भारत रत्न कलाम साहब को श्रद्धांजलि
भारत रत्न डॉ. अब्दुल कलाम साहब को सच्ची श्रद्धांजलि तब होगी जब सभी राजनेता , अफसर , विद्यार्थी, और आम जनता उनके विचारों पर चलें , अगर ऐसा हो पाता है तो भारत दुनिया में सबसे ताकतवर , समृद्ध , और सुशासित देश कहलायेगा और भारत के राजनेता , अफसर, बिजनेसमैन, विद्यार्थी और नागरिकों को दुनिया में सबसे अधिक तवज्जों दी जाएगी ।
कलाम साहब की किताबें सभी नेताओं और सरकारी अफसरों को दी जाए और उन्हें कलाम साहब के विचारों को आत्मसात करने के लिए कहा जाये। क्योंकि सबसे अधिक भ्रष्टाचार सरकारी विभागों और संस्थाओं के आला अफसरों द्वारा ही किये जाते है ।
जय भारत
मध्यप्रदेश जनसंपर्क करे संपूर्ण पारदर्शिता की पहल
मध्यप्रदेश सरकार द्वारा जनसंपर्क विभाग को सरकार की बेहतर छवि बनाने के लिए करोड़ों रुपये का बजट पारित किया जाता है, लेकिन फिर भी जनसंपर्क विभाग पिछले दस वर्षो में भी सरकार की वो इमेज नहीं बना पाया है जो आम जनता को इस बात का भरोसा दिलाये की स्वंय जनसंपर्क विभाग में पारदर्शिता और अनुशासन पर विशेष ध्यान दिया जा रहा है| जनसंपर्क विभाग को चाहिए की प्रत्येक जारी किये गये विज्ञापनों के आदेश को अपनी वेबसाईट पर रोज अपडेट करे और आम जनता को भी यह जानकारी उपलब्ध हो | यह जनता का अधिकार है की वो सभी सरकारी विभागों की आय और व्यय को वांच करे और सरकार को ग़लत काम करने से रोके| सभी सरकारी विभागों को चाहिए कि वे अपने विभाग की आय और व्यय का पूर्ण ब्योरा, प्रत्येक माह अपनी वेबसाईट पर डाले, इसके साथ ही उनके विभाग का मुख्य उद्देश्य और विभिन्न अधिकारियों के नाम, फ़ोन, ई-मेल सहित कार्यछेत्र का ब्योरा भी हो| ई-मेल पर पूछे गये प्रश्नों का उत्तर निश्चित समय-सीमा मे दिया जाए और यह सभी आनलाईन प्रक्रिया द्वारा हो, इसकी पहुँच सभी फोटो-आईडी धारकों को हो| यहाँ यह कहना उचित होगा की असली विकास का आधार केवल पारदर्शिता और अनुशासन ही है|
उम्मीद की किरण की तरह है चौटाला पिता पुत्र को मिली सज़ा
आज़ादी के बाद से ही देश की अवाम को इस बात का मलाल था की राजनीतिक पहुँच वालों को कितना ही बढ़ा अपराध करने पर भी जेल नहीं होती है और एक आम आदमी के खिलाफ ट्रेफिक नियम तोड़ने पर भी चलान बना दिया जाता है। लेकिन हाल ही में सीबीआई की विशेष कोर्ट ने हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री ओमप्रकाश चौटाला और उनके बेटे अजय चौटाला को 10-10 साल कैद की सजा सुना कर जो संदेश दिया है, उसका न केवल दूरगामी महत्व है बल्कि देश की जनता को राहत पहुँचाने वाला निर्णय भी है।
अदालत ने साफ कर दिया की आरोपी चाहे कितना भी ताकतवर क्यों न हो, हमारा न्यायिक तंत्र उसे बचकर निकलने नहीं देगा। इस फैसले से यह धारणा एक तरह से टूटी है कि हमारा सिस्टम राजनेताओं को सजा दिलाने में नाकाम है। यह पहला मौका है जब किसी पूर्व मुख्यमंत्री को इतनी बड़ी सजा दी गई है। जो लोग देश में फैले भ्रष्टाचार से हताश हो चुके हैं, उनके भीतर इस फैसले से फिर से विश्वास बहाल होगा। एक तरह से देखा जाए तो इस फैसले से जाहिर होता है कि हमारे सिस्टम में अभी उम्मीद बची हुई है। जरूरत है तो केवल इसे और धार देने की। भले ही चौटाला पिता-पुत्र इस फैसले को ऊपरी अदालत में चुनौती देंगे। आगे इस फैसले का स्वरूप बदल सकता है, लेकिन यह तय हो गया है कि न्यायिक तंत्र को चकमा देकर निकलना किसी के लिए भी आसान नहीं है।
बता दें कि पिता-पुत्र ने सत्ता में रहते हुए टीचरों की भर्ती में जमकर फर्जीवाड़ा किया। 1999-2000 में हरियाणा में जूनियर बेसिक ट्रेनिंग टीचरों के लिए 3206 पद निकाले गए। लेकिन अधिकारियों पर दबाव बनाकर फर्जी इंटरव्यू कराए गए और मनमाने तरीके से पैसे लेकर टीचरों की नियुक्तियां की गईं। इस तरह अनेक अयोग्य लोग भर्ती कर लिए गए। यह प्रकरण बताता है कि हमारे सिस्टम में भ्रष्टाचार ने किस तरह अपनी जड़ें जमाई हैं। अब चौटाला के लिए आगे का सफर कठिन हो गया है। अगर उनकी सजा पर किसी ऊपरी अदालत ने रोक नहीं लगाई, तो वह आगे चुनाव नहीं लड़ पाएंगे क्योंकि रिप्रजेंटेशन ऑफ दि पीपल एक्ट के तहत दो साल से ज्यादा की कैद की सजा पाने वाला व्यक्ति चुनाव लड़ने के अयोग्य ठहराया जाता है। इस फैसले के बाद अब देश की नजर राजनेताओं के भ्रष्टाचार से जुड़े दूसरे मामलों पर भी रहेगी। उन मामलों में भी तत्काल फैसले किए जाने की जरूरत है। भारत में राजनेताओं से जुड़े हाई प्रोफाइल केस में अक्सर ये देखा गया है कि आरोपियों को बचाने में राजनेताओं के साथ साथ नौकरशाहों की एक पूरी लॉबी लग जाती है।
इसका सबसे ज़्यादा नुकसान देश की क़ानून व्यवस्था को ही होता है। बहरहाल पूर्व मुख्यमंत्री ओमप्रकाश चौटाला और उनके बेटे अजय चौटाला को जेल भेजने की सज़ा ने उम्मीद की एक किरण जगाई है की देश में कोई कितना ही बढ़ा दबंग क्यों न हो वो क़ानून से नहीं बच सकता। इस प्रकरण से एक संदेश यह भी जा रहा है की भ्रष्टाचारियों की खैर नहीं। हालाँकि यह तो आने वाला समय ही बताएगा कि हमारी देश की अदालतें और कितने दबंगों को जेल की हवा खिला सकती हैं।
