन तड़ित् की चिनगियों का
आत्मजात
प्रकाश हूँ निज शूल
गणित के नियमों की सरहदें लाँघना
स्वयं के प्रति नित जागना
भयानक अनुभव
फिर भी मैं करता हूँ कोशिश
एक धन एक से
पुन: एक बनाने का यत्न है अविरत!
मुक्तिबोध गणित, भौतिकी और नक्षत्र विज्ञान की बात करते करते क्रूर व्यंग्य करते हैं उन तथाकथित महापण्डितों पर जो अपने अहंकार के मद में रूढ़ियों में जकड़े पड़े हैं। इसी में उनका स्वार्थ पुष्पित पल्लवित होता है। उनका तेज उनका प्रभामण्डल चकाचौंध तो पैदा कर सकता है पर विकासमान नहीं है और जो अवधारणा विकासवान नहीं है वह कालान्तर में नष्ट हो जाती है। ऐसी अवधारणाएं, ऐसी मान्यताएं, ऐसी क्रियाएं जो रूढ़िग्रस्त हैं अवैज्ञानिक हैं। मुक्तिबोध न केवल विज्ञान तथा वैज्ञानिक शब्दावली का चमत्कृत कर देने की हद तक उपयोग करते हैं बल्कि वैज्ञानिक बिम्बों तथा प्रत्ययों के माध्यम से अवैज्ञानिक सोच की निडर होकर तीव्र भर्त्सना भी करते हैं। मनुष्यता की वकालत समाज की बुराइयों तथा सड़ांघ को मिटाने का आवाहन करते हुए वह कहते हैं :-
भागो लपको, पीटो-पीटो
कि पियो दुख का विष
उस मनुष्य-आमिष-आशी की
जिह्वा काटो
पियो कष्ट, खाओ आपत्ति-धतूरा, भागो
विश्व तराशो, देखो तो उस दिशा
बीच सड़क में बड़ा खुला है
एक अंधेरा छेद
एक अंधेरा गोल-गोल
वह निचला-निचला भेद,
जिसके गहरे-गहरे तल में
गहरा गन्दा कीच
उसमें फँसो मनुष्य
घूसो अंधेरे जल में
-गन्दे जल की गैल
स्याह भूत से बनो, सनो तुम
मैन-होल से मनों निकालो मैल
मुक्तिबोध की कविता 'भविष्यधारा' की इन पंक्तियों में एक बड़े सीवर का चित्र है। मनुष्यता, मानवीय गुण, परोपकार की भावना, सामाजिक सरोकार लगता है जैसे एक बड़ी सीवर लाइन की तलहटी में समा गये हैं। मूल्यहीन समाज, चारों तरफ फैला गहन अंधकार, अनाचार यह सब कैसे साफ होगा इसके लिए ' मैन होल' से सीवर लाइन में घुसना होगा, भूत की तरह बनना और सनना होगा कीचड़ में तभी मनों मैल निकल पायेगा।
समाज में व्याप्त बुराइयों, असंगतियों, विसंगतियों को आसानी से तो कदापि नहीं मिटाया जा सकता। उसके लिए तो बहुत बड़े प्रयत्न की आवश्यकता है, लगन की आवश्यकता है, इच्छाशक्ति की आवश्यकता है। महज रोते रहने से ही तो समाज में व्याप्त असमानता और असहजता दूर नहीं हो सकती। उसके लिए पौरूष, सामर्थ्य और मनोबल वांछित है तभी मैल निकाला जा सकता है। यह कार्य इतना आसान नहीं है इसमें बहुत लोगों को लगना होगा। यह वैज्ञानिक सोच की परिणति है अन्यथा बड़े इत्मीनान से कोई गीत गा सकता है कि सुबह जरूर आयेगी सुबह का इन्तजार कर। यानि सब कुछ भाग्य पर छोड़ दो। कभी न कभी बुराइयाँ भी दूर हो ही जायेंगी चाहे तब तक मनुष्यता ही विनाश के कगार पर पहँुच जाये।
निश्चित रूप से वैज्ञानिक सोच और उसकी साहित्यक परिणति ही साहित्य की वह लोकमंगला धारा है जिससे मनुष्य विकासकामी और प्रगतिकामी बनता है अन्यथा अर्नगल, दिशाहीन और अस्पष्ट साहित्य यथार्थ से कोसों दूर मानव को कूप मण्डूक बनने में ही मदद करता है। यह अवैज्ञानिक साहित्य होता है जो कुण्ठाओं, विकृतियों और दृष्टिहीनता से भरा होता है। वैज्ञानिक सोच न केवल तर्कों पर आधारित होता है बल्कि यथार्थ, भौतिक प्रयोग तथा गणितीय और सांख्यकीय निष्कर्षों पर आधारित होता है। साहित्य के संदर्भ में ये निष्कर्ष सीधे गणितीय तथ्यों पर आधारित नहीं माने जा सकते। मनुष्य की अपनी एक जैविक पहचान है वैचारिक अस्मिता है। और अपने सहधर्मी, सहयोगी तथा सहकर्मी के ऊपर आश्रित होने का, विश्वास करने का, उससे