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देवव्रत सिंह के फेसबुक वॉल से
थूकने की महान संस्कृति
(प्रभात खबर -25.02.2020)

मेरे घर के सामने जब से नयी सड़क बनी है, आसपास के सब लोगों में होड़ लग गयी है उसे थूक-थूक कर दूसरी सड़कों की तरह ही लाल रंग देने की। देखना ये है कि कौन उस पर अपनी पीक थूक कर सबसे अधिक चित्रकारी करता है। भारतीय समाज में थूकने की संस्कृति इतनी प्रबल और सर्वव्यापी है कि थोड़ी-थोड़ी देर बाद हम ना थूकें तो बेचैनी होने लगती है। ठीक उसी प्रकार जैसे थोड़ी-थोड़ी देर बाद हम अपना मोबाइल फोन चैक ना करें तो परेशान हो जाते हैं।
और फिर जब थूकने कि तलब लगी हो तो उचित स्थान की तलाश करने का समय कहां होता है। कौन उठाये वाश बेसिन या नाली ढूंढने या उस तक चलकर जाने की जहमत। खुले में नयी दीवार, सड़क या फर्श पर थूकने का आनन्द ही कुछ अलग होता है। स्वच्छ भारत अभियान को स्वच्छंद भारत अभियान में तबदील कर देने की जिम्मेदारी भी तो हमारी ही है।
पुराने जमाने में नवाब लोगों के साथ नौकर पीकदान लेकर चलते थे। अब नवाब भी तो गुजरे जमाने की बात हो गये हैं। गुटका, खैनी, पान और पान मसाला चबाने की आदत थूकने की संस्कृति को निरंतर समृद्ध बनाये रखने का काम करती हैं। सरकार ने कानून बनाकर विज्ञापन पर करोड़ों खर्च कर डाले परंतु हालात जस-के-तस हैं। कैंसर का डर दिखाती गुटके के पैक पर छपी तसवीरें भी पान मसाले की बिक्री कुछ कम नहीं कर पायी। आखिर संस्कृति का जो मामला है। सामाजिक आदतें यूं ही थोड़े बदली जाती हैं। सदियों से पान और खैनी हमारी संस्कृति की पहचान रही हैं।
सरकारी दफतर, कचहरी, रेलवे स्टेशन, बस स्टैंड, सड़कें सब जगह पीक चित्रकारी के दर्शन आसानी से सुलभ हो जाते हैं। किसी विदेशी को थोड़ा अजीब लग सकता है लेकिन हम भारतीयों को ये चित्रकारी जीवन का बिलकुल सहज अंग लगती है। यहां तक कि व्यक्ति के कपड़ों पर पीक के छींटे भी उसके पीक चित्रकार होने के संकेत देते हैं। कार-बाइक चलाते हुए यदि अगली बस की खिड़की से किसी पीकते व्यक्ति के छींटे आप पर भी आते हैं तो जनाब संस्कृति के लिए थोड़ा सहन करना सीखिये।
कुछ लोग चलती कार का दरवाजा खोल कर थूकते हुए अपने थूकने के हुनर का शानदार सार्वजनिक प्रदर्शन भी करते हैं। पान मसाले से रंगीन बने दांत और होंठ अमिताभ बच्चन पर फिल्माये गीत खइके पान बनारस वाला की याद दिलाते हैं। फिल्मों में भी अकसर पान मसाला खाने और बीच-बीच में थूकने वाले व्यक्ति में गज़ब का देशज आत्मविश्वास दिखाया जाता है। टेलीविजन पर भी ऊंचे लोग-ऊंची पसंद वाले विज्ञापन इस सांस्कृतिक गौरव के अहसास को जगाते हैं।
गांव-देहात में किशोर कब बड़ों के साथ बैठे-बैठे मसाला खाने और उन्हीं की तरह थूकना शुरू कर देते हैं पता भी नहीं चलता। संस्कृति इसी प्रकार एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में प्रवाहित हो जाती है। बस चंद शहरी पढ़े-लिखे लोग ही इस पीक संस्कृति से बचे हुए हैं। इसलिए लोकतंत्र में बहुमत ही संस्कृति का निर्माण करते हैं।




अंशुल उपाध्याय के फेसबुक वॉल से
बसंत पंचमी ..
आज बुधवार को बसंत पंचमी है। अर्थात बुद्धि और सरस्वती दोनों का संगम। सर्वप्रथम आप सभी को बसंत पंचमी की हार्दिक शुभकामनाएं।
इसके बाद बुद्धि और सरस्वती की महिमा की बात करे तो बुद्धि और सरस्वती दोनों भिन्न होकर भी एक है। जैसे बुद्धि होगी तभी ज्ञान का भी सदउपयोग होगा। ज्ञान है, पर बुद्धि नही तो उस ज्ञान का दुरुपयोग भी हो सकता है।पर जब बुद्धि और ज्ञान दोनों का सम्मिश्रण होता है, तभी लक्ष्मी की प्राप्ति भी आसानी से सुलभ होती है।
अतः इस लिए लक्ष्मी जी के साथ ज्ञान की देवी सरस्वती और बुद्धि के देव गणपति दोनों का पूजन किया जाता है। जिससे जो लक्ष्मी प्राप्त हो उसका बुद्धि और विवेक से सदउपयोग हो सके । धन व्यर्थ में ही बर्बाद न हो।
आप ज्ञानी है। लक्ष्मी के अभाव में भी जीवन यापन शांति से कर लेंगे। पर लक्ष्मीपति होने के बाबजूद यदि आपके पास बुद्धि और ज्ञान की कमी है तो कंगालपति होते देर नही लगेगी।
सो ये जो हम लिखते है इसमें कोई भी ज्योतिष साइंस नही है। बस सर्वसाधारण बुद्धि की कीलिष्ठता और ज्ञान के मिश्रण से ऐसा संयोग बनता है। आप भी आज माता सरस्वती से ज्ञान मांगिये और बुद्धि के स्वामी गणेश जी महाराज से उस ज्ञान का सदुपयोग माँगिये। फिर देखिए माँ लक्ष्मी भी स्वमेव ही आप तक चली आयेंगी।
,,,,,,,,,,,, ।। जय माँ ।। ,,,,,,,,,,,




दयाशंकर मिश्रा के फेसबुक वॉल से
जीवनसंवाद संघर्ष की रोशनी!
संघर्ष जिंदगी का हिस्सा है. हमें उसे अपने साथ लेकर चलना है. उसे अलग करके देखने से ही अक्सर संकट पैदा होते हैं.
#जीवनसंवाद संघर्ष की रोशनी!
मैंने हमेशा इस बात का जिक्र किया है कि मुझे लिखने के लिए विषय आपसे ही मिल रहे हैं. आपके अनुभव, सुख-दुख और अनुराग के रंग में जो शब्द मुझ तक पहुंचते हैं, उनमें ही मैं जीवन के रंग मिलाकर आप तक पहुंचाता हूं. इस ऐसे भी कह सकते हैं कि मिट्टी आपकी है, मैं बस कुम्हार का काम कर रहा हूं.
जिंदगी इतनी मुश्किल नहीं है, जितना हमें लगता है. इसके लिए जरूरी नहीं कि हर बार हम ऐसे लोगों के नाम ही दोहराते रहें, जिनके नाम हर जगह लिए जाते हैं. आपके आसपास ऐसे लोग बड़ी संख्या में हैं, जो धीरे-धीरे जिंदगी से लोहा लेते रहते हैं.
मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में बुधवार की शाम 'जीवन संवाद' के पाठकों के नाम रही. इसका नाम तो पुस्तक चर्चा था, लेकिन धीरे-धीरे यह स्नेह और अनुराग के अनुभव में बदल गई. भोपाल से सटे विदिशा और होशंगाबाद से पाठक इस संवाद के लिए चलकर आए. जीवन से जुड़े अनेक अनुभवों और अपने-अपने दुख से आगे निकल कर जीवन को ऊर्जा देने वाले प्रसंगों पर पेट भर बात हुई.
कभी सोच कर देखिए हम दूसरों को क्या बताते हैं. हम कौन-सी चीजों का जिक्र दूसरों से करना पसंद करते हैं. उन्हीं सब बातों का जिनमें हमारा संघर्ष छिपा होता है. संघर्ष ही जीवन का सौंदर्य है. इसके बिना जीवन क्या है? रात के बिना सुबह को कौन याद करेगा. सुबह की प्रतीक्षा ही इसलिए होती है क्योंकि रात होती है. जब रातें होनी बंद हो जाएंगी तो दिन का ख्याल कौन रखेगा. इसलिए संघर्ष को जीवन से काटकर देखने की आदत हमें छोड़नी होगी. इस संवाद में हिस्सा लेते हुए डॉ. विजय अग्रवाल ने संघर्ष के बारे में बेहद खूबसूरती से कहा, 'संघर्ष जिंदगी का हिस्सा है. हमें उसे अपने साथ लेकर चलना है. उसे अलग करके देखने से ही अक्सर संकट पैदा होते हैं.'
जब भी कोई मुश्किल आती है, हम अक्सर अपने भाग्य को कोसने में जुट जाते हैं. उसके लिए कोई ना कोई कारण ढूंढने लगते हैं. जिससे यह साबित किया जा सके कि हम से अधिक दुखी कोई दूसरा नहीं है. क्योंकि दुखी व्यक्ति के साथ अक्सर लोगों की सहानुभूति जुड़ी होती है. हम उसकी मदद तो नहीं कर सकते लेकिन उसके प्रति हमारा रवैया सांत्वना पूर्ण होता जाता है. वह हमारी प्रतिस्पर्धा से दूर होता जाता है. आपने अक्सर देखा होगा कि ऐसा व्यक्ति जो एक जगह ठहर जाता है, उसके बारे में लोगों का रवैया ऐसे लोगों के मुकाबले प्रेम पूर्ण हो जाता है जो लगातार आगे बढ़ते जा रहे हैं.
हम अपने मित्रों में भी ऐसे लोगों के लिए सहृदय रहते हैं, जिनका दायरा हमारे मुकाबले छोटा होता है. यह एक तरह का मनोविकार है. हमें ऐसे लोगों से मिलकर कम ही अच्छा लगता है जो लगातार खतरा उठाते हुए आगे बढ़ते हैं. हमें अधिकतर ठहरे हुए लोग पसंद आते हैं. ऐसा इसलिए क्योंकि साहस हमारे जीवन से विलुप्त हो गया है. आप इतिहास उठाकर देख लीजिए, क्या कारण है कि हम कोलंबस से लेकर दुनिया भर के यात्रियों की बात करते हैं लेकिन हमारे बीच से कोई यात्री दुनिया की सैर करके आने वाला नहीं है.
अगर हैं भी तो बहुत कम. संघर्ष की तरफ खुद को जाने से रोकने की जीवन शैली हमें धीरे-धीरे पीछे की ओर ले जाती है. मनुष्य के रूप में मुझे नई चुनौतियां हमेशा आकर्षित करती हैं. क्या हमारा जन्म केवल इसलिए हुआ है कि हम जिंदगी भर एक ही काम करते रहें. एक ही तरह की चीजों से चिपके रहें. हमें निरंतर खुद को संघर्ष की ओर धकेलना है. इससे ही मनुष्य का भाग्य और मन चमकता है. इसलिए संघर्ष को जिंदगी का हिस्सा बनाइए. इससे दूरी मन को तनाव और निराशा की ओर ही ले जाएगी. सूचना : 'जीवनसंवाद' किताब अमेजॉन और
फ्लिपकार्ट से मंगवाई जा सकती है.
https://www.amazon.in/Jeevan-Samvad-Dayashankar-Mishra/dp/9388707923
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https://www.flipkart.com/jeevan-samvad/p/itm7edca1bf019cd…
ईमेल : dayashankarmishra2015@gmail.com अपने सवाल और सुझाव इनबॉक्‍स में साझा करें:




अजय बोकिल , वरिष्ठ पत्रकार
अजेंडा ही खबरों में तब्दील होने का दौर और निष्पक्ष पत्र कारिता...?..
देश की राजधानी नई दिल्ली में प्रतिष्ठित रामनाथ गोयनका पत्रकारिता पुरस्कार वितरण समारोह में राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने वर्तमान पत्रकारिता को लेकर कुछ गंभीर टिप्पणियां कीं और पत्रकारों को सचेत भी किया। राष्ट्रपति ने कहा कि आज देश में पत्रकारिता कठिन दौर से गुजर रही है। फर्जी खबरें नए खतरे के रूप में सामने आई हैं, जिसका प्रसार करने वाले खुद को पत्रकार के रूप में पेश करते हैं और इस महान पेशे को कलंकित करते हैं। उन्होंने कहा कि पत्रकारिता में सामाजिक और आर्थिक असमानताअों को उजागर करने वाली खबरों की अनदेखी की जाती है और उनका स्थान क्षुद्र बातों ने ले लिया है। कुछ कटाक्ष के भाव से राष्ट्रपति ने कहा कि वैज्ञानिक सोच को प्रोत्साहित करने में मदद के बजाय कुछ पत्रकार रेटिंग पाने और ध्यान खींचने के लिए अतार्किक तरीके से काम करते हैं।‘ब्रेकिंग न्यूज सिंड्रोम’ के शोरशराबे में संयम और जिम्मेदारी के मूलभूत सिद्धांत की अनदेखी की जा रही है। राष्ट्रपति ने यह भी कहा कि आज पत्रकारिता में मूलभूत ‘फाइव डब्ल्यू सिद्धांत’ की अनदेखी हो रही है। पत्रकार अक्सर जांचकर्ता, अभियोजक और न्यायाधीश की भूमिका निभाने लगते हैं। राष्ट्रपति कोविंद ने कहा कि सच तक पहुंचने के लिए एक ही समय में कई भूमिकाएं निभाने की खातिर पत्रकारों को काफी आंतरिक शक्ति और अविश्वसनीय जुनून की आवश्यकता होती है।पत्रकारों की यह बहुमुखी प्रतिभा प्रशंसनीय है। लेकिन वह मुझे यह पूछने के लिए प्रेरित करता है कि क्या इस तरह की व्यापक शक्ति के इस्तेमाल के साथ वास्तविक जवाबदेही होती है? राष्ट्रपति ने जो कहा कि वह निस्संदेह सच का आईना है, लेकिन जो हो रहा है या कराया जा रहा है, उसके लिए कौन जिम्मेदार है, इस पर बात भी उतनी ही जरूरी है। क्योंकि पत्रकारिता इस स्तर तक जाकर ‘टूल’ पहले कभी नहीं बनी। साथ ही आज पत्रकारिता के भी इतने रूप और प्रकार हो गए हैं कि खबरें भी बहुरूपिए अंदाज में परोसी जा रही हैं। इससे भी गंभीर बात यह है कि पहले तक खबरों के माध्यम से अजेंडा चलाया जाता था अब अजेंडे को ही खबरों की शक्ल में पेश किया जा रहा है। और कोई इसे रोकना नहीं चाहता, क्योंकि इसी से निहित स्वार्थों के राजनीतिक-सामाजिक आर्थिक हित सधते हैं।
राष्ट्रपति ने जो कहा वह कुछ पूरी दुनिया में और काफी कुछ भारत में पत्रकारिता की असल तस्वीर है। क्योंकि पत्रकारिता के पैमाने और चश्मे भी बदल रहे हैं। पत्रकारिता के नैतिक मूल्यों में गिरावट आती जा रही है। इसके पीछे अनेक कारण हैं। लेकिन पत्रकारिता के मूल्यों में गिरावट से भी बड़ा सवाल यह है कि क्या अब पत्रकारिता का कोई मूल्य ( वैल्यू) रह भी गया है? क्योंकि ज्यादातर मामलों में ‘मेरी या उसकी मर्जी’ ही पत्रकारिता का मूल्य बनती जा रही है। इस दौड़ में बेलगाम सोशल मीडिया सबसे आगे और फिर विजुअल मीडिया है। कुछ योगदान डिजीटल मीडिया का भी है। अलबत्ता प्रिंट मीडिया फिर भी कुछ पुराने मूल्यों को सहेजने की कोशिश करता रहा है, लेकिन फर्जी खबरों की बमबारी में उसकी स्थिति भी बोफोर्स के गोलों के बीच बारह बोर की बंदूक की माफिक होती जा रही है।
यहां प्रश्न यह है कि फर्जी खबरें क्या हैं, इन्हें कौन बनाता है, किसके इशारे पर बनाता है? फर्जी बातें खबरों की शक्ल क्यों लेने लगती हैं? कौन इसमें मददगार होता है? क्यों समाज खुद विवेकशून्य, अतिसंवेदनशील या फिर संवेदनहीन होता जा रहा है? बुनियादी तौर पर फर्जी खबरें अपुष्ट सूचनाअोंअथवा कही-सुनी बातों पर आधारित होती हैं। कई बार इन्हें किसी खास मकसद से गढ़ा जाता है और बगैर क्राॅस चैक किए बुलेट की रफ्ताजर से आगे बढ़ाया जाता है। बिना इसकी परवाह किए कि आधी-अधूरी, एकांगी अथवा गलत सूचना किसी व्यक्ति, समाज और प्रकारांतर से समूचे राष्ट्र का कितना नुकसान कर सकती है। ‍हालत यह है कि आज सोशल मीडिया का हर हरकारा पत्रकार बन बैठा है। बेशक इसका एक सकारात्मक पक्ष भी है और वह यह कि इसने नागरिक पत्र कारिता को बढ़ावा दिया है। सूचनाएं राकेट की गति से प्रसारित होने लगी हैं। लेकिन समाज के कई घटक जिनमें राजनीतिक पार्टियां भी शामिल हैं, इसी सोशल मीडिया का अपने निहित स्वार्थों के लिए भरपूर इस्तेमाल कर रही हैं। तकरीबन सभी दलों के आईटी सेल इसी फिराक में रहते हैं कि किस खबर या सूचना को अपनी पीडीएफ में कैसे बदलें। इसके लिए फर्जी वीडियो, तस्वीरें, सूचनाएं बेखौफ पोस्ट की जाती हैं। इसके लिए यथा संभव अभद्र भाषा का इस्तेमाल किया जाता है। इनके अलावा वो उचापती लोग भी फर्जी खबरें बनाने और पोस्ट करने का काम दिन रात करते रहते हैं, जिनके लिए यह या तो मनोरंजन है या फिर सोची समझी शरारत है। इसे रोकने के लिए सायबर कानून है, लेकिन उसका उपयोग भी सिलेक्टिव तरीके से ही होता है। राष्ट्रपति ने पत्रकारिता के जिन पांच ‘डब्ल्यू’ सिद्धांतों का जिक्र किया वो जिम्मेदार और विश्वसनीय पत्रकारिता के पांच सूत्र हैं। ये (हिंदी में) हैं- क्या, कब, क्यों, कहां, कौन और साथ में छठा ‘एच’ यानी कैसे? इन पांच कसौटियों पर कसी गई कोई भी सूचना या खबर फर्जी तो नहीं हो सकती। लेकिन आजकल इन पंचाक्षरो का जाप करने में कम ही लोग वक्त जाया करते हैं। यह वक्त और समाज के बदलते सोच की बलिहारी है कि अब फर्जी खबरें ही चर्चा के केन्द्र में रहती हैं और असल खबर की स्थिति एक दासी की तरह होती जाती है।
इसका अर्थ यह नहीं कि असली पत्रकारों और पत्रकारिता का जड़ से उच्चाटन हो गया है। जो जिम्मेदार पत्रकार हैं वो अभी भी अपना काम पत्र कारिता के मूलभूत सिद्धांतों के अनुरूप कर रहे हैं। इन्हीं से पत्रकारिता की थोड़ी बहुत साखी बची हुई है। यही वे लोग हैं जो सत्ता को बेचैन करते रहते हैं। लेकिन ऐसी जिम्मेदार और निप्षक्ष पत्र कारिता को फलने-फूलने देने में किसकी रूचि है? ज्यादातर सरकारें अब क्या कर रही हैं? एजेंडा रहित और कड़वा सच दिखाने को कितने लोग सही पत्रकारिता मानने के लिए तैयार हैं? खुद समाज भी ऐसी पत्रकारिता के पक्ष में मजबूती से खड़ा नहीं होता। वस्तुस्थिति यह है कि सही अर्थों में ‍िनष्पक्ष पत्रकारिता करना या तो एकांतवास भोगना या है या फिर तंत्र की प्रताड़ना का का शिकार होना है। यदि खबरें/सूचनाएं सत्ता तंत्र या प्रभावशाली लाॅबी के अनुकूल हो तो ठीक, वरना ‘देशद्रोही’ अथवा ‘समाजविरोधी’ होने का टैग पत्रकारों के लिए तैयार है।
मुश्किल यही है कि पत्रकारों से तो हर खबर की गहराई तक जाने की अपेक्षा की जा रही है, लेकिन सत्ता और समाज की नजर केवल सूचनाअों के छाछ से निकले ‘मक्खन’ पर है। यानी आप खबरों में अजेंडा ढूंढ कर उसे बेनकाब कर रहे होते हैं तो आप ‘अवांछित’ पत्र कार हैं, लेकिन अगर आप अजेंडे को ही खबर बनाकर पेश करने में माहिर हैं तो आप ‘कुशल’ पत्रकार हैं। आज अधिकांश टीवी चैनलों ने तो सत्ता तंत्र के आगे पूरी तरह ‘सरेंडर’ कर दिया है। वो खबरें भी उसी एंगल से परोसते हैं, जो आकाअों को रास आए। साधारण दर्शक या पाठक इस चालाकी को समझ नहीं पाता कि पत्र कारिता के पांच सूत्रों में अब एक नए तत्व ‘एम’ का भी बेशरमी से समावेश हो चुका है। और वह है-‘मैनीपुलेशन’ यानी खबरों को चालाकी से पेश करना। किसी खास नजरिए से पेश करना। असाधारण तेजी के इस युग में इसकी गहराई तक कोई नहीं जाना चाहता। जबकि पूरे विश्व में पत्रकारिता जिन पांच मूल तत्वों पर खड़ी है, वे हैं- ये हैं सत्यता व यथार्थता, स्वतंत्रता, निष्पक्षता, मानवता और उत्तरदायिता। लेकिन व्यवहार में एक भी तत्व पूरी तरह खरा उतरता नहीं दीखता। राष्ट्रपति ने जो कहा वह तस्वीर का एक पहलू है। दूसरा अनकहा पहलू यह है कि मीडिया खुद अजेंडे का हिस्सा बनता जा रहा है और जब अजेंडा ही खबरें हैं तो निष्पक्ष, प्रामाणिक और परिपुष्ट खबरों की बात करना किसी पब में बैठकर चरणामृत प्राशन करने जैसा है। क्या नहीं?
वरिष्ठ संपादक
‘राइट क्लिक’
( ‘सुबह सवेरे’ में दि. 22 जनवरी 2020 को प्रकाशित)




डॉ -ऋतू पांडेय शर्मा फेसबुक वॉल से
1 January 2020
उन्नीस बीता, बीस आया। हालाँकि धूप वही है, हवा भी वैसी ही। नयापन हमारी सोच की मरीचिका है। तो इस साल क्या सोचें और करें कि अगला इक्कीस हो जाए! थोड़ी-सी बेफ़िक्री लाएं। दुख-चिंताओं के बोझ को उतार डालें और अपने वजन पर स्वाभविक कंट्रोल पा लें। पछतावों- ग़लतियाँ से आंख मिलाकर छुट्टी पा लें। कुछ देर तसल्ली से धूप का आनंद उठाएँ। बच्चे या बड़े आपस में झगड़ते हों तो अपना बीपी न बढ़ाएं, प्रभु की लीला के साक्षी बनें।
आनंद का स्रोत ढूँढे। अपनी बेवकूफ़ियों पर एकांत में दिल खोलकर हंसें। बढ़ती उम्र और सफ़ेद बालों का स्वागत करें। कृत्रिमता के लिए वक्त ज़ाया न करें। शक्ल, रंग, स्टेटस, की चकरी को सिर से निकालकर हाथ में पकड़कर तेज़ घुमाएं। यह आपको अपने बचपन में ले जाएगा।
अब इस साल कोई भी प्रण न करें अपने आपको खुला रहने दें और जहाँ खड़े हैं बस वहीं-से आगे बढ़ जाएं। हां पर अपने आप को ब्रह्मांड का अति महत्वपूर्ण हिस्सा ज़रूर मानते हुए काम करें। किसी की छींटाकसी या अवहेलना को बस जाने दें! मैं ये नहीं हूँ यार!!
खाना ठंडा मिले तो भी बिना कुढ़े प्रसाद की तरह पा लें। कपड़े कम हैं ब्रांडेड नहीं हैं तो खैर मनाएं। चप्पल और सादा कपड़ों में ही प्रसन्न रहें। अरे भई! दम लगती है ख़ुद-जैसा बनने की!!
नकारात्मक उल्टी बातें करने वालों से कहें टा-टा बाय-बाय! अपने दायरों को खोल दें, ठंडी हवा आने दें। वैसे ज़मीन और पानी के दिन लदे जा रहे हैं, अब हवा और धूप की किल्लत होने वाली है। सो नये संकट पर ध्यान देवें। काम के लिए गंभीर हों लेकिन गंभीरता ओढ़े नहीं, वरना ये आपके भीतर के बच्चे को मार देगी।
सबसे महत्वपूर्ण बात #थिंकलैसफील_मोर!! ज़िंदगी एक बार मिली है ज़रा तबियत से जीना है। बाकी तारीख़ें और साल तो हर बार ही बदल जाते हैं।😄😄 फिर भी नया साल मुबारक!




सोमदत्त शास्त्री के फेसबुक वॉल से
28 December 2019
तहज़ीब ,नफासत , सादगी, सलीका और साफ़गोई अगर किसी एक इंसान में देखनी हो तो शिव हर्ष सुहलका से बेहतर कोई दूसरा उदाहरण नहीं हो सकता। राजस्थान की माटी के सपूत सुहालका जी कभी टाइम्स ग्रुप में हुआ करते थे लेकिन पारिवारिक परिस्थितियां उन्हें भोपाल खींच लाई और इसी शहर के अनुपात में उन्होंने खुद को भी समेटकर अपनी मीडिया कम्पनी खोल ली जो मेट्रोमिरर डॉट काम का संचालन करती है। सुहालका जी दिल, दिमाग दोनों स्तर पर ऊंचे कद के आदमी हैं। यह ऊंचाई उनकी पत्रकारिता में भी झलकती है। मन,वचन और कर्म से पारदर्शी व्यक्तित्व के धनी सुहालका जी जैसे मीडिया टाइकुन अब धीरे धीरे देव दुर्लभ होते जा रहे हैं तब उनकी उपस्थिति हमें उम्मीद बंधाती है कि अभी सब कुछ ख़तम नहीं हुआ है। पत्रकारिता को घेरते निराशा के घटाटोप के बीच सुहालकाजी उम्मीद की एक उजली किरण के मानिंद है जिन पर मीडिया नाज कर सकती है। भोपाल में कल की सर्द हवाओं में डूबी खुशनुमा शाम को उन्होंने हम मित्रो की मौजूदगी में अपना 64 वां जन्मदिन मनाया ।ईश्वर से प्रार्थना है कि वह सूहालका जी को स्वस्थ , समृद्ध दीर्घ जीवन दे । उनकी यश पताका यूं ही फहराती रहे। वे यूं ही अपनी मोहक मुस्कान के साथ साल दर साल हम मित्रों के साथ अपनी वर्षगांठ का जश्न मनाते रहें।पुनः बहुत बहुत बधाई शुभकामनाएं Shiv Harsh Suhalka ji । आप शतायु हो दीर्घायु हो आमीन।।।।




श्री ऐन के त्रिपाठी , डी जी पी -म.प्र (रिटायर्ड)
वकीलों की अनुशासनहीनता ...
इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को धन्यवाद देना होगा कि उन्होंने वकीलों की हिंसात्मक घटनाओं को न केवल दिखाया बल्कि उन पर खुली चर्चा आयोजित की। प्रिंट मीडिया ने पता नहीं किस कारण से इन सभी घटनाओं को बहुत ही दबी आवाज़ में प्रस्तुत किया है। कई चैनलों ने तो साफ़ साफ़ इसे वकीलों की गुंडागर्दी भी बताया है। पूर्व मे मैंने इस पर बहुत संक्षिप्त टिप्पणी की थी परंतु सोमवार की घटनओं ने मुझे पुनः उद्वेलित कर दिया है।मैं यहाँ कुछ भी एक पूर्व पुलिस अधिकारी के नाते नहीं बल्कि एक व्यथित नागरिक के रूप में लिख रहा हूँ।वकीलों से मेरा कोई व्यक्तिगत विद्वेष नहीं है।मेरे पिता न्यायपालिका में थे और मेरे बड़े भाई एवं अनेक घनिष्ठ मित्र वकील है।
शनिवार की घटना में तीस हज़ारी कोर्ट में किसी वक़ील ने कथित रूप से कोर्ट के हवालात के सामने गाड़ी पार्क कर दी। पुलिस कर्मियों द्वारा मना करने पर उनका विशाल अहं चोटग्रस्त हो गया। उसके तत्काल बाद की घटनाएँ कुछ धुँधली है। कहा जाता है कि पुलिस ने वकीलों के साथ दुर्व्यवहार किया और बात बढ़ गई। यहां तक कि कुछ ही देर के बाद पुलिस द्वारा गोली भी चलायी गई जिसमे कथित रूप से कुछ वकील घायल हो गए।क़ानून के ज्ञाता वकील न्यायालय मे सदैव बारीक प्रक्रियाओं की बात करते हैं तथा न्याय की माँग करते है।पुलिस के द्वारा उनके साथ कथित दुर्व्यवहार करने पर उन्होंने वैधानिक प्रक्रियाओं का पालन नहीं किया।उन्हें तो पुलिस के दुर्व्यवहार के कारण जैसे हिंसा का तांडव करने का लाइसेंस मिल गया। बजाए वैधानिक शिकायत करने के उन्होंने सामान्य अपराधियों से बढ़कर तेवर दिखाए और पुलिस कर्मियों को पीटा। जेल वाहन समेत अनेक गाड़ियों को क़ानून की माचिस लगाकर व्यवस्था के नाम पर हवन कर दिया। वकीलों का यह हिंसक वर्ग पिटीशनर के रूप मे दिल्ली उच्च न्यायालय के समक्ष उपस्थित हुआ। वकीलों की सामूहिक शक्ति के समक्ष घबराए न्यायालय ने त्वरित गति से दो पुलिसकर्मी निलंबित कर दिये एवं दो पुलिस अधिकारियों का स्थानांतरण कर दिया।अन्य घटनाओं में सौ फ़ीसदी साक्ष्य माँगने और दूसरी पार्टी को सुनने के उपरांत ही कोई निर्णय देने वाले न्यायालय ने वकीलों के ग़ुस्से को कम करने का प्रयास किया।न्यायालय ने स्वयं प्रशासनिक क़दम उठाये और इसके लिए कार्यपालिका को निर्देश देना उचित नहीं समझा।
दो रात घरों पर सो कर आए वकीलों की हिंसात्मक उत्तेजना सोमवार को भी शांत नहीं हुई। पुलिस के तथाकथित दुर्व्यवहार से उपजे आक्रोश को उन्होंने न केवल इक्का दुक्का घिर गए पुलिस कर्मियों पर निकाला बल्कि बिलकुल क़ानून न जानने वाले एक ग़रीब ऑटो रिक्शाचालक को अमानवीय तरीक़े से पीट दिया। भला हो उन ग़रीब ऑटो रिक्शा वालों का जो इस घटना से उत्तेजित नहीं हुए और कहीं भी उन्होंने का दुक्का वकीलों को रफ़्तार उनकी धुलाई नहीं की। फ़िलहाल हाईकोर्ट आदेशित न्यायिक जाँच हो रही है जिसमे तथ्य सामने आएंगे। इधर एक अभूतपूर्व प्रदर्शन में पुलिसकर्मियों ने भी आज दिल्ली पुलिस मुख्यालय पर अपना रोष प्रदर्शित करते हुए पुलिस के निलंबन की कार्रवाई की तर्ज़ पर वकीलों के लाइसेंस निलंबित करने की माँग की।
देश स्वतंत्र होने से पूर्व वकील स्वतंत्रता संग्राम के लिए संघर्ष करते थे।स्वतंत्रता के बाद पूरे देश में विभिन्न स्थानों पर अनेक ऐसे उदाहरण है जहाँ पुलिस और वक़ीलों के बीच हिंसक संघर्ष हुए। यह स्थिति चिंताजनक है। कुछ वरिष्ठतम वकीलों से मेरी बात हुई जो वकीलों के इस व्यवहार से शर्मसार है। बार काउंसिल और वरिष्ठ वकीलों को वकीलों के इस ग़ैर ज़िम्मेदार हिंसक वर्ग को संयमित और ज़िम्मेदार बनाना होगा।