मध्य प्रदेश में भी सुरक्षित नहीं महिलाएं
दिल्ली में चलती बस में छात्रा के साथ गैंग रेप की घटना ने पूरे देश को झझकोर दिया है। घटना के बाद से देश भर में आक्रोश है। इस घटना ने साबित कर दिया कि देश की राजधानी महिलाओं के लिए सुरक्षित नहीं है। यह पहली घटना नहीं जब राजधानी में कोई छात्रा इस तरह सामूहिक बलात्कार की शिकार हुई हो। पहले भी इस तरह की दिल दहला देने वाली घटनाएं हो चुकी है। इस बात का अंदाजा लगाया जा सकता है कि जब देश की राजधानी में यह हालात हैं तो बाकी शहरों में क्या स्थिति होगी। दिल्ली से इतर हम अगर भोपाल की ही बात करें तो मध्यप्रदेश की यह राजधानी भी महिलाओं के लिए सुरक्षित नहीं है। भोपाल में भी महिलाओं के खिलाफ अपराधों में तेजी से इजाफा हो रहा है। खुद पुलिस रिकार्ड के मुताबिक पिछले दो सालों में ही महिलाओं के खिलाफ अपराधों में वृद्धि हुई है। पुलिस ने भोपाल में ही 2011 में बलात्कार के 141 व अपहरण के 39 मामले दर्ज किए थे। जबकि नवंबर 2012 तक बलात्कार के 117 व अपहरण के 76 मामले दर्ज हो चुके हैं। महिलाओं के खिलाफ आए दिन होने वाले अपराधों को देखकर लगता है कि अपराधियों में पुलिस व कानून का कोई खौफ नहीं रहा। अपराधी खुले आम दिन दहाड़े अपराध कर रहे हैं। पुलिस महकमा अपराधियों को पकड़ने के बजाए शिकायतें ही दर्ज करा रहा है।
महिलाएं व छात्राएं हर रोज बस स्टॉप, पब्लिक ट्रांसपोर्ट या सार्वजनिक स्थलों पर छेड़खानी का शिकार हो रही है। परोशानी की बात यह है कि छेड़खानी की शिकार महिलाओं के आगे नहीं आने से अपराधियों के हौसले और बुलंद हो जाते हैं। रोजाना छेड़खानी का शिकार होने के बाद भी महिलाएं शर्मिंदगी या डर के कारण थाने नहीं पहुंचतीं। मध्य प्रदेश के गृह मंत्री उमा शंकर गुप्ता खुद विधानसभा में जानकारी दे चुके हैं कि पिछले तीन साल के दौरान राज्य में कुल 9926 बलात्कार की घटनाएं दर्ज की गईं। 2009 में 3,071, 2010 में 3,220 और 2011 में बलात्कार के 3381 मामले दर्ज किय गये हैं। ये सरकारी आंकड़े हैं और सच छिपाने की अपनी स्वाभाविक प्रवृत्ति के बावजूद बेहद भयावह हैं। एक सामान्य गुणा भाग के बाद ही आप समझ सकते हैं कि प्रदेश महिलाओं के रहने के लिए किस हद तक खतरनाक जगह बन चुका है। इन आंकड़ों के हिसाब से आज राज्य में हर दिन तकरीबन 10 महिलाएं बलात्कार का शिकार होती हैं।
स्वयं सेवी संस्था संगिनी की संचालक सुश्री प्रार्थना मिश्रा बताती हैं कि उनके पास ढेरों शिकायतें युवतियों की आती हैं। उनका कहना होता है कि घर से निकलकर बस स्टॉप पर पहुंचने के बाद उनके साथ किसी न किसी तरह की अभद्रता का सिलसिला शुरू हो जाता है। विशेषकर बसों में सफर के दौरान कंडक्टर के अलावा अन्य मुसाफिर छेड़खानी करने से बाज नहीं आते। परेशानी की बात यह है कि इन हरकतों के बाद भी महिलाएँ पुलिस में शिकायत करने से डरती हैं। हालाँकि दिल्ली की घटना के बाद पुलिस ने थोड़ी मुस्तैदी बरतना शुरू कर दिया है। डीएसपी ट्रेफिक एमके छारी का कहना है कि पुलिस शीघ्र ही ऐसे नगर वाहनों के खिलाफ कार्रवाई शुरू करेगी, जिनके शीशों में काली फिल्म लगी हैं। उनका कहना है कि वर्दी, बैज न लगाने वाले मिनी बस चालकों, परिचालकों के खिलाफ समय-समय पर चालानी कार्रवाई की जाती है। लेकिन उन्होनें स्वीकार किया कि चालक-परिचालकों का पुलिस वेरिफिकेशन नहीं होता है। बरकतुल्ला विश्वविधयालय के सामाज शास्त्री प्रोफ़ेसर गौतम ज्ञानेंद्र का कहना है कि अब इस तरह के मामलों पर लगाम कसने के लिए क़ानून में संशोधन ज़रूरी हो गया है।
मध्य प्रदेश मे पर्यटन व ज्ञान आधारित उधोगो की संभावनाएँ एवं समाधान
मध्य प्रदेश मे पर्यटन व ज्ञान आधारित उधोगो की भरपूर संभावनाएँ हैं फिर
भी अभी तक इन उधोगो की स्थापना व मार्केटिंग हेतु भरपूर प्रयास नही किए
गये है. वेश्वीकरण और आर्थिक खुलेपन की नीतियों के तहत कर्नाटक,
आंध्रप्रदेश, तमिलनाडु, महाराष्ट्र एवं गुजरात जेसे कई राज्यों ने पर्यटन
व ज्ञान आधारित उधोगो की महत्ता को समझते हुए इस और ध्यान देना शुरू
किया. आज ये राज्य पर्यटन के साथ-साथ ज्ञान आधारित उधोग जेसे इन्फर्मेशन
टेक्नोलॉजी, शिक्षा एवं फाइनेंशियल सर्विसेस मे अग्रणी राज्य हैं एवं इन
उधोगो से भरपूर रोज़गार, जीवन स्तर मे सुधार के साथ-साथ सरकारी ख़ज़ाने
भी भर रहे हैं.
यहाँ मुख्य मुद्दा यह है कि हम क्यों दूसरे राज्यों से पिछड़ जाते हैं.
हमें इस बात का पता लगाना ही होगा कि कौन हमें पीछे धकेल रहा है. मध्य
प्रदेश मे पर्यटन के लिए केरल, राजस्थान, गोआ से भी ज़्यादा संभावनाएँ
हैं. लेकिन मध्य प्रदेश गठन के 50 साल बाद भी सरकार कोई खास करिश्मा नहीं
कर पाई है. मध्य प्रदेश को विश्व पर्यटन व ज्ञान आधारित उधोगो का भी
राष्ट्रीय केंद्र विकसित किया जा सकता है. मज़बूत इच्छाशक्ति के साथ
किसी भी सपने को सच मे बदला जा सकता है. ठोस कार्ययोजना बनाकर एवं
दूरदर्शी वाले अफ़सरों को टारगेट देकर कार्य सौंपा जाए.