स्नेह करने का भावनात्मक, और वैचारिक आधार भी है। अत: वैज्ञानिक साहित्य की अवधारणा विज्ञान की शब्दावली, नियम या तथ्य मानने और उन्हें साहित्य में उतारने की कतई नहीं है यह तो मात्र एक विषय है। इससे कहीं आगे वैज्ञानिक साहित्य विज्ञान सम्मत यथार्थ और आदर्श तथा मानवीय संबंधों की भावभूमि पर ही रचा जा सकता है। मानवीय गरिमा, मानवीय चरित्र का उदात्तीकरण और लोकमंगल मोटे मोटे प्रत्यय है जो वैज्ञानिक साहित्य में समाविष्ट होते हैं। इन्हें जितनी अधिक कलात्मकता और अनुभूति की प्रगाढ़ता से साहित्य में उतारा जा सकता है वही साहित्यकार की सफलता का मानदण्ड होता हे।
वैज्ञानिक साहित्य का एक स्थूल पक्ष भी है यथार्थ, और उसका वैचारिक चित्रण जैसे कि रिपोर्ताज, डायरी, लेख, राजनीतिक आलेख इत्यादि। हिन्दी के आधुनिक साहित्य में यह सब विविध आयम आज परिलक्षित होते हैं। स्व. रघुवीर सहाय एक अच्छे कवि रचनाकार तो थे ही वह एक अच्छे सम्पादक तथा अखबारनवीस भी थे। उनके रिपोर्ताज शैली में कुछ लघु निबंध संकलित हैं 'भँवर, लहरें और तरंग' नाम से उसका अन्तिम निबंध है, 'रोटी का हक'। वैज्ञानिक विचार मंथन की एक साहित्यिक प्रस्तुति यह भी है -
"पिछले कुछ वर्षों में कुछ एक झूठ चारों तरफ फैले हैं उनमें से एक हैं कि जनता को सबसे पहले रोटी चाहिए। यह कथन झूठ इसलिए है कि यह रोटी को पहले रखकर बाकी चीजों को बाद में रखता है। बताता नहीं कि बाकी चीजें क्या है। भ्रम पैदा करता है कि जब पहले रोटी आ जायेगी तो बाकी चीजें भी अपने आप पैदा हो जायेंगी। माने रोटी और बाकी चीजें अलग-अलग दो बातें हैं और कुल मिलाकर यह सिद्धांत फैलता है कि रोटी पैदा करने के साधन पर जनता का अधिकार आवश्यक नहीं। उसे रोटी दे दी जाती है यही लोकतंत्र है।
यह लोकतंत्र नहीं है रोटी और रोटी पैदा करने का अधिकार दो अलग अलग चीजें नहीं है। रोटी पैदा करने के साधनों पर अधिकार जीवन में पूरा हिस्सा लेने का राजनैतिक अधिकार है। और लोकतंत्र उस अधिकार पर अधिकार रखने की आजादी का नाम है। रोटी देने की धारणा सामंती और लोकतंत्र विरोधी धारणा है क्योंकि वह साधनों पर अधिकार मुठ्ठी भर लोगों का ही रखना चाहती है।"
इस निबंध की भाषा थोड़ी अटपटी है परंतु इसके तर्क और मंतव्य निश्चित रूप से विज्ञान सम्मत है। विश्लेषण और उदाहरण दोनों यहाँ हैं अत: यह विज्ञान का ही साहित्य पर प्रभाव प्रमाणित करता है। तमाम विश्लेषण और सोच विचार के बाद रचनाकार का सोच और उसके मनोभाव एक ऐसी आधारभूमि को तलाश लेते हैं जो उसे सही और श्रेष्ठ प्रतीत होती है। यहाँ रचनाकार एक निस्संग और निष्प्राण दृष्टा की तरह चुप नहीं बैठा रहता बल्कि वह अपनी भूमिका तय कर लेता है और वह पक्षधरता के साथ सृजन करता है। विचार और वैचारिक पक्षधरता, विश्लेषण और निष्कर्ष की वैज्ञानिक विधि का अनुसरण करते हैं यथा सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की कविता 'धूल' का उदाहरण लें :-
तुम धूल हो
पैरों से रौंदी हुई धूल
बेचैन हवा के साथ उठो
आँधी बन उनकी आँखों में पड़ो
जिनके पैरों के नीचे हो