ललित सुरजन , प्रधान संपादक
विराट व्यक्तित्व को समझने की अधूरी कोशिश...
महात्मा गांधी के विराट व्यक्तित्व की थाह पाना असंभव है। विश्वकवि रवींद्रनाथ ठाकुर उनके सहचर मित्र थे तो उपन्यास सम्राट प्रेमचंद उनके अनुयायी। ''युद्ध और शांति'' के कालजयी लेखक लेव टॉल्सटाय से उन्होंने प्रेरणा ली तो ''ज्यां क्रिस्तोफ'' जैसी महान कृति के उपन्यासकार रोम्यां रोलां को उन्हें सलाह देने का अधिकार हासिल था। शांतिदूत दार्शनिक बर्ट्रेंड रसेल उनसे प्रभावित थे तो सार्थक फिल्मों के प्रणेता-अभिनेता चार्ली चैंप्लिन पर उनका गहरा असर था। अल्बर्ट आइंस्टाइन ने तो 1939 में ही यह घोषणा कर दी थी- आने वाली पीढिय़ां मुश्किल से इस बात पर विश्वास कर पाएंगी कि हाड़-मांस से बना यह पुतला कभी इस पृथ्वी पर चला था। महात्मा गांधी से यदि मार्टिन लूथर किंग जूनियर, नेल्सन मंडेला और आंग सान सू ची ने प्रेरणा ली तो फिदेल कास्त्रो और हो ची मिन्ह ने भी स्वयं को इनका अनुयायी घोषित किया। साम्राज्यवादी प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल ने अधनंगा फकीर कहकर उनका उपहास करने की चेष्टा की तो स्वाधीनता संग्राम में साथी भारत कोकिला सरोजिनी नायडू ने सहज विनोद में उन्हें मिकी माउस की संज्ञा दी। रवींद्रनाथ ने ही 1919 में उन्हें महात्मा की उपाधि दी और 1944 मेें नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने न सिर्फ उन्हें राष्ट्रपिता का संबोधन दिया, बल्कि आज़ाद हिंद फौज की पहली ब्रिगेड का नाम ही गांधी ब्रिगेड रखा। 30 जनवरी 1948 की शाम पं. जवाहरलाल नेहरू ने रुंधे हुए स्वर में घोषणा की- हमारे जीवन से प्रकाश चला गया है।
मोहनदास करमचंद गांधी प्रकाश भी थे और प्रकाश स्तंभ भी। उनके विद्वान पौत्र राजमोहन गांधी ने जब उनकी वृहत् जीवनी लिखी तो उपमा-अलंकार के फेर में पड़े बिना पुस्तक को शीर्षक दिया- मोहनदास। इसके आगे जिसको जो मर्जी आए जोड़ ले। एक समय वे मिस्टर गांधी के नाम से जाने गए। परिवार के सदस्यों ने उन्हें बापूजी कहा, लेकिन आम जनता द्वारा प्रयुक्त जी रहित बापू में आदर और आत्मीयता के भाव में कोई कमी नहीं है। भारत के ग्रामीण समाज में सहज रूप से उन्हें बाबा या बबा कहकर भी पुकारा गया। प्रेमचंद के कम से कम चार उपन्यासों- रंगभूमि, कर्मभूमि, गबन और गोदान में गांधी की उपस्थिति सर्वत्र है। वे उनकी अनेक कहानियों में भी प्रकट होते हैं। मैथिलीशरण गुप्त, माखनलाल चतुर्वेदी, दिनकर, सुभद्रा कुमारी चौहान, निराला, पंत, महादेवी, बच्चन, सोहनलाल द्विवेदी प्रभृति कितने वरेण्य साहित्यकारों ने उन पर कविताएं लिखीं। कवि प्रदीप लिखित जागृति के गीत ''साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल'' से लेकर, ''लंबे हाथ'' के ''तुममें ही कोई गौतम होगा, तुममें ही कोई होगा गांधी'' न जाने कितनी फिल्मों में उन पर गीत लिखे गए। रायपुर के बैरिस्टर गांधीवादी रामदयाल तिवारी ने 1937 में ''गांधी मीमांसा'' शीर्षक से उनके जीवन दर्शन पर ग्रंथ लिखा। दो साल पहिले चंपारन सत्याग्रह की शताब्दी पर दर्जनों पुस्तकें प्रकाशित हुईं। आज जब 150वीं जयंती मनाई जा रही है तो ध्यान आना स्वाभाविक है कि पच्चीस साल पहले अविभाजित मध्यप्रदेश में सरकार ने एक सौ पच्चीसवां जन्मदिन समिति बनाई थी और उसके अध्यक्ष कनक तिवारी ने आयोजनों की झड़ी और पुस्तकों की ढेरी लगा दी थी।
इस असमाप्त पृष्ठभूमि में आज अपने आपसे यह सवाल करने की आवश्यकता है कि गांधी हमारे लिए क्या मायने रखते हैं। जो बीत गई सो बीत गई, लेकिन वर्तमान में गांधी की क्या कोई प्रासंगिकता है? क्या भारत को या दुनिया को उनकी वैसी ही ज़रुरत है जो उनके जीवनकाल में थी? आज के वैश्विक परिदृश्य में क्या उनसे उसी तरह प्रेरणा ली जा सकती है, जैसी आज से चालीस-पचास साल पहले तक ली जाती थी? फिल्मों में कोर्टरूम और पुलिस थाने के दृश्यों में गांधी की तस्वीर लगभग अनिवार्य तौर पर देखने मिलती है, सरकारी दफ्तरों और इमारतों में भी उनके चित्र दीवार पर बदस्तूर टांगे जाते हैं। इस औपचारिकता का निर्वाह वे सत्ताधीश भी करते हैं जिनके मन में गांधी नहीं, गोडसे बसता है। इसीलिए वे मजबूरी का नाम महात्मा गांधी का मुहावरा चलाते हैं, जिसका प्रतिउत्तर मित्र लेखक पुरुषोत्तम अग्रवाल ''मजबूती का नाम महात्मा गांधी'' से देते हैं। आज भी चरखा चलाने और खादी पहनने वाले अनेकानेक जन मजबूरी और मजबूती के बीच के भारी अंतर को नहीं समझ पाते। गांधी एक छाया और छायाचित्र की तरह हमारे राष्ट्रीय जीवन में मौजूद हैं। उन्हें शायद किसी दिन कल्कि अवतार भी घोषित कर दिया जाए!किंतु बुनियादी प्रश्न तो गांधी के विचारों को समझने व आत्मसात करने का है। वे सब जो गांधी के नाम पर यत्र-तत्र-सर्वत्र समारोह कर रहे हैं, वे गांधी जीवन दर्शन को यदि यत्किंचित भी समझ पाएंगे तो स्वयं अपना भला करेंगे।
गांधी ने कहा था कि मेरा जीवन ही मेरा संदेश है। इस गहन-गंभीर लेकिन सादे से सुनाई देने वाले वाक्य की तह में जाने का प्रयत्न करना चाहिए। मेरी सीमित समझ में कुछ बिंदु आते हैं। एक-गांधी के जीवन में कोई लाग-लपेट नहीं थी। वे भीतर-बाहर से एक थे। पारदर्शी। दो- मैंने जितना इतिहास पढ़ा है, उसके अनुसार वे अब तक के एकमात्र योद्धा हैं, जिसने सही मायने में (अंग्रेजी में कहेंगे लैटर और स्पिरिट) धर्मयुद्ध लड़ा। युधिष्ठिर को भी मिथ्या संभाषण का आश्रय लेना पड़ा था, लेकिन गांधी ने ऐसा नहीं किया। यह काम वही मनुष्य कर सकता था जिसमें अपार नैतिक साहस हो। तीन-उन्होंने अपनी शर्तों पर अपने जीवन का संचालन किया। कभी किसी को बड़ा या छोटा नहीं समझा। न कभी किसी का तिरस्कार किया और न कभी किसी का रौब उन पर गालिब हो पाया। चार- सत्य, अहिंसा, सविनय अवज्ञा, अपरिग्रह इन सात्विक गुणों का ही इस्तेमाल उन्होंने अस्त्र की तरह किया। धार न भोथरी थी, न जंग लगी, उसमें चमक थी, तभी कारगर हो पाई। पांच- समय की पाबंदी, मितव्ययिता, छोटी सी छोटी वस्तु जैसे कागज के टुकड़े या आलपीन तक का उपयोग कर जीवन में संयम व संतुलन का संदेश दिया। छह- कभी जानने की कोशिश कीजिए कि भारी व्यस्तता के बीच भी वे विश्व भर का साहित्य पढऩे का समय कैसे निकाल लेते थे। सात- वे मनोविज्ञान के पारखी थे। तभी उनके आह्वान पर चूल्हा-चौका, परदा-घूंघट-बुर्का तजकर लाखों स्त्रियां स्वाधीनता संग्राम में भाग लेने सड़कों पर आ गई। सहर्ष जेल यात्राएं भी झेल लीं। इसी का दूसरा पक्ष है कि जो स्त्री-पुरुष साहस के ऐसे धनी न थे, उन्हें कई तरह के रचनात्मक कार्यक्रमों से जोड़ दिया। आठ- भाषण, प्रवचन, मानसिक व्यायाम से परे स्वयं कर्मठ जीवन जिया और अपने संपर्क में आए हर व्यक्ति को निरंतर कर्मप्रधान जीवनयापन की शिक्षा दी। नौ- देश की आज़ादी के प्रधान लक्ष्य के अलावा देश और दुनिया के समक्ष उपस्थित समस्याओं एवं चुनौतियों का संज्ञान लेते हुए उनके समाधान की पहल की। दस- धर्म, संप्रदाय, भाषा, वेशभूषा, देश, प्रांत, स्त्री-पुरुष जैसी तमाम कोटियों से ऊपर उठकर मनुष्य मात्र का सम्मान, मानवीय गरिमा अक्षुण्ण रखने की आकुलता उनमें थी। गांधी को समझने-समझाने की यह एक आधी-अधूरी, असमाप्त कोशिश है।




अजय बोकिल , वरिष्ठ पत्रकार
वक्त के बदलाव पर अपने हस्ताक्षर करते जाना ही अमिताभ होना है...
जब (बीसवीं) ‘सदी के महानायक’ 77 वर्षीय अमिताभ बच्चन को देश सर्वोच्च फिल्म पुरस्कार का ऐलान हुआ तो देश की गान सरस्वती लता मंगेशकर की सहज प्रतिक्रिया थी-‘उन्हें (अमितजी) को यह पुरस्कार बहुत पहले मिल जाना चाहिए था। अर्थात इस अवाॅर्ड के लिए पाच दशकों की साधना और इंतजार जरा लंबा है। अमिताभ जैसी अजीम शख्सियत के बारे में यह सवाल कतई गैर मौजूं नहीं था कि अरे, दादा साहब फाल्के अवाॅर्ड उन्हे अब तक क्यों नहीं मिला? ऐसा सवाल उसी हस्ती के बारे में किया जा सकता है जो जीवित किंवदंती बन जाए, लेकिन इतिहास का फिक्स्ड डिपाॅजिट बनने से बची रहे। जिसके पास रनिंग कैपिटल हमेशा हो। ‘बिग बी’ उन्हीं बिरली शख्सियतों में से हैं, जिन्होंने वक्त के साथ दौड़ते और बदलते रहने में ही अपनी सार्थकता देखी और समझी है।
आखिर अमिताभ बच्चन होने का मतलब क्या है? क्या एक महान एक्टर, क्या एक एंग्रीमैन, क्या एक विनम्र अनुशासित और लाजवाब इंसान, क्या एक जज्बातों का शहंशाह, क्या एक निर्मम प्रोफेशनल या फिर एक करोड़पति बनाने वाला कुबेर प्रश्नकर्ता ? हकीकत में इन तमाम प्रश्नों के उत्तरों का काॅकटेल ही अमिताभ को गढ़ता है। अमिताभ की खूबी यह है कि उनके कई चेहरे, किरदार और चैनल हैं, जिनके बीच से आपको अपने रिमोट का सबसे पसंदीदा बटन दबाना है। काम मुश्किल है, लेकिन ‘दादासाहब फाल्के अवाॅर्ड’ से नवाजे जाने का मतलब ही उस राह पर चलकर कामयाबी के झंडे गाड़ना है, जिस पर चलना दूसरों के लिए लगभग नामुमकिन है।
फिर इतिहास में लौटें। दरअसल ‘अमिताभ बच्चन’ नाम के उच्चारण से ही मन पिछली सदी में सत्तर के दशक में लौटने लगता है, जब समाजवादी सपनों की सिलाई उधड़ने लगी थी। आजादी के आसपास जन्मी पीढ़ी अरमानों और कर्तव्यों के बीच अपनी जगह तलाश रही थी। जिम्मेदारियों का बोझ था तो अपने मनमाफिक कुछ न कर पाने की गहरी कसक भी थी। रोज के राशन, हाथों को काम और साइकिल से स्कूटर तक पहुंचने का रास्ता लंबा था। ये वो पढ़ी-लिखी जनरेशन थी, जो नैतिक मूल्यों और अनैतिक सांसारिकता के द्वंद्व में फंसी थी। उसे समझ नहीं आ रहा था कि अपनी वजूद दिखाने के लिए वह क्या करे, कैसे करे, किससे टकराए, कैसे टकराए।
इस संघर्ष का पहला फंडा हमे फिल्म ‘जंजीर’ के अमिताभ ने दिया। यह समझाया कि ईमानदारी की राह भी कितनी कठिन होती है। इसके बाद तो अमिताभ ने बुराई से अच्छाई के ले जाने वाले कई किरदार किए। यह भी बताया कि ‘जहां हक न मिले, वहां लूट सही।‘ यानी कुछ पाना है तो लड़ना होगा। अपने दमदार डायलाॅग और उसकी दिल छू लेने वाली अदायगी ‍अमिताभ की ऐसी खासियत बन गए ‍कि उन्हें एक ‘स्थायी एंग्री यंग मैन’ कहा जाने लगा। हालांकि अमिताभ ने और दूसरे रोल, जैसे प्रेमी, पिता, भाई दोस्त, आदि भी उसी दमदारी से किए, लेकिन ‘एंग्री यंग मैन’ के भाव और तल्खी में उनकी आत्मा प्रतिबिम्बित होती लगती थी। इस मायने में अमिताभ की वह इमेज सचमुच कालजयी है।
लेकिन किरदारों की विविधता और उसकी लाजवाब अदायगी की दौड़ में तो और भी बड़े मूर्धन्य अभिनेता रहे हैं, जैसे कि दिलीप कुमार। लेकिन दिलीप कुमार लीजेंड बनकर इसी जिंदगी में मुख्यप धारा से हाशिए पर चले गए, क्योंकि वक्त और उसके बदलते मिजाज के आगे ‘सरेंडर’ करने से उन्होंने इंकार कर ‍िदया। ‘सरेंडर’ इसलिए कि इसी सिक्के का दूसरा पहलू ‘वक्त से कदमताल’ कहलाता है। अमिताभ ने हमेशा दूसरा और कभी खत्म न होने वाला रास्ता चुना। समय के साथ उन्होंने रंग, रूप और चाल बदली। नब्बे के दशक में आई उनकी फिल्म ‘शहनशाह’ ने एंग्री यंग मैन’ अमिताभ की फाइल को क्लोज कर दिया। इस बीच उन्होंने थोड़े समय के लिए सियासत और कारोबार में भी हाथ आजमाया। हादसो ने भी अमिताभ के कॅरियर पर ब्रेक लगाने की कोशिश की।
लेकिन नई सदी की शुरूआत में अमिताभ अपनी नई इमेज और तासीर में नजर आए। ये नई दुनिया पैसों की, उपभोगवाद को बेस्ट फ्रेंड मानने वाली और जल्द अमीरी के नुस्खे बताने वाली दुनिया थी। याद कीजिए कभी ‘खून-पसीने की मिलेगी तो खाएंगे’ का जुझारू और उसूलो पर अडिग रहने का संदेश देने वाले अमिताभ और अब ‘करोड़पति’ बनने की स्पर्द्धा की एंकरिंग करते हुए करोड़ों के चैक काटने वाले अमिताभ। कल का ‘एंग्री यंग मैन’ अमिताभ आज का काॅरपोरेट मार्केटिंग गुरू अमिताभ है। आज की पीढ़ी उन्हें अभिनय के मानदंड रचने वाले बेमिसाल अभिनेता के साथ-साथ नवरतन तेल की मार्केटिंग करने वाले ‘बिग बी’ के रूप में जानती है। संक्षेप में कहें तो समय के बदलाव से समझौता कर उस पर अपने हस्ताक्षर करना ही असल में अमिताभ होना है।
यह अमिताभ ही हैं, जिन्होने अपने‍ पिता और हिंदी के जाने माने कवि स्व. हरिवंशराय द्वारा अपने नाम के आगे ‘बच्चन’ तखल्लुस लगाने को एक ब्रांड में तब्दील ‍िकया। इस मायने में अमिताभ दो सदियों के बीच के सेतुबंध कहे जा सकते हैं, जिससे नई पीढ़ी सबक ले सकती है। कुछ लोग इस पुरस्कार को उनकी सत्ता से नजदीकी का नतीजा मान रहे हैं तो ज्यादातर की निगाह में अमिताभ इसके जायज हकदार हैं। कुछ ने उन्हें ‍हिंदी फिल्म जगत का आधार स्तम्भ माना तो कुछ उन्हें फिल्म इंडस्ट्री का अनथक साधक मानते हैं। सबकी अपनी-अपनी राय है। लेकिन इतनी रायें होना ही व्यक्ति की बहुमान्यता का प्रतीक है। अमिताभ बच्चन को प्रतिष्ठित दादा साहब फालके अवाॅर्ड दिए जाने की घोषणा से पुलकित ‘भारत रत्न’ और महान‍ क्रिकेटर सचिन तेंडुलकर ने बधाई देते हुए कहा- ‘किरदार अनेक, शहंशाह बस एक।‘वो सचिन, जिनका जन्म ही उस साल हुआ था, जब अमिताभ का ‘एंग्री यंग मैन’ आग उगलने लगा था। भारतीय फिल्म जगत के पितामह दादा साहब फाल्के को खुद जीते जी कोई पुरस्कार किसी ने नहीं दिया। उल्टे बोलती फिल्मों के उदय ने दादासाहब की मूक फिल्मों को ही खामोश कर दिया। इसके बाद भी दादासाहब ने हार नहीं मानी। कभी हार न मानना ही इस पुरस्कार की आत्मा है। यही अमिताभ होने का भावार्थ भी है। इस पर बधाई तो बनती ही है। है न..!