इन महत्वपूर्ण बिंदुओं पर ध्यान देकर मध्य प्रदेश पर्यटन व ज्ञान आधारित
उधोगो का राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय केन्द्र ज़रूर बन पाएगा :-
(1) मध्य प्रदेश के पर्यटन को वास्तविक गति देने के लिए एक टूरिज़्म
फाइनेंशियल डेवलपमेंट कार्पोरेशन का गठन किया जाना चाहिए और पर्यटन से
संबंधित सभी प्रकार के प्रोजेक्ट को आकर्षित करने के लिए राष्ट्रीय व
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मार्केटिंग की जानी चाहिए. इस तरह के कार्पोरेशन
का काम प्रोफेशनल व पर्यटन की समझ रखने वालों पर छोड़ा जाना चाहिए.
(2) पर्यटन से संबंधित उधोगो को प्रोत्साहन देने के लिए बहुत कम ब्याज दर
पर ऋण दिया जाना चाहिए और जब तक पर्यटन उधोग एक क्रांति का रूप न ले तब
तक इसे लागू रखना उचित रहेगा.
(3) पर्यटन व ज्ञान आधारित उधोगो उधोगो के महत्व को समझते हुए एक
राष्ट्रीय पर्यटन व ज्ञान उधमिता विकास संस्थान शुरू किया जाना चाहिए,
जिसमे मध्य प्रदेश व दूसरे राज्यों के उधमियों को मध्य प्रदेश मे ही
कारोबार स्थापित करने के लिए विशेष पेकेज दिया जाना चाहिए. विशेष पेकेज
इस तरह से डिजाइन किया जाए की कोई भी उधमी मध्य प्रदेश से बाहर जाकर
कारोबार शुरू करने के बारे सोचे भी नही.
(4) एक्सपर्ट का दल गठित करना : पर्यटन से संबंधित एसे एक्सपर्ट का दल
गठित किया जाए जो पर्यटन मे अग्रणी राज्यों जेसे केरल, राजस्थान, गोआ तथा
एसे अग्रणी देश जेसे सिंगापुर, मलेशिया, होंगकॉंग, बेंकाक को संपूर्ण
पर्यटन रणनीति का बहुत बारीकी से अध्ययन करे और रिपोर्ट सरकार के सामने
रखने के साथ-साथ यह भी बताए की किस तरह से इन्हें कार्यान्वित किया जा
सकता है. जिन एक्सपर्ट एजेंसियों को कार्य को अंजाम देने के लिए रखा जाए
उन्हें यह अच्छी तरह से बता दिया जाए की सरकार का इरादा वास्तव मे पर्यटन
को विश्वस्तर पर लाना है. यह ध्यान देने योग्य बात है कि केवल वास्तविक
इच्छाशक्ति से ही किसी कार्य को अंजाम दिया जा सकता है.
(5) विश्वस्तरीय इंफ़्रास्ट्रक्चर का निर्माण : अभी तक मध्य प्रदेश मे जो
भी सरकारें आई सभी ने विश्वस्तरीय सड़के व अन्य आधारभूत सुविधाएँ उपलब्ध
करने की बात पर ज़ोर दिया लेकिन हमें इस बात पर गौर करना चाहिए कि
किन-किन कारणों से हम एसा कर पाए. हम केवल समस्याओं व बाधाओं का पता
लगाकर ही समाधान के बारे में आगे बढ़ सकते हैं. एसी एजेंसियाँ, ठेकेदार
या अन्य कोई व्यक्ति जो सड़कों व अन्य निर्णं कार्यों मे दोषी रहे हों
उन्हें हमेशा के लिए ब्लेकलिस्ट मे डाल देना चाहिए. हमें यहाँ यह नहीं
भूलना चाहिए कि इस दुनिया मे अच्छे लोगों की कमी नहीं है.
यदि हम वास्तव मे अच्छी गुणवत्ता वालीं सड़कों का ज़ाल बिछाने का इरादा
रखते हैं तो सबसे अच्छा तरीका यह है कि उन विकसित देशों की सड़कों का
अध्ययन किया जाए और ठीक उसी तरह के निर्माण सामग्री व सड़कें बनाने मे
प्रयुक्त मशीनों का उपयोग किया जाए और उसी देश की किसी उपयुक्त एजेंसी को
ही सड़क निर्माण की गुणवत्ता को परखने का जिम्मा सौंपा जाए. एसा हो ही
नही सकता कि हम अच्छी गुणवत्ता वाली सड़कें बना नही पाएँ. अभी तक कितने
ही मंत्री व अफ़सर सिंगापुर व अन्य देशों की यात्राएँ कर चुके हैं, लेकिन
अफ़सोस की बात है कि वो वहाँ से कुछ भी सीखकर नही आए. जब तक सरकार व
सरकारी अधिकारी इस और पक्के इरादे, पूरी ईमानदारी व सरकारी खजाने को अपना
स्वयं का कमाया हुआ रुपया नही मानेंगे तब तक सड़कें बनती रहेगी, गद्दे
होते रहेंगे और हमेशा सरकार विश्व स्तरीय सड़कों की बात करती रहेगी.
मध्य प्रदेश सरकार इस और गंभीरता से सोचे ताकि रुपयों की बर्बादी को रोका
जा सके, मध्य प्रदेश पर्यटन मे आगे बढ़े और विश्वस्तरीय सड़कों का ज़ाल
बिछाया जा सके.
(6) अंतरराष्ट्रीय स्तर के टूरिस्ट सहायता केंद्र व कॉलसेंटर की स्थापना
: विश्व पर्यटन में अग्रणी देशों की तर्ज़ पर मध्यप्रदेश मे भी और
मध्यप्रदेश से बाहर भी अंतरराष्ट्रीय स्तर के टूरिस्ट सहायता केंद्र
स्थापित किए जाए. इन टूरिस्ट सहायता केंद्रों के बारे मे विश्वस्तर पर
प्रचार प्रसार किया जाए. इन सहायता केंद्रों पर प्रत्येक जानकारी व
आनलाइन बुकिंग की व्यवस्था की जाए. इन टूरिस्ट सहायता केंद्रों मे काम
करने वाले सभी अफ़सर कर्मचारी पूरी तरह से प्रशिक्षित हों तथा मानव संबंध
व अँग्रेज़ी व हिन्दी मे बातचीत करने मे निपूर्ण हो. इस तरह के टूरिस्ट
केंद्रों में चिड़चिड़े व्यवहार वाले बाबू न हो, बल्कि एसे समझदार,
स्मार्ट व व्यवहार कुशल प्रोफेशनल हों जो पर्यटकों को अच्छी तरह से समझ
सके, उनकी समस्याओं का निदान कर सके और मध्यप्रदेश की छवि को चारचाँद लगा
सके.