यह पक्षधरता दलित और शोषित के प्रति ही क्यूं है? क्योंकि समाज में मनुष्य और मनुष्य के बीच एक बहुत बड़ी दूरी है। एक शोषित है दूसरा शोषक। वैज्ञानिक साहित्य मानव की बराबरी की वकालत करता है। वह आँख बन्द करके रूढ़ियों का अनुसरण नहीं करने देता वह चेतना को जागृत करता है। और कवि धूल को आँधी के साथ उड़ने की स्वाभाविक क्रिया और उसकी परिणति से आगाह कराता है। पक्षधरता के बाद प्रतिबद्धता भी वैज्ञानिक विचारधारा की अनुगामिनी हुई है। यह प्रतिबद्धता किसी द्रोणाचार्य की कौरवों के साथ प्रतिबद्धता नहीं है। न ही सत्ता की इजोरदार, अपराधी तत्वों और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों और खुले बाजार के लिए प्रतिबद्धता है क्योंकि विनाश और विकास दोनों ही विज्ञान ने आसान बनाए हैं। आज भारतीय राजनीतिक सत्ता विनाश की प्रतिबद्धता से संचालित है परंतु एक रचनाकार की प्रतिबद्धता मानव के अस्तित्व, बहुजन हिताय और बहुजन सुखाय तथा सृष्टि के कल्याण की प्रतिबद्धता है। मूल्यहीनता, दृष्टिहीनता और स्वार्थलिप्सा के प्रति नहीं। जनकवि 'शील' की प्रार्थना के साथ कि ' हे दिशा सर्वहारा विवेक' वैज्ञानिक चिंतन और साहित्यिक सरोकारों की कुंद पड़ी चेतना को झंकृत करने की आवश्यकता है :-
पद-दलित देश कुचला जन-बल, दल-बदलू शासक, पतन प्रबल
चर्चित कानूनी सन्निपात, बढ़ रही भेड़ियों की जमत
सोचो! यह किसकी राजनीति
यह लूट, अपहरण, बलात्कार
है किस दर्शन के चमत्कार?
किन मानव मूल्यों का प्रतिफल
दे रहे इज़ारेदार सबक
महंगाई दिन दिन आवश्यक
तब लोग किस तरह पेट भरें
किस तरह जियें किस तरह मरें?
विज्ञान और साहित्य का अंर्तसम्बन्ध शरीर और आत्मा का अंर्तसम्बन्ध है। वह मन और शरीर के सम्बन्ध से भिन्न है वहीं आत्मा और परमात्मा के रहस्यवादी सम्बन्धों से भी इसका कोई मेल नहीं। आज जब विज्ञान ने मनुष्य की प्रवृत्ति पर विजय के रूप में अपनी ध्वजा लहरााई है यहीं वह कई तरह से-अभिशाप बनकर भी उभर रहा है। परमाणु अस्त्र, रासायनिक एवं जैविक अस्त्र तथा बहुत सी अन्य आपदाओं का जनक भी है विज्ञान। साहित्य विज्ञान की इस अच्छाई बुराई को आत्मा के रूप में प्रतिष्ठित कर मानव की सौन्दर्यदृष्टि को निरंतर निखारने का यत्न करते रहने की जिम्मेदारी से निश्चित ही नहीं बच सकता। स्वस्थ मूल्य, स्वस्थ वातावरण और स्वस्थ समाज के निर्माण के लिए स्वस्थ वैज्ञानिक साहित्य आवश्यक है।


ब्रिटेन से मांगी 336 करोड़ रुपए की मदद
Our Correspondent :4 Sep 2012

भोपाल। ब्रिटिश हाई कमिश्नर सर जेम्स डेविड बेवन ने मंगलवार को शहर की कुछ बस्तियों का दौरा किया। इस दौरान मध्य प्रदेश सरकार ने ब्रिटेन से 336 करोड़ रुपए की आर्थिक सहायता मांगी है। ब्रिटिश हाई कमिश्नर सर जेम्स डेविड बेवन के समक्ष मुख्य सचिव आर परशुराम ने शहरों के विकास के लिए 233 करोड़ और ऊर्जा के क्षेत्र में चल रहे प्रोजेक्टों के लिए 103 करोड़ रुपए की अतिरिक्त राशि देने का अनुरोध किया। इससे पहले बेवन ने मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और नगरीय प्रशासन मंत्री बाबूलाल गौर से मुलाकात की।


कुष्ठ रोगियों की सामाजिक सुरक्षा पेंशन 1000 रुपए हुई
Our Correspondent : 31 Aug 2012

भोपाल। जापान सरकार के कुष्ठ रोग निवारण मिशन के सद्भावना राजदूत योहोई सासाकावा ने गुरूवार को मंत्रालय पहुंचकर मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान से मुलाकात की। इस मौके पर चौहान ने प्रदेश में कुष्ठ रोगियों की सामाजिक सुरक्षा पेंशन 150 रुपए से बढ़ाकर 1000 रुपए करने की घोषणा की। सासाकावा ने इसके बाद वे मप्र मानव अधिकार आयोग के कार्यकारी अध्यक्ष जस्टिस एके सक्सेना से मिले। सक्सेना ने उनसे कहा कि कुष्ठ रोगियों की अलग बस्तियां बनाई जाती हैं, यह भेदभाव और मानव अधिकार का उल्लंघन है। मप्र में के 17 शहरों में ऐसी 34 बस्तियां हैं। सासाकाव ने कहा कि वे इस भेदभाव को खत्म कराने के प्रयास करेंगे।