डॉ अनूप स्वरुप , वी.सी.जागरण लेकसिटी यूनिवर्सिटी , भोपाल
Teachers Day 5 September
विदेशेषु धनं विद्या
व्यसनेषु धनं मति:।
परलोके धनं धर्म:
शीलं सर्वत्र वै धनम्॥

विदेश में विद्या धन है, संकट में बुद्धि धन है,,
परलोक में धर्म धन है और
शील (सच्चरित्र) सर्वत्र ही धन है।

शिक्षक दिवस के शुभ अवसर पर आदरणीय शिक्षकों को कोटि कोटि प्रणाम....!!!
विदेशेषु धनं विद्या
व्यसनेषु धनं मति:।
परलोके धनं धर्म:
शीलं सर्वत्र वै धनम्॥

विदेश में विद्या धन है, संकट में बुद्धि धन है,,
परलोक में धर्म धन है और
शील (सच्चरित्र) सर्वत्र ही धन है।

शिक्षक दिवस के शुभ अवसर पर आदरणीय शिक्षकों को कोटि कोटि प्रणाम....!!!




श्री ऐन के त्रिपाठी , डी जी पी -म.प्र (रिटायर्ड)
Teachers Day 5 September.

It’s time to think about the teachers and the teaching in India. Since now for over three years I am involved in education, this issue is real for me. There is no denying that educational infrastructure in India is in shambles and below par.
We have only romantic memories of old Indian system of very high regards for Guru. Guru was equated to Brahma. Tulsidas freaked out and equated the dust of Guru’s feet with Amrit:

बंदउ गुरू पद पदुम परागा।सुरूचि सुवास सरस अनुरागा।
अमिय मूरिमय चूरन चारू।समन सकल भव रूज परिवार


In Modern time we have to create a robust and creative educational set up for all.
My regards to teachers.




गिरीश उपाध्‍याय
सवाल ये है कि गौर के न रहने के मायने क्‍या लिए जाएं
वास्‍तविक खबर तो 21 अगस्‍त की सुबह आई, लेकिन मध्‍यप्रदेश के पूर्व मुख्‍यमंत्री और भाजपा के दिग्‍गज नेता बाबूलाल गौर को सोशल मीडिया तो कभी का मार चुका था। कई दिनों से ये बातें सोशल मीडिया पर तैर रही थीं कि गौर साहब का देहांत हो चुका है, बस उसका ऐलान नहीं किया जा रहा। उधर गौर साहब वेंटिलेटर पर थे और इधर मीडिया में 14 अगस्‍त से ही बातें चल रही थीं कि वे इस दुनिया को अलविदा कह चुके हैं। 15 अगस्‍त के समारोह में व्‍यवधान न हो इसलिए उनके निधन की खबर को दबा कर रखा गया है। ठीक वैसे ही जैसे भाजपा के युगपुरुष अटलबिहारी वाजपेयी के समय कहा गया था। मेरे पास वाट्सएप पर ऐसी श्रद्धांजलियां अभी भी सुरक्षित रखी हैं जो गौर साहब के जिंदा रहते ही, इस आग्रह के साथ भेजी गई थीं कि मैं अगले दिन के अंक में उस श्रद्धांजलि को भी शामिल कर लूं।
लेकिन अपनी राजनीतिक चतुराई और समझ से जीवन भर लोगों को चौंकाते और छकाते रहे गौर साहब जाते जाते भी मीडिया को सबक सिखाना नहीं भूले। उन्‍होंने 14 अगस्‍त से उड़ रही अपने दिवंगत होने की अफवाह के बाद भी सात दिन निकाले और बता दिया कि वे यूं ही वह फिकरा नहीं कसा करते थे कि- ‘’हर फिक्र को धुंए में उड़ाता चला गया…’’
बुधवार को सुबह से लेकर दोपहर बाद तक हजारों हजार चाहने वालों की गहमागहमी खत्‍म होने के बाद, सुभाष नगर विश्राम घाट पर, जब सारे लोग जा चुके थे, गौर साहब धीरे धीरे धुंआ बनकर उस अनंत में विलीन हो रहे थे जो हरेक प्राणी की अंतिम मंजिल है। शायद वे उस अनंत यात्रा में भी दार्शनिक अंदाज में वही बात कह रहे होंगे जो उन्‍होंने कई बार मीडिया के मित्रों से कही थी- ‘’आपका वर्तमान ही आपका भविष्‍य है।‘’
यूं देखें तो गौर साहब उम्र के उस पड़ाव पर थे, जिसे हमारे यहां भरपूर जीवन जी लेने का उदाहरण माना जाता है। मुझे याद है किसी घटना में कुछ लोगों के दिवंगत होने पर गृह मंत्री के नाते गौर साहब ने बहुत फलसफाना अंदाज में प्रतिक्रिया दी थी- ‘’जो आया है वो तो जाएगा ही भैया…’’ और अपने बिंदास अंदाज के चलते वे खुद के बारे में भी यह बात अच्‍छी तरह सोचते समझते रहे होंगे… यह तो हम लोग हैं जो हर जाने वाले के बारे में परंपरागत रूप से कह देते हैं- ईश्‍वर ने उन्‍हें जल्‍दी उठा लिया…
पर मुझे लगता है, असली सवाल यह है कि बाबूलाल गौर के जाने के मायने क्‍या समझे जाएं? क्‍या हम इसे सिर्फ एक लंबा और सफल राजनीतिक एवं सामाजिक जीवन गुजार चुके व्‍यक्ति के अवसान के रूप में देखें या फिर इसे कुछ और दृष्टिकोण से भी देखना चाहिए। मेरे हिसाब से गौर साहब का जाना सिर्फ एक राजनेता का चले जाना नहीं है, बल्कि पूरी राजनीति में धीरे-धीरे रिसती जा रही उस पीढ़ी का खत्‍म होना है जिसके लिए राजनीति सिर्फ ‘राज-नीति’ नहीं थी। वह तमाम संघर्षों का सामना करते हुए, समाज के बीच से उठकर, राजसत्‍ता के गलियारों तक पहुंचने का ऐसा उपक्रम था जिसमें आज की राजनीति के विपरीत विरोधियों के गले पर सिर्फ छुरा रखने का पाठ नहीं पढ़ाया जाता था। वहां विरोधियों को गले लगाने का संस्‍कार भी सिखाया जाता था।
हाल ही में हमने राजनीति के क्षेत्र में ऐसे तीन नेता देखें हैं जिनके जाने के बाद, दलों और विचारधाराओं की सीमा से परे जाकर लोगों ने उन्‍हें बहुत श्रद्धा और आदर के साथ विदाई दी। इस कड़ी में शीला दीक्षित और सुषमा स्‍वराज के बाद अब बाबूलाल गौर का नाम भी शामिल हो गया है। जिस तरह बाबूलाल गौर के निधन की खबर आने के बाद से, उनके अंतिम संस्‍कार तक, उनके चाहने वालों का सैलाब उमड़ा, उसने बता दिया कि वह आदमी यूं ही राजनीति में इतने लंबे समय तक नहीं टिका रहा। उस टिके रहने के पीछे चुनावी राजनीति से परे या राजनीति के साथ साथ, समानांतर रूप से उनके भीतर बह रही सद्भाव, सौहार्द और सामंजस्‍य की अंतरधारा भी थी।
अब यह पीढ़ी लुप्‍त होती जा रही है। अब विरोधी होने का मतलब अलग राजनीतिक दल का या अलग राजनीतिक विचारधारा का होना नहीं बल्कि दुश्‍मन होना है। अब राजनीति में दुश्‍मनियां पाली जाती हैं, रिश्‍ते नहीं। इसलिए गौर साहब के जाने को, दलों की सीमाओं से परे जाकर, लोगों ने इसलिए याद किया क्‍योंकि वे उन्‍हें ‘राजनीतिक दुश्‍मन’ नहीं ‘राजनीतिक रिश्‍तेदार’ मानते थे। और यह रिश्‍तेदारी गौर साहब ने पूरी जिंदगी बखूबी निभाई।
अब वह पीढ़ी भी लुप्‍त होती जा रही है जिसके बारे में कहा जा सके कि उसने किसी किसान के रूप में, किसी मजदूर के रूप में, किसी झोपड़ी या फुटपाथ से उठकर, अपनी संघर्षशीलता और पुरुषार्थ से इतना बड़ा मुकाम पाया। अब कौडि़यों की भी मोहताज रहकर, जनता के दुखदर्द को महसूस करके ऊपर आने वाली नहीं, बल्कि करोड़ों में पल बढ़कर, करोड़ों के खेल करने वाली पीढ़ी ऊपर आ रही है। निश्चित रूप से देश और समाज ने तरक्‍की की है, आर्थिक क्षमताओं में भी बढ़ोतरी हुई है, लेकिन इस समृद्धि की चार पहियों वाली फर्राटा चकाचौंध ने उस साइकिल को आंखों से ओझल कर दिया है, जो अपने साथ गरीब गुरबों का दुख दर्द भी लेकर चला करती थी।
गौर साहब की एक और काबिलियत का मैं मुरीद हूं। वह थी उनकी समकालीन घटनाओं पर नजर और इतिहासबोध। इतिहासबोध को यहां आप किसी अकादमिक संदर्भ में मत लीजिएगा। मेरा मानना है कि आज के अधिकांश राजनेता अपने आसपास हो रहे घटनाक्रमों पर सामाजिक और राजनीतिक दृष्टि से उतनी बारीक नजर नहीं रखते जितनी गौर साहब रखते थे। शायद वे मानते थे कि उनके आसपास जो घट रहा है वह किसी दिन इतिहास का हिस्‍सा बनेगा इसलिए इसे दर्ज करना और सुरक्षित रखना जरूरी है।
उनकी इसी सोच का प्रमाण है उनकी वह डायरी जो वे वर्षों से नियमित रूप से लिखते आ रहे थे। कई लोगों ने उनसे वह डायरी मांगी लेकिन उन्‍होंने अपनी वह पूंजी किसी को नहीं दी। अब उनके जाने के बाद, वह डायरी यदि खुली तो इतिहास के ऐसे कई पन्‍नों को खोलेगी जिनमें न जाने ऐसे कितने किस्‍से और घटनाएं दर्ज होंगी, जो हो सकता है मध्‍यप्रदेश और जनसंघ व भाजपा की पिछली आधी सदी की कई ‘छवियों’ को बदल दे।