(7) पर्यटन की नीतियों मे सुधार के लिए सुझाव व प्रतियोगिता का आयोजन :
पर्यटन की नीतियों मे लगातार सुधार के लिए समय- समय पर समाज के सभी तबकों
को सुझाव देने के लिए आमंत्रित किया जाए और एसे व्यक्तियों को पब्लिक
समारोह आयोजित कर सम्मान प्रदान किया जाए. समय-समय पर एसी प्रतियोगिताओं
का पूरे देश मे आयोजन किया जाए जिससे मध्यप्रदेश के बारे मे प्रचार
प्रसार हो. विजेताओं को मध्यप्रदेश मे आने, ठहरने, घूमने का ईनाम दिया
जाए.
टीम अन्ना के आंदोलन पर उठे सवाल
भ्रष्टाचार के खिलाफ जन लोकपाल बिल को लेकर वर्ष 2011 में शुरू हुए अन्ना हज़ारे व उनकी टीम को शुरुआती दौर में देश व विदेश से जो बड़ी संख्या में समर्थन मिला था वो इस बार देखने को नहीं मिल रहा। जंतर-मंतर पर टीम अन्ना के समर्थन में दिखाई दे रही कम भीड़ कई सवाल उठा रही है। यह भी पता नही कि टीम अन्ना का अनशन इस बार कितने दिन चलेगा। टीम अन्ना भी लोगों की बेरुखी से परेशान है। हालांकि उन्होंने स्पष्ट किया कि वे कम भीड़ को लेकर परेशान नहीं हैं। भीड़ की कमी से जूझ रही अन्ना टीम को बाबा रामदेव से थोड़ी बहुत रहट मिली। बाबा रामदेव के अनशन स्थल पर पहुँचने के बाद ही थोड़ी बहुत भीड़ जमा हुई। सवाल यह है कि आख़िर अचानक ऐसा क्या हो गया की ज़ोर शोर से शुरू हुआ भ्रष्टाचार के खिलाफ यह आंदोलन ठंडा पड़ने लगा। क्या आंदोलन में दम नहीं रहा या फिर लोगों का विश्वास ही टीम अन्ना से उठ गया है। ऐसे कई सवाल हैं जो जेहन में घूमने लगे हैं। सबसे बड़ा सवाल यह है कि टीम अन्ना का या आंदोलन भ्रष्टाचार के खिलाफ है या कांग्रेस के खिलाफ। यही एक सवाल है जो टीम अन्ना को कटघरे में खड़ा कर रहा है। टीम अन्ना का शुरू से ही यह कहना रहा है कि उनका आंदोलन भ्रष्टाचार के खिलाफ है। लेकिन बाद में उनका आंदोलन पूरी तरह कांग्रेस व केंद्र की यूपीए सरकार पर केंद्रित हो गया। अगर बारीकी से विश्लेषण करें तो टीम अन्ना ने जीतने भी मंत्रियों के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोप लगाएँ हैं वे सब या तो कांग्रेसी हैं या फिर कांग्रेस समर्थक पार्टी के मंत्री हैं। इसका सीधा मतलब यह निकल रहा है कि भ्रष्टाचार में केवल कांग्रेसी ही लिप्त हैं बाकी अन्य राजनीतिक पार्टियाँ मसलन भाजपा, सपा, बसपा, वामपंथी, अन्ना द्रमुक आदि बहुत ईमानदार हैं। टीम अन्ना ने इस बार जंतर मंतर स्थित अनशन स्थल पर जितने भी भ्रष्ट मंत्रियों की तस्वीरें लगाई हैं उनमें भी केवल कांग्रेसी हैं या फिर कांग्रेस समर्थक पार्टी के नेताओं की हीं तस्वीरें दिखाई दे रही हैं। अन्य राजनीतिक पार्टियाँ के भ्रष्ट मंत्रियों के एक भी तस्वीर नहीं है। क्या यह संभव है की भ्रष्टाचार में केवल केंद्र की कांग्रेस सरकार ही दोषी है अन्य राज्य सरकारें पाक साफ हैं। देखा जाए तो हर राजनीतिक पार्टी व राज्य सरकारें कहीं न कहीं भ्रष्टाचार के लिए दोषी हैं। लेकिन टीम अन्ना का केवल कांग्रेस व केंद्र सरकार को टारगेट बनाकर आंदोलन करना कहीं न कहीं भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई में उनकी ईमानदारी पर सवाल उठता है।
पिछले कुछ समय में ही यह आंदोलन टीम अन्ना बनाम भ्रष्टाचार नहीं बल्कि टीम अन्ना बनाम कांग्रेस हो गया है। यही बजाह है की भ्रष्टाचार के खिलाफ जन लोकपाल बिल को लेकर जिन कांग्रेसियों ने भी टीम अन्ना का साथ दिया था ख़ासकर युवाओं ने वो इस बार गायब हैं। यही वजह है कि इस बार टीम अन्ना का आंदोलन भीड़ की कमी से जूझ रहा है। इस बार अन्ना के समर्थन में गांवों से तो लोग आ रहे हैं, लेकिन यूथ गायब है। कुल मिलाकर भीड़ उम्मीद से बहुत कम है। लोगों का पुराना उत्साह भी इस बार नदारद है। टीम अन्ना को उम्मीद के मुताबिक समर्थन न मिलने का असर चंदे पर भी दिख रहा है। टीम अन्ना को दो दिन में महज तीन लाख का चंदा मिला है। पिछली बार इससे कई गुना ज्यादा चंदा इकट्ठा हो गया था। भीड़ क्यों नहीं आ रही, इस पर टीम के अंदर काफी माथापच्ची हो रही है। लेकिन यह समझ में नहीं आ रहा है कि पब्लिक का समर्थन कैसे बढ़ाया जाए। सरकार और सिस्टम पर कई तरह के अटैक के बीच अन्ना हजारे द्वारा सीधे किसी का नाम लेने से बचना, यह सब मतभेद का मेसेज दे रहा है।
उधर बाबा रामदेव का कहना है कि अगर कोई आंदोलन बड़े बदलाव की बात करता है तो उसे कम से कम सवा करोड़ लोगों का समर्थन हासिल होना चाहिए। रामदेव का दावा है कि 9 अगस्त से शुरू होने जा रहे उनके आंदोलन का हश्र ऐसा नहीं होगा। उन्होंने कहा कि उनके एक करोड़ से ज्यादा समर्पित कार्यकर्ता हैं। लेकिन क्या सिर्फ़ उनके समर्पित कार्यकर्ता देश की आवाज़ हैं। इसका फ़ैसला भी 9 अगस्त को हो जाएगा। टीम अन्ना के कुछ ज़िम्मेदार लोगों ने जिस तरह सांसदों के खिलाफ अपमानजनक बयान दिए थे उसने भी एक तरह से आंदोलन को नुकसान ही पहुँचाया है। लोक सभा अध्यक्ष मीरा कुमार ने टीम अन्ना के बयानों की आलोचना कर कहा था कि संसद तथा सांसदों की गरिमा के खिलाफ कुछ भी बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। इस बीच टीम अन्ना के टीम केजरीवाल बनने, आंदोलन के लिए हवाला के जरिए पैसा आने, भाजपा का समर्थन मिलने, टीम अन्ना में फूट पड़ने आदि जैसी खबरों ने भी जनता का विश्वास आंदोलन की ओर से कम किया है।