श्री ऐन के त्रिपाठी , डी जी पी -म.प्र (रिटायर्ड)
कश्मीर - धारा 370 की समाप्ति
अपने पिछले लेख में मैंने कश्मीर में हो रही सुरक्षा की तैयारियों के संबंध में कहा था कि इसमें कुछ संकेत अवश्य निहित है।कल गृह मंत्री द्वारा सुरक्षा से संबंधित अधिकारियों की बैठक लेने तथा देर रात PDP और NC के नेताओं की नज़रबंदी के बाद आज सुबह संसद में अमित शाह का संसद में धारा 370 समाप्त करने की घोषणा करना अप्रत्याशित नहीं लगा। अपने शुरुआती दिनों में जनसंघ इस धारा का विरोध करती थी और BJP के घोषणा पत्रों में इसे हटाए जाने का वादा किया जाता रहा है ।आज राजनीतिक दृष्टि से शक्तिशाली BJP ने इसे हटा कर दिखा दिया।
15 अगस्त 1947 को इंडियन इंडिपेंडेस एक्ट के माध्यम से भारत को डोमिनियन के रूप में स्वतन्त्रता मिली।जम्मू कश्मीर के महाराजा हरिसिंह ने पाकिस्तान से क़बायली और सेना के हमले के बाद श्रीनगर के ख़तरे में पड़ जाने के बाद 26 अक्टूबर,1947 को इंस्ट्रूमेंट ऑफ़ एक्सेशन के माध्यम से भारत में विलय की घोषणा की। इसमे स्पष्ट उल्लेख था कि केवल रक्षा, विदेश एवं संचार के विषयों में यह विलय होगा और इसी को ध्यान में रखते हुए संविधान सभा ने नवम्बर 1949 में धारा 370 के समावेश को स्वीकृति दी थी।इस धारा में जम्मू कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा दिया गया था तथा वहाँ पर पृथक संविधान लागू करने के प्रावधान का रास्ता खोल दिया था। 1954 मे धारा 35 A के माध्यम से जम्मू कश्मीर के रहवासियों को विशेष अधिकार दिए गए तथा शेष भारत के लोगों को वहाँ पर भूमि क्रय करने, बसने अथवा शासकीय नौकरी करने के लिए प्रतिबधित कर दिया था।इस धारा में उल्लेखनीय बात यह है कि 370 (3) की शक्ति का प्रयोग करके भारत के राष्ट्रपति अपने आदेश से इस धारा को समाप्त कर सकते हैं। यह धारा अस्थाई भी रखी गई थी। इन्हीं प्रावधानों का प्रयोग कर आज राष्ट्रपति के आदेश से धारा 370 समाप्त कर दी गई है।सरकार ने राज्य सभा से लद्दाख को पृथक यूनियन टेरिटरी तथा जम्मू और कश्मीर को पृथक यूनियन टेरिटरी बनाये जाने का प्रस्ताव पारित करा लिया है।इससे आगे आने वाले दिनों में केंद्र सरकार को जम्मू कश्मीर में पूर्ण नियंत्रण करने में सुविधा होगी।उल्लेखनीय है कि आज संसद जम्मू कश्मीर की विधानसभा के रूप में कार्य कर रही थी।
प्रतिक्रियाएं तथा प्रभाव:- इस धारा के हटाए जाने पर प्रतिक्रियाएं प्रत्याशित आधार पर ही आयी है।सभी राजनीतिक दलों ने अपने अपने हिसाब से इसका समर्थन या विरोध किया है।पूरे भारत में भावनात्मक रूप से इसे प्रबल समर्थन मिला है।BJP को राजनीतिक दृष्टि से भारी लाभ हुआ है।भारत में बुद्धिजीवी वर्ग की प्रतिक्रिया पूर्व परिचित विभाजन रेखा के अनुसार ही है।सर्वाधिक महत्वपूर्ण प्रतिक्रिया जम्मू कश्मीर में PDP नेता महबूबा की है जिन्होंने इसे प्रजातंत्र का सबसे काला दिन बताया है। NC के उमर अब्दुल्ला ने लंबे संघर्ष के लिए तैयार रहने के लिए कहा है। दोनों को अब औपचारिक रूप से गिरफ़्तार कर लिया गया है।
धारा 370 हटाए जाने का लद्दाख तथा जम्मू क्षेत्र में स्वागत किया जाएगा।मुख्य समस्या कश्मीर घाटी में इसके विरोध की है।इसमें कोई संदेह नहीं है कि आतंकवादियों और अलगाववादियों को इस आदेश से बौखलाहट होगी।
घाटी के सामान्य लोगों के बीच में भी इसकी अच्छी प्रतिक्रिया होने की कोई संभावना नहीं है।आज घाटी से जो ख़बरें आ रही है उसके अनुसार वहाँ पर स्थिति नियंत्रण में है तथा भारी संख्या में लगाया गया सुरक्षा बल वहाँ पर शांति क़ायम करने के लिए फ़िलहाल सफल होता दिख रहा है।लेकिन हमें भविष्य में लम्बे हिंसक आंदोलन के लिए तैयार रहना होगा और आतंकवाद की समस्या से भी यथावत जूझते रहना होगा। पाकिस्तान अपनी पुरानी हरकतों से बाज़ नहीं आएगा और सीमा पार से लगातार आतंकवादियों को भेजने का प्रयास करेगा तथा घाटी के हिंसक तत्वों को और बढ़ावा देगा।भारत सरकार के लिए यह आवश्यक है कि घाटी की जनता को यह विश्वास दिलाया जाए कि पूरा भारत उनके विकास के लिए उनके साथ है। आतंकवादियों तथा हिंसक तत्वों से लम्बे समय तक मुस्तैदी से संघर्ष करने के लिए सुरक्षा बलों को तैयार रहना होगा।





अजय बोकिल , वरिष्ठ पत्रकार
उफ् ! सोशल मीडिया में ‘कश्मीर विजय’ का यह कैसा उन्माद...
उधर देश की संसद राष्ट्रीय एकता के मद्देनजर जम्मू कश्मीर की स्वायतत्ता खत्म करने वाली संविधान की धारा 370 में संशोधन का संकल्प दो तिहाई बहुमत से पास कर रही थी, इधर देश में सोशल मीडिया एक तरफ ‘कश्मीर विजय’ के उन्माद और दूसरी तरफ ‘कश्मीरियत के डूब जाने’ के अवसाद में डूबा हुआ था। धारा 370 को लेकर सोशल मीडिया पर उफनती प्रतिक्रियाएं सचमुच हैरान और कुछ मायनो में क्षुब्ध करने वाली भी थीं। मन में विचार आया ये कैसे संस्कार हैं? आज तो केवल धारा 370 के दो प्रावधान हटे हैं, एक पूर्ण राज्य का विभाजन हुआ है और उसकी हैसियत घटाकर अस्थायी तौर पर केन्द्र शासित प्रदेश की कर दी गई है, तब लोगों के मन में कैसे-कैसे मनोभाव और मनोविकार उठ रहे हैं। अगर 15 अगस्त 1947 के वक्त भी सोशल मीडिया वजूद में होता तो लोग पता नहीं क्या-क्या सोचते, क्या-क्या कर डालते?
इस फैसले के लिए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह की तारीफ हो, यह स्वाभाविक ही था। कुछ ने आलोचना भी की। ट्विटर पर तो कल ही ‘आर्टिकल 370’ ट्रेंड कर गया था। इसके कुछ मिनटों बाद ही ‘हैशटैग कश्मीर’ टॉप ट्रेंड करने लगा इसके अलावा 'कश्मीर पर फाइनल फाइट', 'कश्मीर हमारा है' और '370 गया' हैशटैग को लेकर भी लाखों ट्वीट हुए। वाॅट्स एप और फेसबुक पर भी लोगों ने दिल की भड़ास जी खोल कर निकाली। जिस पीढ़ी ने अपने जीवन में कोई युद्धक नहीं देखा, वह इस संवैधानिक बदलाव और नई राजनीतिक बिसात को ही युद्ध से बड़ी जीत मान कर जो जी चाहे सोशल मीडिया में डाले जा रही थी। इनमें कुछ मजेदार थे, कुछ उद्वेलित करने वाले, कुछ क्षुब्ध करने वाले तो कुछ शर्मसार करने वाले भी थे। मैसेज देने की कोशिश थी कि मानो हमने कश्मीर को रौंद‍ दिया है। देश के बाकी हिस्सो में जिसे ‘कश्मीर की आजादी’ माना जा रहा था, उसी को कश्मीरी ‘कश्मीर के इतिहास का सबसे काला दिन’ बता रहे थे। कुछ ने इस कदम को धार्मिक रंग देने की भी कोशिश की। उन्होंने लिखा- हर सावन सोमवार पर एक बड़ा फैसला- 'लग रहा महादेव तांडव की मुद्रा में हैं।' सबसे ज्यादा ट्वीट और व्हाट्स एप मैसेज स्वर्ग से सुंदर कश्मीर की जमीन पर प्लाॅट खरीदने को लेकर थे। एक फर्जी मैसेज में किसी ने कश्मीर में जमीनो की रेट लिस्ट भी जारी कर दी। एक ने ‘नेक’ सलाह दी कि जम्मू कश्मीर ने प्लाट लेना अभी जल्दीबाजी होगी, थोड़ा इंतजार किया जाए तो लाहौर में भी प्लॉट लेने का मौका मोदी सरकार दे सकती है। जबकि एक अन्य की राय थी कि ‘ कॉन्फिडेंस की भी हद होती है । अभी अभी एक प्राॅपर्टी डीलर का फोन आया कश्मीर में प्लाॅट चाहिए तो बताइएगा।‘ इससे ज्यादा वाहियात कमेंट सोशल मीडिया में कश्मीरी महिलाअों को लेकर सामने आए। एक ने लिखा "कश्मीर की लड़कियां बहन नही होगी, दोस्त नहीं होगी, प्रेमिका भी नही होगी...सीधे बीवी होगी...। ट्विटर पर एक युवती ने इरादा जताया कि अब वह किसी भी कश्मीरी युवक से शादी कर सकती है। एक ने आव्हान किया ‘मेरे कुंवारे दोस्तो करो तैयारी, 15 अगस्त के बाद कश्मीर में हो सकती है ससुराल तुम्हारी। कुछ कमेंट तो इतने अोछे थे कि उन्हें लिखा भी नहीं जा सकता।
बेशक धारा 370 को हटाना और जम्मू कश्मीर राज्य को देश का अभिन्न राज्य बनाना ऐतिहासिक और साहसी फैसला है। लेकिन इस फैसले के महत्व पर ऐसी बेहूदा टिप्पणियो से कालिख पोतने का क्या मतलब है ? कश्मीर में जमीन खरीदने की जो ललक सोशल मीडिया में नमूदार हुई उससे तो लगा कि ‘धरती के इस स्वर्ग’ को हम जल्द से जल्द एक झुग्गी बस्ती में बदलने के लिए बावले हुए जा रहे हैं। क्या कश्मीर का हमारे लिए यही मोल है?
बेशक, हमने अपने हिस्से के कश्मीर को पूरी तरह अपने दामन में बांध लिया है, लेकिन इसका मतलब यह तो नहीं कि हमे कश्मीर के साथ ‘कुछ भी’ करने की आजादी मिल गई है। धारा 370 हटने से कश्मीर को ‘गुलाम’ बनाने का परवाना तो नहीं मिल गया है। हर्षोन्माद में जो प्रतिक्रियाएं सामने आ रही है, दरअसल वो हमारी सामाजिक मनोग्रंथियों और यौन कुंठाअों का स्क्रीन शाॅट लगती हैं। यह भी साफ हुआ कि सोशल मीडिया के आईने में लोग एक ऐतिहासिक घटनाक्रम को भी किस मनोवृत्ति से देखते हैं, किस मानसिकता से तौलते हैं और किस मनोविज्ञान के साथ रिएक्ट होते हैं। हो सकता है कि बहुतों की राय में सोशल मीडिया अत्यंत अगंभीर मीडिया हो। उस पर कही गई बातों को अनदेखा करने और उन पर चर्चा में वक्त जाया न करने का आग्रह हो। मानकर कि लोगों का क्या है, कुछ भी कहते रहते हैं। जब मर्यादा पुरूषोत्तम श्रीराम पर एक अदने से धोबी ने नैतिक आधार पर उंगली उठा दी थी तो सोशल मीडिया का सारा कारोबार ही मनोभावों की अमर्यादित अभिव्यक्ति, मानसिक कुंठाअोंको सार्वजनिक करने, कहने की आजादी के अधिकार के मनमाफिक दोहन तथा ‘मेरी मरजी’ के शाश्वत सिद्धांत पर टिका हुआ है। ऐसा प्लेटफाॅर्म जहां लोग कुछ भी कह सकते हैं, रिएक्ट कर सकते हैं। कुछ भी बतिया सकते हैं, किसी को भी लतिया सकते हैं। आहत कर सकते हैं, आहत हो सकते हैं। ट्रोल होना और ट्रोल करना इस मीडिया का वैसा ही धंधा है, जैसे कश्मीर घाटी में पत्थरबाजी का कारोबार। लिहाजा सोशल मीडिया को तात्कालिक मनोरंजन का साधन मानकर उसे दरकिनार करना ही बेहतर है। मानकर कि यह आज की संचार क्रांति की एक अनिवार्य और अटल बुराई है। लेकिन मामला इससे भी कहीं ज्यादा गहरा और गंभीर है। सोशल मीडिया पर मनोविनोद के भाव को अगर मनोविकार अोवरलेप करने लगे तो समझ लीजिए कि वो एक एजेंडा है, जिसका मुहाना किसी ड्रेनेज लाइन में है। मामला ‘फनी कमेंट्स’, तारीफ के पुल अथवा निंदा की नालियों तक सीमित हो, वहां तक ठीक है। लेकिन इसका अतिक्रमण खुद हमे बेनकाब करने लगता है। कश्मीर हम सबको प्राणो से प्यारा है, उसी कश्मीर को लेकर हमारे चेतन और अवचेतन के भावों में इतना अंतर क्यों?





रंजन श्रीवास्तव , वरिष्ठ पत्रकार के फेसबुक वाल से
ईश्वरीय पद से गिर जाने का डर
एक अजीब संयोग। दो शख्सियत। दोनों का कार्यक्षेत्र एक शहर। दोनों अपने अपने क्षेत्रों में स्वयं के द्वारा निर्मित ईश्वरीय आभामंडल में स्थित। दोनों का एक जैसा अंत और कारण भी लगभग एक। और दोनों का अंत सिर्फ एक महीने के अंदर 2018 में। इंदौर में रहने के दौरान मैंने भय्यू महाराज को देखा एक घटना के चलते। महाराष्ट्र से शरद पवार की पार्टी नेशनलिस्ट कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) के विधायकों को सूटकेस पॉलिटिक्स और सैफ्रन पोचिंग से बचाने के लिए इंदौर भेजा गया था। वे पहले आरएनटी मार्ग स्थित एक होटल में ठहरे और बाद में विजय नगर स्थित एक होटल में शिफ्ट हुए। पर डेस्टिनेशन होटल ना होकर सुखलिया स्थित भय्यू महाराज का सूर्योदय आश्रम था। तभी शुजालपुर में 1968 में जन्मे उदय सिंह देशमुख उर्फ भय्यू महाराज का महाराष्ट्र की राजनीति में प्रभाव का पता चला। विधायकों ने वहां हवन किया और सुना गया कि तंत्र मंत्र के माध्यम से तत्कालीन महाराष्ट्र सरकार को बचाने की कोशिश की गई। पर पता नहीं कि ये कितना सच था। भय्यू महाराज के आकर्षक व्यक्तित्व का प्रभाव उनसे मिलने वालों पर ना पड़े यह संभव नहीं था। पर वे मुख्यतः बड़े लोगों के ही जिसमें बिजनेसमैन और पॉलिटीशियन शामिल थे, गुरु थे। उनका प्रभाव लगातार बढ़ रहा था। उनका एनजीओ मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र में लोगों के जीवन को सुधारने का कार्य कर रहा था ऐसा मुझे उनके आश्रम से बताया गया। पर उनसे मिलने के माध्यम उनके सेवादार ही थे। उनसे सीधे बात करके उनसे मिल लेना असंभव जैसा था। पहले एक यादव जी थे। बाद में डायरी में कुछ और सेवादारों के नाम जुड़ते गए। आश्रम से एक नाम बताया जाता। उससे बात करने पर वह कोई और नाम बताता। फिर कोई तीसरा या चौथा। पर फिर भी बात हो जाय इस बात की गारंटी नहीं। उनका आभामंडल लगातार बढ़ रहा था। फिर उनका राष्ट्रीय स्तर पर नाम हुआ जब तत्कालीन यूपीए गवर्नमेंट ने उनको अपना दूत बनाकर अनशन कर रहे अन्ना हजारे और उनके दल को मनाने के लिए भेजा। उनकी तरफ पूरे देश का ध्यान तब गया जब शरद यादव ने उनको हीरो जैसा बताकर उनको क्रिटिसाइज किया। शरद यादव गलत नहीं थे। भय्यू महाराज का व्यक्तित्व किसी हीरो जैसा ही था। यही कारण था कि किसी समय उन्होंने मॉडलिंग के क्षेत्र में भी अपना हाथ आजमाया था। एक अजीब घालमेल। एक आध्यात्मिक पद पर विराजमान व्यक्ति मंहगे गाड़ियों, घड़ियों और उच्च रहन सहन का शौकीन। पर वे भारत में इस तरह के कई ' संतों ' के बीच में अपवाद नहीं थे। इंदौर में ही लगभग इसी दौरान पत्रकारिता के क्षेत्र में कल्पेश याग्निक का पद और प्रभाव बढ़ा। जिस अख़बार में वे काम कर रहे थे उसके प्रति उनका जुनून की हद तक समर्पण था। इंदौर रहने के दौरान भय्यू महाराज से जरूर एक दो बार मिला पर यह मिलना सिर्फ मेरे प्रोफेशन से सम्बन्धित था। पर कभी कल्पेश जी से मिलने का सौभाग्य नहीं मिला। कारण ये था वो बाहर कम ही निकलते थे और मेरा प्रोफेशन बाहर निकलने वाला ही था यानी कि रिपोर्टिंग। उस समय ना तो मुझे उनसे मिलने की कोई जरूरत पड़ी और ना ही उनको मुझसे मिलने की कोई जरूरत पड़ने वाली थी। वो एक शिखर पर स्थापित हो रहे थे और हम जैसे सामान्य लोग उनसे बहुत दूर थे। उनकी मृत्यु से कुछ समय पहले ही मैं इंदौर में उनसे एक उठावने के दौरान मिला। भीड़ में वह मुलाकात कुछ सेकंड्स की रही होगी। लगभग यह वह समय था जब उनके जीवन में भयंकर हलचल मची हुई थी जिसके बारे में बाहर की दुनिया में किसी को पता नहीं था। उनका व्यक्तित्व आकर्षक था। उनके हैंडशेक में आत्मीयता थी। एक मित्र जो उस दौरान वहां खड़े थे उन्होंने मुझे भोपाल आने पर बताया की कल्पेश जी मेरे बारे में पूछ रहे थे। मुझे खुशी हुई। पर मुझे नहीं पता था कि जो व्यक्ति अपनी मधुर मुस्कान के साथ मेरे सामने इंदौर में खड़ा था उसका उठावना स्वयं वहीं होने वाला था सिर्फ कुछ दिनों के बाद ही जहां वे खड़े थे। अगला संयोग था भय्यू महाराज से उनकी मौत से पहले लगभग 15-20 मिनिट्स की बात फोन पर। उनको और अन्य चार ' संतों ' को तत्कालीन शिवराज सिंह चौहान सरकार ने राज्य मंत्री का दर्जा दिया था नर्मदा तथा पर्यावरण के क्षेत्र में काम करने के लिए। विवाद अवश्यंभावी था। मैंने उनसे बात करने की कोशिश की। उसी सेवादार रूट से जाना पड़ा। कई सेवादारों से बात करने के बाद मेरा नंबर लिया गया और कहा गया कि महाराज जब भी फ्री होंगे बात करेंगे। मुझे आशा नहीं थी। पर रात में अप्रत्याशित रूप से उनका फोन आया। अप्रत्याशित इसलिए क्योंकि उस फोन कॉल को मैं एक्सपेक्ट नहीं कर रहा था। उन्होंने बताया कि राज्यमंत्री का दर्जा ना उन्होंने मांगा था और ना की उनकी कोई ऐसी इच्छा थी। वे लगातार अपने सेवाकार्य के बारे में बता रहे थे। उन्होंने कहा कि वे मुझे डिटेल्स मेल करेंगे। बाद में एक सेवादार ने मुझे उनके सेवाकार्यों का डिटेल्स मेल भी किया। एक अजीब संयोग। दोनों शख्सियतों ने कथित रूप से आत्महत्या किया। दोनों के जीवन में पुलिस कार्रवाई के अनुसार ऐसी महिला थी जो उन्हें ब्लैकमेल कर रही थी। मै सोच रहा था कि दोनों व्यक्ति अपने अपने क्षेत्रों में ईश्वरीय आभामंडल लिए हुए थे। किसी को देखकर मुस्करा दें, किसी से हाथ मिला लें या किसी के घर लंच या डिनर पर चले जाएं तो ऐसे लोग होंगे जिन्हें अपना जीवन धन्य नजर आता होगा। ऐसे लोग होंगे जिनका जीवन इन शख्सियतों से मिलने के बाद बदल गया होगा। ऐसे कितने ही लोग होंगे जो उनकी कृपा या आशीर्वाद पाने के लिए लालायित रहते रहे होंगे। ऐसे भी लोग होंगे जो इनकी नाराज़गी से डरते रहे होंगे। पर जब आप इस ऊंचाई पर होते हैं तो वहां से गिरने का भी डर रहता है। आप आदर्श की प्रतिमूर्ति होते हैं। आप हजारों लोगों के रोल मॉडल होते हैं। आप बड़े बड़े मंचों से लोगों को मोटिवेट करते हैं। बहुत से लोग आप जैसा बनने की कोशिश करते हैं या फिर अपने बच्चों को आप जैसा बनने की प्रेरणा देते हैं। ऐसे में आपका जीवन कठिन होता है। बहुत सारे आदर्श होते हैं जिनका पालन करना होता है। मानवीय कमजोरी आते ही आप बार बार उस ऊंचाई से गिरने से डरते हैं कि ' लोग क्या कहेंगे? '. खासकर आध्यात्म के क्षेत्र में जो हमारे ऋषि मुनियों द्वारा प्रदत्त पवित्र ग्रंथ हैं वे बार बार हमें सचेत करते हैं कि आध्यात्म के क्षेत्र में उन्नति के सबसे बड़े बाधक माया और मोह ही हैं। आप स्वयं ऐसा प्रवचन करते हैं। पर स्वयं माया को दोनों हाथों से इकट्ठा करते हैं और मोह के दलदल में फंसते चले जाते हैं। कई आधुनिक उदाहरण हैं चाहे वह आसाराम हों या गुरमीत राम रहीम या रामपाल । इसलिए इन दोनों शख्सियतों की आत्महत्या उस ऊंचाई से गिरने के डर का परिणाम था जिस ऊंचाई पर वे स्थापित थे। पर अच्छा ये होता कि वे उस डर से लड़ते। उस बुराई से लड़ते जिससे लड़ने की प्रेरणा उनके शब्दों या जीवन से हजारों लोगों को मिलता था। वो स्वयं दूसरों को आत्महत्या जैसा घृणित विचार से लड़ने कि सलाह देते रहे होंगे पर जब स्वयं के जीवन में उन विचारों से लड़ने का समय आया तो उन्होंने पराजय स्वीकार कर लिया। दुखद ये है कि उनके निर्णय ने समाज से दो शख्सियतों को छीन लिया जिनसे समाज को आने वाले समय में भी लाभ होता।




आरक्षण क्या है?
भारत देश में भिन्न भिन्न धर्म और जाति के लोग है जिनमे की अनुसूचित जाति,अनुसूचित जनजाति, पिछड़ा वर्ग, अन्य पिछड़े वर्ग एवं जनरल शामिल है। हमारे देश में शुरू से ही अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति तथा पिछड़ा वर्ग के लोगों को हर जगह प्राथमिकता प्रदान की जाती है फिर वो चाहे सरकारी नोकरियां में ,रोजगार प्रदान करने में या फिर शिक्षा क्षेत्र ही क्यों ना हो हर जगह आरक्षण प्रदान किया जाता है। भले इन जातियों और धर्मो मैं रहने वालों की आर्थिक स्थिति कितनी भी मजबूत हो फिर भी ये लोग आरक्षण का भरपूर फायदा उठाते आये है। फिलहाल चल रही आरक्षण व्यवस्था से वास्तविक रूप से कमजोर सामान्य या सवर्ण वर्ग के लोगों को इससे बहुत नुकसान होता है। क्योकि आरक्षण व्यवस्ता के चलते इस वर्ग के लोगों को शिक्षा और रोजगार के अवसर से वंचित रह जाते हैं और अधिक पिछड़ भी जाते है। लेकिन आब देश की मोजूदा मोदी सरकार ने स्वर्ण जाति के लोगों को इस समस्या से निजात दिलाने के लिए 7 जनवरी 2019 को एक बिल पारित किया गया है जिसके तहत स्वर्णों को यानी जनरल केटेगरी में आने वाले ऐसे लोग जिनकी मोजूदा जिंदगी की हालत सही नही है उनके लिए 10% आरक्षण की व्यवस्था की जा रही है और इसे लागू भी कर दिया गया ह।
आइये हम नज़र डालते हैं कुछ खास बिन्दुओ पर जो की बिल की खास बात भी है और बड़ी जानकारी भी है
इस बिल न नाम होगा जनरल केटेगरी या सवर्ण जाति आरक्षण इसे केंद्र सरकार की योजना 2019 केटेगरी मे रखा गया है । इसे प्रदानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा लॉंच किया है इसका लाभ सभी स्वर्ण वर्ग के लोगों को मिलेगा जिसका उदेश्य वास्तविक रूप से पिछड़े स्वर्ण वर्ग के लोगों को 10% आरक्षण दे कर शिक्षा और रोजगार के अवसर दिलाना है तथा इस बिल को लोकसभा एवं राज्यसभा द्वारा पारित किया जा चूका है तथा राष्ट्रपति की भी मंजूरी मिल गई है।
आइये जानते हैं सवर्ण जाति आरक्षण बिल की कुछ खास बाते

इस योजना का देश के उस वर्ग को लाभ मिलेगा जो सामान्य या सवर्ण वर्ग से संबंध रखते हैं परन्तु जिनकी आर्थिक स्थिति कमजोर है और जिनकी मोजूदा हालत ठीक न पायी जाए।
इसके योजना के तहत सवर्ण वर्ग को 10% आरक्षण प्रदान किया जा रहा है। योजना से सामान्य वर्गों के बीच जो गरीबी का स्तर है वो कम हो सकेगा अब जनरल केटेगरी के लोगों को भी सरकारी नौकरी प्राप्त करने के पर्याप्त अवसर मिल सकेंगे।उच्च उच्च शैक्षणिक संस्थानों में प्रवेश के लिए समान्य वर्ग के लोगों को भी अवसर प्राप्त हो पाएगे । अब से पहले इस वर्ग के लोगों को किसी भी प्रकार का आरक्षण में लाभ नहीं मिल पता था।सिर्फ सवर्ण हिंदू ही नहीं,अब गरीब अल्पसंख्यक भी इस आरक्षण के दायरे मे आएंगे । केंद्र की मोदी सरकार द्वारा उठाये गये इस कदम के बाद लोगों द्वारा इस योजना को ‘मोदी की सवर्ण क्रांति’ के नाम से भी सम्बोधित किया जा रहा है। यह वर्तमान में एससी, एसटी और ओबीसी समुदाय के लोगों को मिलने वाले 49.5 फीसदी रिजर्वेशन के अलावा है इससे अन्य जातियों को मिल रहे आरक्षण पर कोई फर्क नही पड़ेगा। स्वर्ण आरक्षण बिल को लागू करने के लिए भारत के संविधान के अनुच्छेद 15 और 16 में संशोधन किया जायेगा।
आइये जानते हैं इसकी पात्रता के बारे मे
ऐसे स्वर्णों परिवार जिनकी वार्षिक आय 8 लाख रूपये से कम हैं, उन्हें सरकार द्वारा 10 % आरक्षण का लाभ प्राप्त होगा. हालांकि संसद में चर्चा के दौरान कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने कहा था कि राज्य सरकारें चाहे तो इस सीमा में बदलाव कर सकती है। सवर्ण जाति के वे लोग जिनके पास 5 एकड़ से ज्यादा कृषि भूमि नहीं है उन्हें इस योजना का लाभ मिल सकेगा।आवेदक शहरी क्षेत्र से है और उसका घर 1000 स्क्वायर फीट से कम एरिये में हो तो भी वह फ़एडा ले सकता है और यदि आवेदक ग्रामीण क्षेत्र में रह रहा है तो उसके घर का एरिया 2000 स्क्वायर फीट से ज्यादा नहीं होना चाहिए। यह सब मापदंडो के तहत हे लोगों को इसका लाभ मिल पाएगा । आरक्षण बिल को राष्ट्रपति की मंजूरी मिल गई है और ये , 1 हफ्ते में लागू हो जाएगा जिसके बाद जनरल केटेगरी या सवर्ण जाति के लोगों को 10% रिजर्वेशन का लाभ मिलने लगेगा।
आरक्षण मे क्या सही और क्या गलत है ?
देखा जाए तो यह फैसला मोदी सरकार का एक बड़ा कदम है परंतु इसको कुछ लोग 2019 के चुनाव जीतने का लोलिपोप बता रहे हैं इसकी सबसे अच्छी बात यह होगी की जो लोग सच मे अपने जीवन मे परेशान है और जिन के पास साधन और संसंधानों की कमी है वो पूरी तरह इसका लाभ उठा सकेगे जो की पहले नहीं हुआ करता था इसका फायदा मिलने से उन लोगों को बड़ा सुख मिलेगा जो की पहले वंचित रह जाते थे वो भी अपनी बड़ी जाती की वजह से और जिनको उनको यह भी समझ नहीं आता था की जब हम परेशान है और हमारे हालत खराब है तो हमे इसका फायदा क्यू नहीं मिल सका अब ये लोग काफी खुश होगे। इसमे गलत देखा जाए तो यह बात है की इस मे तय की गयी आय सीमा कुछ ज्यादा ही रख दी गयी है जिसको कम कर के पेश किया जाना था जिस से जो सच मे गरीब है और जिनकी हालत आर्थिक रूप से खराब है वो इसका फायदा ले पते। साथ ही इसको फिर से जातिगत तोर पर पेश किया गया इसको सामान्य तोर पर सभी को बराबर मान कर पेश किया जाना चाहिए था जिसमे जातिगत तोर पर नहीं आर्थिक तोर पर जो लोग विकट परिस्थि को भुगत रहे हैं उनको इसका फ़ायदा मिल सके। खैर जो भी हुआ है उसको देखते हुए अब देखना यह है की यह योजना देश मे कितनी बहतर साबित होती है और मोदी सरकार को अगले 2019 चुनाव मे इसका कितना फायदा मिल पता है। जनता अपना रंग इस के बाद बदलेगी या फिर देश मे नयी सरकार का आवागमन होगा ।