भारतीय प्रेस परिषद के अध्यक्ष जस्टिस मार्कंडेय काटजू का कहना कि करप्शन विरोधी मुहिम चलाने वाले अन्ना हजारे में साइंटिफिक आइडिया की कमी है जो कहीं न कहीं आंदोलन पर सवाल खड़े करता है। उनका कहना सही साबित हुआ कि 'भारत माता की जय' और 'इंकलाब जिंदाबाद' चिल्लाकर करप्शन के खिलाफ संघर्ष नहीं कर सकते। लोग 10-15 दिनों तक चिल्लाते रहेंगे और फिर अपने घर चले जाएँगे, और हुआ भी यही। यही वजह है कि अन्ना हजारे को पहले जितना समर्थन मिला था वो इस बार नही मिला। हालाँकि अभी भी समय गुजरा नही है भ्रष्टाचार अभी भी देश में है और आने वाले कई सालों तक इसी तरह देश को बर्बाद करता रहेगा। ज़रूरत सिर्फ़ टीम अन्ना को दोबारा मंथन करने की है।
देवी को पूजने वाले देश में औरतों की आबरू सुरक्षित नहीं
भारत भी अजीब देश है। कहते हैं न कि 'इट हैपन्स ओन्ली इन इंडिया'। यह जुमला भारत पर बुल्कुल सही बैठता है। एक तरफ तो हम देवी की पूजा करते हैं, लड़कियों को दुर्गा का अवतार बताते हैं और दूसरी तरफ उनकी कोख में ही हत्या कर देते हैं। एक तरह हम विदेशी संस्कृति को भला बुरा कहते हैं कि वहाँ लड़कियाँ कम कपड़ों में घूमती है और दूसरी तरफ मौका मिलने पर हम बीच बाज़ार में औरत के कपड़े फाड़ने में ज़रा भी शर्म महसूस नहीं करते।
दो दिन पहले गुवाहाटी में करीब 15 मनचलों द्वारा एक लड़की से सरेआम छेड़छाड़ करने, उसके बाल नोचने, सड़क पर घसीटने और कपड़े फाड़ने की जो घटना घटी उसने संस्कृति की दुहाई देने वाले इस देश का सिर पूरी दुनिया के सामने झुका दिया। यहाँ करीब 15 लड़कों ने एक लड़की से करीब आधे घंटे तक छेड़छाड़ की और उसके कपड़े फाड़ डाले। लड़की सड़क पर मदद की गुहार लगाती रही लेकिन उसकी मदद के लिए कोई आगे नहीं आया। लड़की मिन्नतें करते हुए कहती रही कि मुझे घर जाने दो, तुम्हारी भी बहनें हैं, लेकिन लड़कों ने उसे नहीं बख्शा। सोमवार को घटी इस शर्मनाक घटना में पुलिस ने 3 दिन बाद तब कार्रवाई की, जब इस घटना का विडियो यूट्यूब पर अपलोड कर दिया गया। पुलिस ने 4 लड़कों को गिरफ्तार कर लिया है और 12 लड़कों की पहचान कर ली है। इस पूरे मामले में सबसे ज़्यादा झटका देश को डीजीपी के बयान से लगा। पुलिस का बचाव करते हुए डीजीपी ने ऐसा बयान दिया है जिससे उनकी संवेदनशीलता पर सवाल खड़े हो गए हैं। उन्होंने कहा है कि 'पुलिस कोई एटीएम मशीन नहीं है कि मशीन में कार्ड डालते ही मौके पर पहुंच जाए।' उनके इस बयान ने पहले से ही सकते में पड़े देश को और हैरत में डाल दिया है।
हैरान करने वाली बात तो यह है कि महिलाएं सड़क ही नहीं बल्कि भगवान के दरबार में भी सुरक्षित नहीं रह गई हैं। बिहार के बेगुसराय जिले में मां दुर्गा की पूजा करने पर अड़ी दलित महिला को कुछ दबंगों ने जमकर पीटा। पहले तो दबंगों ने उसे मंदिर में घुसने से रोका और पूजा करने से मना किया, लेकिन जब महिला मंदिर में घुसने की कोशिश करने लगी तो सरेआम पिटाई शुरू कर दी। यही नही हमारे देश में तो महिलाएँ पुलिस थाने तक में भी सुरक्षित नहीं रह गई हैं। दो दिन पहले ही लखनऊ के माल थाने में बुधवार को दरोगा ने एक महिला से रेप की कोशिश की। थाने में बैठे रक्षक ही जब भक्षक बन जाए तो जनता किसके पास अपनी आबरू बचाने जाए। एक अन्य मामले में नज़र डालिए, रतनपुर के पास खूंटाघाट में चार हथियारबंद युवकों ने यहां घूमने के लिए आए एक प्रेमी जोड़े को पकड़ लिया और फिर युवक के सामने ही प्रेमिका के सारे कपड़े उतरवा दिए। हैवानियत की हदें पार करते हुए इन बदमाशों ने दोनों की न्यूड परेड भी कराई और इसका एमएमएस बना लिया। अब यह एमएमएस दर्जनों लोगों तक पहुंच चुका है।
महिलाओं के खिलाफ लगातार हो रहे अपराधों ने देश को एक बार फिर सोचने को मजबूर कर दिया है कि आख़िर यह सब कब तक चलेगा। आज पूरे समाज के सामने यह सवाल उठकर आ रहा है कि क्या देवी की पूजा करने वाले इस देश में लड़कियाँ व महिलाएँ कभी सुरक्षित रह पाएँगी ? अगर हम अन्य राज्यों को छोड़ दें और केवल मध्यप्रदेश पर ही नज़र दौड़ाएँ तो पाएँगे कि मध्य प्रदेश में हर दिन औसतन 10 महिलाएं बलात्कार की शिकार बनती हैं। पिछले तीन साल के दौरान राज्य में कुल 9926 बलात्कार की घटनाएं दर्ज की गईं। 2009 में 3,071, 2010 में 3,220 और 2011 में बलात्कार के 3381 मामले सामने आए। प्रदेश महिलाओं के रहने के लिए किस हद तक खतरनाक जगह बन चुका है उसका अंदाज़ा इन आंकड़ों से लगाया जा सकता है। बहरहाल अब समय आ गया है कि महिलाओं के खिलाफ बढ़ रहे अपराधों को गंभीरता से लेते हुए कड़ी करवाही का प्रावधान किया जाए। वरना वो दिन दूर नहीं जब लोगों का धैर्य ज़वाब दे जाएगा और क़ानून से लोगों का भरोसा उठ जाएगा। अगर ऐसा हुआ तो यह लोकतांत्रिक देश कब अराजकता की चपेट में आ जाएगा हमें पता ही नहीं चलेगा।
अभी से करनी होगी पानी की चिंता सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरॉंमेंट की महानिदेशक सुनीता नारायण ने हाल ही में अपने भोपाल प्रवास के दौरान पानी की किल्लत से लेकर नर्मदा से पानी लाने की योजना पर सवाल खड़े कर दिए। उनका कहना है कि दूर से पानी लाने पर लीकेज के कारण काफ़ी मात्रा में पानी बर्बाद हो जाता है। इसके चलते शहर को माँग की ज़रूरत के मुताबिक पानी नही मिल पाता है। उनका यह सवाल उठाना इस समय और भी ज़्यादा प्रासंगिक हो जाता तब जबकि नर्मदा अब भोपाल के दरवाजे पर दस्तक दे चुकी है। हालाँकि यह तो समय ही बताएगा की भोपाल में नर्मदा का पानी लाना कितना सही निर्णय था।
दरअसल सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरॉंमेंट ने देश के 71 शहरों की जल व्यवस्था की जो रिपोर्ट जारी की है उसमें कई चौकानें वाले तथ्य प्रस्तुत किए हैं। रिपोर्ट में साफ कहा गया है कि पानी को लेकर अभी भी हम कोई ठोस नीति नहीं बनाएँगे तथा शहर की सीवेज लाइन दुरुस्त नहीं करेंगे तो आने वाले समय में स्थिति विकट हो जाएगी। रिपोर्ट में कहा गया है कि पानी का सही तरीके से वितरण नहीं हो रहा है। शहरों की पानी की किल्लत दूर करने के लिए अन्य स्थानों से पानी लाना घाटे का सौदा साबित हो रहा है। लंबी पाइप लाइन से कई जगह लीकेज की समस्या होती है जिसके कारण पानी बर्बाद होता है। इस योजना से सरकार को आर्थिक रूप से नुकसान भी उठना पड़ रहा है क्योंकि इसमें उर्जा की खपत भी ज़्यादा हो रही है। देखा जाए तो यह सही भी है की अपनी वॉटर बॉडी को सीवेज से प्रदूषित कर दूर नदियों से पानी की आपूर्ति करना किसी भी लिहाज से सही नहीं है। दूर से पानी लाने की समस्या केवल भोपाल या इंदौर में नहीं बल्कि हैदराबाद, नागपुर, बैंगलूरु आदि जैसे शहरों में भी पैर पसार चुकी है। इस दौरान मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान का यह कहना कि प्रदेश में पानी का निजीकरण नहीं होने दिया जाएगा काफ़ी हद तक राहत देने वाला है। इस रिपोर्ट ने कई सवाल खड़े किए हैं जिन पर केवल सरकार को ही नहीं बल्कि आम जनता को भी सोचना होगा। जानकार इस बात को बार-बार दोहराते हैं की आने वाले समय में जो भी लड़ाई होगी वो तेल के लिए नहीं बल्कि पानी के लिए होगी। वो वक्त दूर नहीं जब लोग पानी के लिए हिंसक हो जाएँगे। लोग जाति, धर्म, भाषा आदि को छोड़कर पानी के लिए आपस में लड़ा करेंगे। महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, राजस्थान के बाद अब मध्य प्रदेश में भी आए दिन पानी को लेकर हिंसा होने की ख़बरे मीडिया में आने लगी है। पानी को लेकर हो रही इन चिंताओं के बीच अब ज़रूरत आ गई है कि आम जनता भी इस मामले में पहल कर अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा करे। पानी का कितना और कैसा उपयोग किया जाना चाहिए इस बारे में अभी से सोचना शुरू करना होगा वरना वो दिन दूर नहीं जब पानी को लेकर हर जगह त्राहि-त्राहि मच जाएगी और हमारे हाथ में करने के लिए कुछ नहीं होगा।
मोदी का कद बढ़ने से भाजपा मे घमासान
गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के धुर विरोधी माने जाने वाले संजय जोशी की पार्टी से विदाई ने भाजपा के सामने कई अहम सवाल खड़े कर दिए हैं। भाजपा में मोदी का कद बढ़ने से पार्टी के भीतर तो घमासान मचा ही हुआ है एनडीए के सहयोगी दल भी इससे कम खफा नहीं हैं। हालत कुछ इस तरह बन गये हैं जो साफ बता रहे हैं की भाजपा मोदी के आगे नतमस्तक हो गई है। खुद आरआरएस में मोदी को लेकर दो गुट बन गये है। एक गुट जहाँ मोदी का पक्ष ले रहा है वहीं दूसरा गुट उन्हें कार्यशैली सुधारने की सलाह दे रहा है।
हालांकि अभी कोई इसके खिलाफ खुलकर नहीं बोल रहा है। लेकिन यह माना जा रहा है की आने वाले दिनों में मोदी का कद एनडीए में दरार पैदा करने के लिए काफी हो सकता है। एनडीए का सबसे बड़ा सहयोगी जदयू मोदी के कद के बढ़ने से सबसे ज्यादा खफा है। पार्टी के कई सीनियर कार्यकर्ताओं का मानना है कि भाजपा ने यदि वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव के लिए मोदी का नाम प्रधानमंत्री के रूप में प्रस्तावित किया तो उनके लिए भाजपा के साथ काम करना मुश्किल हो जाएगा।
भाजपा में मोदी को लेकर मचे घमासान की वजह साफ है। इस समय मोदी का जादुई वयक्तित्व पूरे देश में लोगों के सिर चढ़कर बोल रहा है। उन्हें देश के अगले प्रधानमंत्री पर का दावेदार माना जा रहा है। देश में तमाम लोग ऐसे हैं जो मोदी को प्रधानमंत्री के रूप में देखना चाहते हैं। ट्विटर पर ही लोगों की राय देख कर लगता है कि किस हद तक लोग मोदी को पीएम बनाने के लिए दीवाने हैं। खास सिर्फ भारत ही नहीं बल्कि विदेशों से अप्रवासी भारतीयों ने भी ऐसी ही प्रतिक्रियाएं हैं। दुनिया के बाजारों में मजबूत पैठ बनाने वाले विश्व के सबसे प्रसिद्ध ब्रोकरेज मार्केट सीएलएसए ने गुजरात के विकास को भारत में सर्वश्रेष्ठ करार दिया है। सीएलएसए के मैनेजिंग डायरेक्टर व प्रसिद्ध आर्थिक समीक्षक क्रिस्टोफर वुड ने कहा है कि नरेंद्र मोदी गुजरात को मुख्यमंत्री से ज्यादा एक सीईओ के रूप में चला रहे हैं। यही कारण है कि गुजरात विकास के पथ पर तेजी से आगे बढ़ रहा है।