अजय बोकिल
कर्नाटक चुनाव: प्रचार के बाद तट पर छूटी गंदगी जैसे कुछ सवाल
कर्नाटक विधानसभा चुनाव प्रचार बाढ़ के बाद तटों पर छूटी गंदगी की तरह यह सवाल फिर छोड़ गया है कि चुनाव प्रचार का स्तर अब और कितना गिरेगा? कभी उठेगा भी या नहीं ? इस चुनाव संग्राम के मुख्य प्रतिद्वंद्वी भाजपा और कांग्रेस तथा देश का नेतृत्व करने वाले वर्तमान एवं भावी दावेदार नरेन्द्र मोदी तथा राहुल गांधी के बीच आरोप-प्रत्यारोपों ने जिस निचली सतह को छुआ, उससे यह प्रश्न और गहरा गया है कि क्या भारत में चुनाव अब संकीर्ण सोच और सांस्कृतिक घटियापन की कुरूचिपूर्ण होड़ में तब्दील हो गए हैं? क्योंकि हर चुनाव जुमलों और फिकरों का नया लाॅट लेकर आता है। इससे जनता का मनोरंजन या मार्गदर्शन कम, वितृष्णा ज्यादा होती है। नेता परस्पर छींटाकशी कम, एक दूसरे के कपड़े उतारने पर ज्यादा आमादा दिखते हैं। यूं पहले भी चुनाव में राजनीतिक दलों में खट्टे-मीठे आरोप-प्रत्यारोप होते थे। तीखे कटाक्ष भी होते थे। व्यकिगत टीकाएं भी होती थीं। लेकिन एक दूसरे को चोर, हैवान और नालायक ठहराने का चलन इक्कीसवीं सदी की नई चुनावी संस्कृति और भाषा है। हमे इसी के साथ जीने की आदत डाल लेनी चाहिए। मोटे तौर पर इसकी शुरूआत 2012 के गुजरात विधानसभा चुनाव से मानी जा सकती है, जब कांग्रेस ने राज्य के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी के ‍िलए ‘मौत का सौदागर’ जैसा निहायत खूनी शब्द प्रयोग किया। उसके बाद तो चुनावी भाषा की जो फिसलन शुरू हुई है, उसका अंत कहां जाकर होगा, यह कोई नहीं जानता। कर्नाटक चुनाव में भी कई नए जुमले और एक दूसरे को नीचा दिखाने वाली शब्दावली सामने आई। जुमले गढ़ने, उन्हें बेधड़क एके-47 की तरह चुनावी सभाअों में इस्तेमाल करने के मामले में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का कोई सानी नहीं है। इस बार उन्होने कर्नाटक के मुख्यामंत्री‍ सिद्धारमैया को ‘सीधा रूपैया’ करार दिया ( कन्नड़ में इसका क्या मतलब निकलता है, पता नहीं)। हिंदी में आशय यह था कि राज्य की सिद्धारमैया सरकार इतनी भ्रष्ट है कि पूरा रूपैया सीएम की जेब में जा रहा है। बंगारकोट की एक सभा में उन्होने अजीब तुक-तान भिड़ाकर कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी की तुलना उस बाल्टी से कर डाली, जिसे दबंग लोग टैंकर से पानी भरने के लिए कतार में दबंगई से पहले लगा देते हैं। उन्होने राहुल को ऐसा ‘नामदार’ बताया, जो पीएम की आस अभी से पाले हुए है। जबकि भाजपा के लोगों को उन्होने ‘कामदार’ बताया। गजब तो तब हुआ जब मोदी ने कर्नाटक के मुधोल कुत्तो से कांग्रेस को देशभक्ति सीखने की सलाह दी। मुधोल कर्नाटक का एक इलाका है, जहां के कुत्ते ‘खूंखार देशभक्त’ होते हैं। इन्हें अब भारतीय सेना में भी शामिल किया गया है। कहते हैं कि इसके पहले दत्त भगवान ने जिन प्राणियों को अपना गुरू माना था, उनमें कुत्ते भी शामिल थे। प्रधानमंत्री के इस ‘कुत्ता गुरू’ बयान पर कांग्रेस नेता संजय निरूपम ने कहा कि आज रूपया और प्रधानंमत्री में इस बात की होड़ लगी है कि कौन ज्यादा गिरता है। उधर कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने भी मोदी और भाजपा पर कई हमले किए। हालांकि उनका स्वर और भाषा तुलनात्मक रूप से संयत थी। उन्होने मोदी पर भ्रष्टाचार को प्रश्रय देने का आरोप लगाते हुए जुमला कसा कि ‘बहुत हुआ भ्रष्टाचार, नीरव मोदी है अपना यार।‘ यही नहीं कांग्रेस ने 1 अप्रैल को जो पोस्टर जारी किया, उसमें प्रधानमंत्री पर ‘हैप्पी जुमला दिवस’ कह कर कटाक्ष किया गया। राहुल ने भाजपा की अोर से चुनाव प्रचार करने आए यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ पर यह कहकर प्रहार किया कि ‘यूपी की जनता त्रस्त, योगी कर्नाटक में व्यस्त।‘ कांग्रेस की अोर पूर्व प्रधानमंत्री डाॅ. मनमोहन सिंह ने भी अपनी अगम्य आवाज में जो कुछ कहा उसका लुब्बो लुआब यह था कि देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जिस तरह चुन-चुन कर विरोधियों को अपना निशाना बना रहे हैं, वैसा तो पहले कभी नहीं हुआ। सिंह ने कहा कि किसी भी प्रधानमंत्री ने ( मोदी की तरह) पद की गरिमा इतनी नहीं गिराई। उधर चुनावी दिवाली में सुतली बम के साथ-साथ जिन्ना फोटो विवाद और कश्मीर मे पर्यटक की पत्थरबाजों द्वारा हत्या जैसे ‘चीनी आयटम’ भी माहौल गर्माने के लिए फोड़े गए। इस चुनाव में कुछ बातें साफ हो गईं। मसलन अब आने वाला हर चुनाव पहले के मुकाबले ज्यादा कर्कश और ज्यादा नंगई लिए होगा। इस बात का कोई मतलब नहीं है कि प्रधानमंत्री वार्ड पार्षद तक के चुनाव में अपनी गरिमा को दांव पर क्यों लगाते हैं? वो जादूगर हैं और हर चुनाव में जादू दिखाते रहेंगे। यह आरोप बेमानी है कि मोदी के पास जुमला गढ़ने की फैक्ट्री है। यह खीज भी बेकार है कि अमित शाह हर चुनाव को ‘करो या मरो’ की तरह क्यों लड़ते हैं या फिर अब देश में होने वाला लगभग हर चुनाव ‘हिंदू-मुस्लिम’ में क्यों सिमटने लगता है? चीजें जिस तरह ‘मैनेज’ और ‍’डिक्टेट’ हो रही हैं, उसका मतलब साफ है कि अब चुनाव लड़ने, जीतने और मैनेज करने का व्याकरण पूरी तरह बदल गया है। यह सवाल ही फालतू है कि जो पहले नहीं होता था, अब क्यों हो रहा है? इसका सीधा जवाब है कि सत्ता पाने के लिए चुनाव जीतना जरूरी है और चुनाव जीतने के लिए हर हथकंडा आजमाना जायज है। जनता जिस तरीके से झांसे में आए, उस ढंग से वह दिया जाना चाहिए। दरअसल यह कारपोरेट कल्ट का राजनीतिक एप्लीकेशन है, जिसे मोदी- शाह कंपनी ने बेरहमी से लागू किया है और कांग्रेस का हाथी लाख कोशिश के बाद भी इस कल्चर में नहीं ढल पा रहा है। इस नए चुनावी कल्चर के नैतिक पक्ष पर दस सवाल हों, लेकिन वह रिजल्ट तो दे रहा है या दिलवाया जा रहा है। यह बात अलग है कि इतना सब कुछ करने के बाद भी कर्नाटक में कोई भी पार्टी सीना ठोंक के कहने की स्थिति में नहीं है कि वही जीतेगी। क्योंकि रिमोट अब भी वोटर के हाथ में है। यह उसके हाथ में कितने दिन और रहेगा, यह सबसे बड़ा और संजीदा सवाल है। लेकिन पंचायत से लेकर पार्लियामेंट तक का चुनाव ‍जिस ‘करो या मरो’ के जुनून से लड़ा जा रहा है, उससे सवाल उठता है कि क्या हमे लोकतंत्र केवल ‘किसी भी कीमत पर चुनाव जीतने’ के लिए ही चाहिए?
अजय बोकिल
‘राइट क्लिक’
(‘सुबह सवेरे’ में दि. 11 मई 2011 को प्रकाशित)




अजय बोकिल
शोभा का ट्वीट और जोगावत
देश में जब गधों और उनकी गुणवत्ता तथा उपयो4गिता पर बड़ी राजनीतिक बहस छिड़ी हो, तब पेज 3 लेखिका शोभा डे ने एक ट्वीट कर अपनी उस मानसिकता का परिचय दिया, जो शायद गर्दभ समुदाय में भी स्वीकार्य न हो। शोभा डे ने हाल में एक मोटे और थुलथुल पुलिस वाले की तस्वीर पोस्ट कर ट्रवीट किया कि ‘मुंबई में पुलिस का भारी सुरक्षा इंतजाम।‘ ट्वीट में सुरक्षा के साथ साथ मुंबई पुलिस की सेहत और फिटनेस पर भी तीखा कटाक्ष था। क्योंकि जिस पुलिस वाले को तस्वीर में दिखाया गया था, उसका चलना- फिरना भी मुश्किल लग रहा था। शोभा के इस ट्वीट पर सवा करोड़ लाइक्स मिले। गोया लोग उनसे इसी तरह के ट्वीट की आस लगाए हुए थे। लेकिन सोशल मीडिया में शोभा के इस ट्वीट की काफी आलोचना हुई।
इस ट्वीट को मुंबई पुलिस ने काफी गंभीरता से लिया और शोभा डे को उनकी ही शैली में जवाब दिया। मुंबई पुलिस ने अपने ट्वीट में कहा कि मैडम आपने जो तस्वीर पोस्ट की है, वह मुंबई के किसी पुलिसकर्मी की नहीं है। उसने पहनी ड्रेस भी हमारी नहीं है। कम से कम आप से तो जिम्मेदार नागरिक की तरह बर्ताव की अपेक्षा है। इस ट्वीट- वाॅर का क्लायमेक्स अभी होना था। लोगों ने खोज निकाला कि वह ‘मुटल्ला’ पुलिसवाला आखिर है कौन? पता चला कि वह तो मप्र के नीमच का पुलिस इंस्पेक्टर दौलतराम जोगावत है। जोगावत ने भी उसी शैली में शोभा डे को जवाब ‍िदया। उसने मीडिया से कहा कि मैडम मेरा मोटापा इंसुलिन डिस्बैलेंस के कारण है। इसी वजह से मेरा वजन 180 किलो हो गया है। यह अोवर वेट होने का मामला नहीं है। अगर मैडम चाहें तो वह मेरा इलाज करा सकती हैं। आखिर कौन पतला नहीं होना चाहता। पता चला कि जोगावत की यह हालत 1993 में हुए एक आॅपरेशन के कारण हुई है न ‍िक सेहत के प्रति लापरवाही के कारण।
मुददा यह नहीं ‍िक शोभा डे ने बिना सोचे- समझे जोगावत की तस्वीर पोस्ट की बल्कि यह है ‍कि उन्हें दूसरों का इस तरह मजाक बनाने का अधिकार‍ दिया ‍िकसने? शोभा डे उस सोसाइटी की प्रतिनिधि हैं, जहां गरीबी एक शगल और मजबूरी एक थ्रिल है। वो एक ऊंची मीनार में रहने वाले लोग हैं, जहां जीवन की कठोर वास्तविकताएं केवल एंज्वाय की जाती हैं। शोभा डे अंगेरजी में लिखती हैं और अमूमन उसी दुनिया के बारे में लिखती हैं, ‍िजसमें वो जीती हैं। पैसा और शोहरत उनके इर्द गिर्द घूमते हैं। वे अंगरेजी में एक स्तम्भ भी लिखती हैं, जिसके चलने की वजह उसका विवादास्पद होना ही है। चमक- दमक की दुनिया में उन्हें आधुनिक सोच वाली बेबाक और बेकतल्लुफ लेखिका माना जाता है। उनके लेखन का साहित्यिक मूल्य क्या है, यह बहस का विषय है, लेकिन वे जब तब अपने नाॅन सीरियस ट्वीट्स के कारण चर्चा में बनी रहती हैं। मसलन बीफ बैन के माहौल में उन्होने गोहत्या विरोधियों को खुली चुनौती दी थी कि मैंने अभी अभी बीफ खाया है। हिम्मत है तो कोई आकर मुझे कत्ल करे। भारतीय‍ खिलाडि़यों के रियो अोलिपिंक मे प्रदर्शन को लेकर उनका कटाक्षपूर्ण ट्वीट था कि रियो जाअो सेल्फी लो, खाली हाथ वापस आअो। लेकिन भारतीय महिला खिलाडि़यों ने अपने प्रदर्शन से शोभा डे को करारा जवाब दिया था।
शोभा ने एक बार विदेश मंत्री सुषमा स्वराज को नसीहत दे डाली थी ‍कि वे ट्रवीट करना बंद कर दें। यह बात अलग है ‍िक सुषमा ने शोभा की बात को तवज्जो नहीं दी। सवाल यह है कि शोभा डे इस तरह के ट्वीट कर सुर्खियों में क्यों बनी रहना चाहती हैं और इससे उन्हें क्या लाभ होता है? वे अगर किसी घटना या विचार पर प्रतिक्रियास्वरूप ट्वीट करें, इसमें गलत कुछ नहीं है। क्योंकि देश में लोकतंत्र है और अपनी बात कहने की आजादी है। लेकिन सवाल उसके पीछे की नीयत का है। शोभा के ट्वीट जूती को जूती की जगह दिखाने की मानसिकता लिए होते हैं। इसके लिए वे सार्वजनिक अभिव्यक्ति के उन बु‍नियादी मानदंडों का भी पालन नहीं करते, जो उन जैसी सेलिब्रिटी से अपेक्षित है। मोटे पुलिस वाले की तस्वीर मय कमेंट के पोस्ट करने के पहले यह तो जांच लिया होता कि वह किसकी है, कहां की है और इस तस्वीर के पीछे की वजह क्या है? माना कि हमारे देश में ज्यादातर पुलिस वाले अपनी फिटनेस पर उतना ध्यान नहीं दे पाते। इसकी वजह उनका अोवर वर्कलोड ौर तनाव है। फिर भी वे 24 घंटे अपना कर्तव्य निभाते रहते हैं। उस पर गैरजिम्मेदाराना कमेंट करने में शोभा जैसे लोगों को क्या लगता है? जाहिर है ‍िक उनकी मंशा केवल व्यवस्था, व्यक्ति और विचार का मजाक उड़ाना भर है। उनके कारणों पर जाना नहीं है। पेज थ्री मानसिकता भी यही है। वह केवल अपने बारे में सोचती है। अपने तक सोचती और अपनी दुनिया में मस्त रहती है। जीवन की कड़वी सच्चाइयों से उनका कोई लेना देना नहीं है। ये खाते कहीं की,बजाते किसी और की हैं। ये महज शोभा की सुपारियां हैं, ‍जिनका देश और समाज के लिए कोई उपयोग नहीं है।
अजय बोकिल
‘राइट क्लिक’
(‘सुबह सवेरे’ में दि. 24 फरवरी 2017 को प्रकाशित)