इसमें कोई शक नहीं है कि आज हर जगह गुजरात की चर्चा है। राज्य की क्षमता दिन पर दिन बढ़ती जा रही है। सबसे बड़ी खासियत यह है कि गुजरात में निवेश को सरकारी रजामंदी बड़े ही त्वरित गति से मिल जाती है। यहां तक राज्य के अधिकारी भी निजी कंपनियों के लिए हमेशा तत्पर रहते हैं।
गुजरात को देख कर लगता है कि भविष्य में भारत में भारी निवेश होने वाला है। यहां पर न तो भ्रष्टाचार है और न अपराध, लिहाजा कोई भी मल्टीनेशनल कंपनी आसानी से निवेश करने के लिए आगे आ सकती है। वहीं देश के अन्य राज्यों की परिस्थितियां अलग हैं। केंद्र में यूपीए सरकार नाकामी का दाग झेल रही है। ऐसे में मोदी के राष्ट्रीय नेतृत्व के लिए एक अच्छे विकल्प के रूप में आगे आने की संभावनाएं अधिक हैं।
ऐसा पहली बार नहीं है कि मोदी को अंतर्राष्ट्रीय मंच पर सराहना मिली हो। इससे पहले अमेरिकी कांग्रेस की थिंक टैंक ने नरेंद्र मोदी को 'किंग ऑफ गवर्नेन्स' करार दिया था। वहीं टाइम पत्रिका ने कवर पेज पर प्रकाशित किया। ब्रूकिंग्स के विलियम एंथोलिस ने भी मोदी की जमकर सराहना की। और तो और फाइनेंशियल टाइम्स ने हाल ही में लिखा था कि देश के युवाओं के लिए मोदी प्रेरणा के स्रोत बन चुके हैं।
देखा जाए तो मोदी की धमक अब दिल्ली में भी दिखने लगी है। हाल ही में भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गड़करी ने राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल को एक ज्ञापन सौंप उनसे राजस्थान भूमि घोटाले से जुड़ी गुजरात की राज्यपाल कमला बेनीवाल को वापस बुलाने की माँग की। इस घटना से साफ झलकता है कि मोदी की पैठ पार्टी में किस हद तक है. दरअसल मोदी ने ही कार्यकारिणी की बैठक में गडकरी से गुजारिश की थी कि वे दिल्ली पहुंचे तो राज्यपाल को वापस बुलाने को लेकर बाबत राष्ट्रपति को ज्ञापन सौंपे।
हालाँकि इन सबके बीच मोदी के विरोधी संजय जोशी की पार्टी से विदाई ने एक बार फिर यह माहौल बना दिया है कि उनके लिए अब रास्ता साफ होता जा रहा है। लेकिन संजय जोशी को न सिर्फ पार्टी अध्यक्ष नितिन गडकरी का, बल्कि आरएसएस का भी नजदीकी माना जाता रहा है। संजय जोशी विदाई प्रकरण के कई नेगेटिव पहलू भी सामने आ रहे हैं, जो भविष्य में मोदी के लिए बेहद नुकसानदायक साबित हो सकते हैं। पार्टी से जुड़े सूत्र बताते हैं कि संजय जोशी की विदाई से मोदी की इमेज पर भी असर पड़ने लगा है। पार्टी के ज्यादातर नेताओं का मानना है कि अब मोदी की जिद से उनके अहंकार की बू आने लगी है और यह संदेश भी गया है कि मोदी को इस कदर हठ करने की जरूरत नहीं थी।
मोदी संजय जोशी को भले ही कम आंकें लेकिन पार्टी अध्यक्ष संजय जोशी की क्षमताओं को जरूर जानते हैं। यह माना जाता है कि संजय जोशी ने गुजरात में भी जमकर काम किया है और वह वहां के 10 हजार कार्यकर्ताओं में ज्यादातर को उनके नाम से जानते हैं। संजय जोशी के मामले में भले ही नितिन गडकरी ने चुप्पी साध रखी हो लेकिन माना जा रहा है कि वे भी मोदी के दबाव से खुश नहीं है। हालांकि गडकरी, मोदी के सामने नतमस्तक हो गए हैं लेकिन माना जा रहा है कि खुद गडकरी भी चाहते हैं कि यह संदेश जाए कि मोदी जिद पर अड़े हुए हैं। इससे मोदी की इमेज बिगड़ेगी तो आने वाले दिनों में मोदी ही कमजोर होंगे। जोशी की विदाई बीजेपी में कलह को तो उजागर करती ही है, पार्टी मामलों में आरएसएस के रोल को भी साफ करती है। संजय जोशी की विदाई से पार्टी कार्यकर्ताओं और नेताओं में यह संदेश गया है कि अगर इस वक्त पार्टी के नेताओं को झुकाने की ताकत अगर किसी नेता में है, तो वह मोदी ही हैं। पार्टी में ऐसा पहले कभी नहीं हुआ कि एक नेता की जिद की वजह से पार्टी को इस कदर अपने पांव पीछे खींचने पड़े हों
कॉमन एंट्रेंस टेस्ट के फ़ैसले ने खड़े किए कई सवाल
देश के सभी आईआईटी, आईआईआईटी और एनआईटी के लिए कॉमन एंट्रेंस टेस्ट कराने का केंद्रीय मानव संसाधन मंत्रालय का प्रस्ताव कपिल सिब्बल के लिए गले की हड्डी बन गया है। कॉमन एंट्रेंस टेस्ट को लेकर इस समय देश भर में बहस सी छिड़ गई है और इसे लेकर भारी असमंजस की स्थिति बन गई है।
एक तरफ जहाँ आईआईटी कानपुर के बाद आईआईटी दिल्ली भी कॉमन टेस्ट की खिलाफत में उतर आया है वहीं दूसरी तरफ आईआईटी खड़गपुर, गुवाहाटी, मद्रास और रुड़की ने कॉमन टेस्ट के साथ रहने का फैसला किया है। आईआईटी कानपुर ने तो अगले साल से खुद ही अपना टेस्ट कंडक्ट कराने का फ़ैसला तक कर लिया है। आईआईटी दिल्ली के स्टूडेंट्स भी कॉमन एंट्रेंस टेस्ट के सरकार के फैसले के साथ खडे़ दिखाई नहीं देते। कई स्टूडेंट्स जहां इस फैसले को सरासर गलत बता रहे हैं वहीं कइयों का मानना है कि इससे ग्रामीण इलाके से आने वाले स्टूडेंट्स पर असर पडे़गा और आईआईटी में पढ़ना उनके लिए सपना बनकर रह जाएगा। आईआईटी में पढ़ रहे छात्रों का एक बड़ा वर्ग कॉमन एंट्रेंस टेस्ट के निर्णय को ग़लत बताते हुए तर्क दे रहा है की इससे आईआईटी की ब्रांड वैल्यू में गिरावट आएगी। जबकि कुछ का मानना है की इससे स्टूडेंट्स का तनाव कम होगा तथा उन्हें आर्थिक व मानसिक रूप से फ़ायदा होगा।