गिरीश उपाध्‍याय
क्‍या यह उपेक्षा इसलिए कि डॉ. रचना के आगे ‘शुक्‍ला’ लिखा है?
आज मैं अपनी बात पाठकों से माफी मांगने के साथ शुरू करूंगा। माफी इसलिए कि साढ़े तीन दशक से भी ज्‍यादा के अपने पत्रकारीय जीवन में मैं पहली बार ‘उस दृष्टिकोण’ से भी कोई बात कहने जा रहा हूं जो मैंने कहना तो दूर कभी सोचा तक नहीं… मेरा मानना रहा है कि पत्रकार संपूर्ण समाज के लिए होता है, वह न तो किसी जाति या संप्रदाय विशेष का होता है, न किसी राजनीतिक दल का और न ही किसी एक विचारधारा का। उसका काम है समाज में होने वाली गतिविधियों और घटनाओं को लोगों के सामने लाना। लेकिन आज यह कॉलम पढ़कर कई लोग मुझ पर आरोप लगाने का बिरला अवसर पा सकते हैं। आरोप की यह गुंजाइश उस बात से जुड़ी है जो मैं अब कहने जा रहा हूं। हालांकि मैं सिर्फ अपने पत्रकार होने के दायित्‍व का निर्वाह कर रहा हूं, आप इसका क्‍या अर्थ या आशय निकालते हैं, यह मैं आप पर ही छोड़ता हूं। यह मामला जबलपुर के सेठ गोविंददास जिला अस्‍पताल का है। यह सरकारी अस्‍पताल है और यहां मेडिकल ऑफिसर के रूप में डॉ. रचना शुक्‍ला काम करती हैं। उन्‍होंने गत 7 मई को फेसबुक पर जैसे ही एक पोस्‍ट डाली, तो हंगामा हो गया। इस पोस्‍ट के जरिए डॉ. शुक्‍ला ने अपना इस्‍तीफा देते हुए लोकस्‍वास्‍थ्‍य और परिवार कल्‍याण विभाग के संचालक से उसे मंजूर करने का अनुरोध किया था। डॉ. शुक्‍ला का कहना था कि अस्‍पताल में ड्यूटी के दौरान उन्‍हें कुछ लोग लगातार परेशान कर रहे हैं। यह डॉक्‍टर प्रोटेक्‍शन एक्‍ट का खुला उल्‍लंघन है और वे तीन महीने से आरोपियों के खिलाफ पुलिस में शिकायत दर्ज कराने की कोशिश कर रही हैं लेकिन वहां भी उनकी कोई सुनवाई नहीं हो रही। यहां तक आपको कहानी सामान्‍य लग सकती है। आप सोच सकते हैं कि ऐसा तो आमतौर पर होता ही रहता है। लेकिन यदि आप इस मामले को यहीं तक सीमित समझ रहे हैं तो जरा रुकिये। पहले यह जान लीजिए कि डॉ. शुक्‍ला कौन हैं और उनके साथ बदतमीजी करने वाले लोग कौन हैं? डॉ. शुक्‍ला मध्‍यप्रदेश के पूर्व मुख्‍यमंत्री और कांग्रेस के दिवंगत दिग्‍गज नेता श्‍यामाचारण शुक्‍ल की बहू लगती हैं। वे जिस परिवार से आती हैं उसके कई सदस्‍य डॉक्‍टर, वकील और पुलिस अधिकारी हैं। दूसरी तरफ जिन लोगों पर यह घिनौनी हरकत करने का आरोप है उनकी पहचान डॉ. शुक्‍ला ने अपनी फेसबुक पोस्‍ट में ’स्‍थानीय भाजपा नेता और कार्यकर्ताओं’ के रूप में की है। यानी मध्‍यप्रदेश में, उस जबलपुर शहर में, जहां मध्‍यप्रदेश हाईकोर्ट की मुख्‍य बेंच है, वहां एक पूर्व मुख्‍यमंत्री की सरकारी डॉक्‍टर बहू को कुछ गुंडे अस्‍पताल में आकर धमका रहे हैं और पुलिस में शिकायत करने की तमाम कोशिशों में नाकाम रहने पर वह लाचार होकर फेसबुक पर घटना का ब्‍योरा देते हुए अपना इस्‍तीफा दे रही है। और आगे सुनिए… खुद डॉ. शुक्‍ला के अनुसार इन गुंडों ने उनसे आखिर कहा क्‍या? इसका ब्‍योरा सोशल मीडिया पर चल रही डॉ. शुक्‍ला की उस हस्‍तलिखित चिट्ठी में है जो उन्‍होंने अपने विभागाध्‍यक्ष को लिखी है। जो बातें उन्‍होंने लिखी हैं वैसी बात शायद कोई महिला सपने में भी लिखने की न सोचेगी। गुंडों ने जिस भाषा में डॉ. शुक्‍ला को धमकाया वह शब्‍दश: उन्‍होंने लिखा है और वह इतना रोंगटे खड़े कर देने वाला है कि उसका जिक्र तक यहां नहीं किया जा सकता। एक महिला के साथ कोई गुंडा या गुंडे क्‍या कर सकते हैं, वह धमकी उसमें पूरी लिखी गई है। गुंडों ने एक बार नहीं दूसरी बार आकर भी उनसे उसी भाषा में बात की और धमकी दी कि दस (लोग) आकर तुम्‍हारी इज्‍जत उतार देंगे। मामला मीडिया में आने के बाद इसकी चर्चा हुई। मध्‍यप्रदेश कांग्रेस के नए अध्‍यक्ष कमलनाथ, पूर्व केंद्रीय मंत्री ज्‍योतिरादित्‍य सिंधिया, सुरेश पचौरी, पूर्व मुख्‍यमंत्री दिग्विजयसिंह, म.प्र. विधानसभा में प्रतिपक्ष के नेता अजयसिंह आदि ने इसे प्रदेश में महिलाओं की हालत की असलियत करार दिया। उन्‍होंने दोषियों पर तुरंत कार्रवाई की मांग की। लेकिन अफसोस कि इस मामले में सरकार या संगठन की ओर से ऐसी कोई सक्रियता नहीं दिखी जिससे यह साबित होता कि सरकारी एजेंसियों ने घटना को गंभीरता से लिया है। ऐसे मामलों को देखने के लिए जिम्‍मेदार महिला आयोग भी नजर नहीं आया। क्‍या यह रवैया इस बात का संकेत नहीं कि डॉ. रचना शुक्‍ला के मामले को राजनीतिक चश्‍मे से देखा जा रहा है। ऐसा क्‍यों न माना जाए कि मामले में इतनी ढिलाई इसलिए बरती जा रही है क्‍योंकि रचना शुक्‍ला एक कांग्रेसी परिवार से हैं और आरोपी सत्‍तारूढ़ भाजपा से जुड़े दलित नेता अथवा कार्यकर्ता बताए जा रहे हैं। और अब वो बात जिसके लिए मैंने शुरुआत में ही माफी मांगी थी। मैं यह सवाल भी यहां उठाना चाहता हूं कि क्‍या ऐसे मामलों में भी सरकारों या दलों की संवेदनाएं तभी जागेंगी जब उन्‍हें कोई राजनीतिक फायदा हो? यदि आज इस प्रसंग में पीडि़त महिला ब्राह्मण या उच्‍च वर्ग की न होकर दलित होती और उसका मामला मीडिया में उछलता तो भी क्‍या ऐसी ही ठंडी प्रतिक्रिया होती? तय मानिए ऐसा कतई नहीं होता, बल्कि उस महिला के घर नेताओं की कतार लग जाती। भोपाल से लेकर दिल्‍ली तक के नेता बयान दे देकर जमीन आसमान एक कर देते। वोट बैंक के राजनीतिक हवनकुंड में आहुतियां डाली जाने लगतीं। तो क्‍या हम उस समाज में खड़े हैं जहां अब महिलाओं की अस्‍मत का मुद्दा भी उनकी जाति, वर्ण या राजनीतिक कनेक्‍शन से तय होगा। महिला अगर शुक्‍ला है तो अपनी लड़ाई खुद लड़े और यदि निम्‍न वर्ण की है तो उसकी लड़ाई राजनीतिक रणबांकुरे लड़ेंगे। कुछ तो शर्म करो यार, महिलाओं की इज्‍जत को तो ऐसे खांचों में मत बांटो। दिन रात महिला सम्‍मान की रक्षा के भाषण झाड़ते झाड़ते तुम्‍हारे मुंह से झाग निकलने लगते हैं। अपनी धमनियों में बहने वाले खून की नहीं तो कम से कम मुंह से निकलने वाले उस थूक की ही लाज रख लो… पुनश्‍च– यदि डॉ. रचना शुक्‍ला की कहानी का कोई दूसरा चेहरा भी है तो सरकार बेशक उसे भी सामने लाए पर यूं शुतुरमुर्गी मुद्रा तो अख्तियार न करे…
गिरेबान में- girish.editor@gmail.com
(सुबह सवेरे में 11 मई 2018 को प्रकाशित)




गिरीश उपाध्‍याय
कमलनाथ जी अपने ‘बेदाग’ होने का बखान भी ज्‍यादा मत करिए
आखिर वही हुआ जिसकी आशंका मैंने पहले ही जता दी थी। शिवराजसिंह मंगलवार को, वह ‘नालायक’ संबोधन ले उड़े जो उन्‍हें प्रदेश कांग्रेस के नेता कमलनाथ ने अपनी ‘मीट द प्रेस’ में दिया था। मैंने बोला ही था कि यह ‘नालायक’ शब्‍द कांग्रेस और कमलनाथ के साथ वैसे ही चिपक जाएगा जैसा गुजरात चुनाव के दौरान मणिशंकर अय्यर द्वारा कहा गया ’नीच’ शब्‍द चिपका था। बुधवार को राजधानी के एक प्रमुख अखबार ने शिवराज के हवाले से पहले पेज पर मुख्‍य खबर का हेडिंग ही यह दिया- ‘‘हां, हम नालायक हैं, क्‍योंकि गरीब को जीने का दे रहे हैं हक’’ अखबार लिखता है कि अवैध कॉलोनियों को वैध करने के राज्‍यस्‍तरीय अभियान की शुरुआत करते हुए ग्‍वालियर में अपने 33 मिनिट के भाषण में शिवराज ने 8 बार ‘नालायक’ शब्‍द का इस्‍तेमाल किया। माना कि कमलनाथ के पास वक्‍त बहुत कम है। लेकिन बेहतर होगा वे मीडिया को बयान देने में कोई जल्‍दबाजी न करें। इससे तो रोज नए विवादों और संकटों में फंसते चले जाएंगे। उन्‍हें जल्‍दबाजी ही दिखानी है तो पूरे प्रदेश का दौरा करने में दिखाएं, कांग्रेसियों को मैदानी स्‍तर पर सक्रिय करने में दिखाएं, पार्टी के सारे नेताओं को एकजुट करने में दिखाएं। बयान देकर विवाद में उलझने या विरोधियों को खुद पर वार करने का मौका देने से तो कांग्रेस का नुकसान ही होगा। ‘मीट द प्रेस’ में मैंने एक बात और नोट की। हालांकि वह बात कमलनाथ पहले भी कई बार कह चुके हैं लेकिन उन्‍होंने मीडिया के सामने उसी बात को बहुत शान से दोहराया। कमलनाथ ने कहा कि ‘’मेरा डंपर से, रेत से या शराब से कोई संबंध नहीं रहा। मेरा सार्वजनिक जीवन बेदाग रहा है, उस पर कोई उंगली नहीं उठा सका, मुझ पर कोई मुकदमा नहीं है।‘’ नाथ की यह बात सच हो सकती है, लेकिन मैं समझता हूं इसे बार बार दोहराने या इसे अपनी यूएसपी बताने से उन्‍हें परहेज करना चाहिए। मैंने ऐसा क्‍यों कहा? वो इसलिए कि भाजपा के वर्तमान नेतृत्‍व और रणनीतिकारों ने चुनाव लड़ने के औजार और तौर तरीके सभी बदल दिए हैं। अब वे सबसे पहले अपने दुश्‍मन को नैतिक रूप से ही कमजोर करते हैं। भले ही कमलनाथ आज तक ‘बेदाग’ रहे हों लेकिन मध्‍यप्रदेश विधानसभा चुनाव के लिए वोट पड़ने तक भी वे ‘बेदाग’ रहेंगे, इसकी कोई गारंटी नहीं है। चाहे कमलनाथ हों या ज्‍योतिरादित्‍य सिंधिया। इनका अपना बहुत बड़ा कारोबार भी है और इनके पास अथाह संपत्तियां भी। इस बात से भी कोई असहमत नहीं होगा कि आज कोई भी कारोबार सौ टंच खरा और सौ फीसदी ईमानदारी से नहीं चलता। सरकार के पास तमाम एजेंसियां हैं, आपको क्‍या पता कि कल को कौनसी एजेंसी कौनसा पर्चा या पुर्जा ढूंढ लाए और आपके ‘बेदाग जीवन’ के दावे की हवा निकाल दे। मैं जो कह रहा हूं मेरे पास उसका आधार भी है। अभी तो खेल शुरू ही हुआ है और अभी से ऐसे सवाल उस ‘अनमैनेजेबल मीडिया’ पर तैरने लगे हैं जिसका जिक्र मैं दो दिनों से कर रहा हूं। यकीन न आए तो मध्‍यप्रदेश भाजपा के पूर्व मीडिया प्रभारी और वर्तमान में नागरिक आपूर्ति निगम के अध्‍यक्ष डॉ. हितेष वाजपेयी की फेसबुक वॉल पर जाकर देखिए। जिस दिन कमलनाथ की ‘मीट द प्रेस’ हुई उसी दिन डॉ. वाजपेयी ने कमलनाथ को ‘कंपनी बहादुर’ की संज्ञा देते हुए अपनी फेसबुक वॉल पर कुछ सवाल डाले हैं। वे पूछते हैं- ‘’SMPL कंपनी से आपका या आपके परिवार का क्या सम्बन्ध है ‘कंपनी-बहादुर’ साहब?’’ और दूसरा सवाल है- ‘’पिछले 40 सालों से आपके हवाई ज़हाज़ और हेलीकाप्टर का खर्च जो कंपनी उठा रही है, उसका आपके और आपके परिवार से क्या सम्बन्ध है?’’ उसी दिन डॉ. वाजपेयी एक अन्‍य पोस्‍ट में लिखते हैं- ‘’अभी तो हमने ‘कंपनी बहादुर साहब’ की 21 कंपनी के बारे में परिचय ही नहीं दिया है! फिर आगे इन कंपनियों ने क्या क्या ‘फर्जीवाड़े ’ किये हैं यह भी सामने आएगा तो क्या आप हमें ‘धमकाओगे’?’’ अब थोड़ी सी बात कमलनाथ के मशहूर ‘छिंदवाड़ा मॉडल’ की भी कर लें। उन्‍होंने मीडिया के सामने उस दिन विकास की अपनी अवधारणा को लेकर कुछ बातें करते हुए विकास के ‘छिंदवाड़ा मॉडल’ का जिक्र किया। उन्‍होंने बताया कि उनके संसदीय क्षेत्र का ज्‍यादातर इलाका आदिवासी है और जो आदिवासी एक समय ठीक से कपड़े भी नहीं पहन पाते थे वे आज जीन्‍स पहनकर घूम रहे हैं। आदिवासी जीन्‍स पहनें, अच्‍छी बात है। इसे तरक्‍की की पहचान के रूप में आप प्रचारित करें, उसमें भी कोई बुराई नहीं है। छिंदवाड़ा की सड़कें वहां के नगरीय विकास को लेकर भी आपने बहुत काम किया है इसमें भी दो राय नहीं। लेकिन बात घूम फिरकर वहीं आ जाती है कि छिंदवाड़ा अंतत: एक लोकसभा क्षेत्र भर है। और यह बात भी किसी से छिपी नहीं है कि वहां की जीत के पीछे सिर्फ विकास ही एकमात्र कारण नहीं है। उसमें ‘खास प्रबंधन’ का बड़ा हाथ है। मध्‍यप्रदेश में आज की तारीख में 51 जिले हैं और उनमें से छिंदवाड़ा सिर्फ एक जिला भर है। राज्‍य में लोकसभा की 29 सीटें हैं उनमें से वह एक सीट है। वहां के विकास और समूचे मध्‍यप्रदेश के विकास में बहुत बड़ा अंतर है। एक ग्राम पंचायत के विकास मॉडल को आप उस पंचायत वाले जिले तक में तो पूरी तरह लागू कर नहीं सकते, फिर मध्‍यप्रदेश जैसे इतने बड़े राज्‍य में एक जिले के विकास की अवधारणा को कैसे अमली जामा पहना सकेंगे। मेरी बात को आप ‘गुजरात मॉडल’ की मोदीजी की अवधारणा से समझिए। 2014 के लोकसभा चुनाव से पहले खुद मोदीजी ने और भाजपा ने देश भर में प्रचारित किया था कि यदि उनकी सरकार आई तो ‘गुजरात मॉडल’ की तर्ज पर पूरे देश का विकास किया जाएगा। सरकार आ भी गई, लेकिन चार साल के बाद हकीकत क्‍या है यह सबके सामने है। जिस तरह एक राज्‍य का मॉडल पूरे देश पर लागू नहीं हो सकता उसी तरह एक जिले का मॉडल पूरे प्रदेश पर लागू नहीं हो सकता। जिस तरह भारत विविधताओं वाला देश है, उसी तरह मध्‍यप्रदेश भी विविधताओं वाला राज्‍य है। एक जिले के लिए संसाधन जुटाना आसान है, पूरे प्रदेश के लिए बहुत कठिन। इसलिए आपको यदि मध्‍यप्रदेश का नेतृत्‍व करना है तो ‘छिंदवाड़ा सिंड्रोम’ से बाहर निकलकर सोचना होगा। कहने को तो अब भी बहुत कुछ है लेकिन इस प्रसंग को मैं यहीं समाप्‍त करता हूं। वैसे भी प्रदेश में चुनाव होने वाले हैं, ऐसी बातें आपसे आगे भी होती रहेंगी...
गिरेबान में- girish.editor@gmail.com
(सुबह सवेरे में 10 मई 2018 को प्रकाशित)




एक बार परीक्षा में फेल होना जिन्दगी में फेल होना नहीं होता है?
स्कूल और कॉलेज के दरवाजे हमशा खुले रहते हैं। जिंदगी भगवान का दिया हुआ अनमोल तोहफा है, जिन्दगी में खुश रहने के बहुत से रास्ते होते हैं। दुनिया के सैकड़ों सफल व्यक्ति एसे हैं, जिन्होंने कभी डिग्री नहीं ली, लेकिन दुनिया के टॉप विष्वविद्यालयों के प्रोफेशनल्स को नौकरी दी, आप भी असफलता से सफलता के कदम छू सकते हैं। धीरूभाई अंबानी, बील गेटस और स्टीव जॉब्स जैसे सफल उद्द्योगपतियों के पास कोई डिग्री नहीं थी। सफल व्यक्ति वह होता है, जो हमेशा सकारात्मक सोच, दृढ़ निष्चय और कठोर मेहनत करने में विश्वास रखता है।
मेट्रो मिरर- फॉरवर्ड इंडिया फोरम काउंसलिंग केन्द्र
स्कूल व कॉलेज के विद्यार्थी प्रति सोमवार को शाम 5 से 6 के बीच काउंसलिंग हेतु मिल सकते हैं।
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