कॉमन एंट्रेंस टेस्ट को लेकर आईआईटी कम्युनिटी के बढ़ते विरोध को देखते हुए अगले साल से इसके शुरू होने की संभावना पर सवालिया निशान लगना शुरू हो गया है। आईआईटी के पुराने स्टूडेंट्स के एसोसिएशन के सक्रिय होने से मामला और गंभीर होता जा रहा है। पुराने स्टूडेंट्स का एसोसिएशन इस मामले को लेकर काफी गंभीर है और वह इसे यूं ही छोड़ने के मूड में नज़र नहीं आ रहा है। एसोसिएशन से जुड़े स्टूडेंट्स हरसंभव तरीके से अपना विरोध दर्ज करा रहे हैं। कुछ का मानना है कि ऐसे फैसलों का सीधा असर ग्रामीण इलाके से आने वाले बच्चों पर पड़ेगा और उनके लिए आईआईटी एक सपना बनकर रह जाएगा। उनके बारे में कोई नहीं सोच रहा है। एक ही दिन में सभी इंजीनियरिंग कॉलेजों का एंट्रेंस कराने से कई समस्याएँ आएगी। अगर कोई स्टूडेंट किसी वजह से एग्जाम नहीं दे पाया तो उसका पूरा साल बर्बाद हो जाएगा। इससे उसे भारी मानसिक तनाव के दौर से गुजरना पड़ सकता है।
बहरहाल इस मुद्दे ने कई सवाल खड़े कर दिए हैं। एक बड़ा सवाल यह है की क्या कॉमन एंट्रेंस टेस्ट से इंजीनियरिंग शिक्षा की गुणवत्ता बढ़ जाएगी ? और क्या वाकई कॉमन एंट्रेंस टेस्ट से आईआईटी की ब्रांड वैल्यू घट जाएगी ? कॉमन एंट्रेंस टेस्ट कराने के पीछे सरकार की मंशा छात्रों का तनाव कम करना है या इंजीनियरिंग शिक्षा की गुणवत्ता बढ़ाना है ? इस बारे में अभी तक स्थिति साफ नहीं की गई है। दरअसल यह कुछ ऐसे सवाल हैं जिन पर अभी विस्तार से चर्चा होना बाकी है। जानकारों की माने तो वर्तमान में आईआईटी के लिए होने वाली जेईई, एनआईटी के लिए होने वाली एआईईईई तथा राज्य स्तर पर होने वाली प्रवेश परीक्षाओं का सिलेबस अलग-अलग होता है। देश में सीबीएसई के अलावा राज्यों के शिक्षा मंडलों द्वारा जो सिलेबस पढ़ाया जा रहा है उसमें भारी अंतर है। राज्यों के शिक्षा मंडलों द्वारा निर्धारित सिलेबस किसी भी कोण से ऐसा नहीं है जिसे पढ़कर छात्र जेईई या एआईईईई जैसे एक्जाम पास कर लें। गैर सीबीएसई स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चे हमेशा ही इस अंतर का दंश झेलते रहेंगे। एक्सपर्ट का मानना है की पूरे देश के स्कूलों में पढ़ाए जाने वाले सिलेबस को एक जैसा बनाए बिना कॉमन एंट्रेंस टेस्ट कराना फिलहाल फ़ायदे का सौदा साबित नहीं होगा। खैर इस मामले में आगे क्या फ़ैसला होगा यह तो भविष्य ही बताएगा लेकिन इस मुद्दे ने एक नई बहस छेड़ दी है की हमें बदलाव कितना पसंद है.
केवल एक दिन पर्यावरण की चिंता से कुछ नही होगा
5 जून को विश्व पर्यावरण दिवस पर एक बार फिर भारत सहित दुनिया भर में पर्यावरण बचाने के लिए पर्यावरणविद और पर्यावरणप्रेमी बैचेन हो गये हैं. शहरों से लेकर गामीण क्षेत्रों में पर्यावरण को बचाने के लिए जागरूकता कार्यक्रमों का आयोजन किया जा रहा है. लेकिन सवाल यह है कि कल फिर क्या ? एक दिन बाद कल फिर अपने रोजाना के काम में व्यस्त वही पुरानी दुनिया, विकास के नाम पर कटते पेड़, धुआँ उड़ाते वाहन. जल व वायु को प्रदूषित करते उद्योग. झीलों व नदियों में मिलता औद्योगिक इकाइयों व शहरों से निकलता कचरा.
एक दिन बाद ही पर्यावरण को बचाने के सारे वादे, नारे फीके पड़ते नज़र आएँगे. सिर्फ़ कुछ जागरूक पर्यावरणविद और पर्यावरणप्रेमी अपनी तरफ से थोड़ी बहुत कोशिश साल भर करते रहेंगे. लेकिन इन सब से होगा क्या ? क्या एक दिन की जागरूकता से खराब होता पर्यावरण बच जाएगा. पर्यावरण बचाने की मुहिम छेड़ कर नोबल पुरस्कार जीतने के बाद अमेरिकी राष्ट्रपति पद के दावेदार रहे अल गोर के प्रयास कितने कारगर रहे इसका आंकलन करें तो पता चलेगा की उनके सारे प्रयास विफल रहे और कुछ भी बदलाव नही आया. पेड़ों का काटा जाना जारी है. औद्योगिक इकाइयों से निकलने वाला धुआँ वायु को और दूषित जल नदियों को प्रदूषित कर रहा है.
दूर जाने की ज़रूरत नही है. मध्य प्रदेश में ही देखें तो प्रदेश की 250 औद्योगिक इकाइयाँ ऐसी हैं जो आबो हवा को दूषित करने में कोई कसर नही छोड़ रही हैं. इनमें सबसे ज़्यादा भोपाल क्षेत्र के अंतर्गत आने वाली हैं. केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने तो पिछले साल इंदौर में प्रदूषण की मात्रा मानक से अधिक होने पर एक साल तक के लिए किसी भी नई औद्योगिक इकाई के शुरू होने पर रोक लगा दी थी. इंदौर के बिगड़ते प्रदूषण को पटरी पर लाने के लिए मध्य प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड को 200 करोड़ तक का प्रॉजेक्ट तैयार करना पड़ा था. पिछले कुछ सालों में पर्यावरण दिवस पर पौधारोपण की एक परंपरा सी बन गई है. इस दिन बड़ी संख्या में शहरों व आसपास के क्षेत्रों में पौधारोपण किया जाता है. लाखों रुपयों के पौधे रोपे जाते हैं लेकिन इसके बाद उन पेड़ों का क्या होता है इसकी कोई सुध नही लेता. लाखों रुपय के हज़ारों पौधे पानी व रखरखाव के अभाव में सूख कर बर्बाद हो जाते हैं. लेकिन अब समय आ गया है की पर्यावरण को बचाकर पृथ्वी को सुरक्षित रखा जाए. जल, जंगल, हवा, पानी, भूमि व मिट्टी को दूषित होने से बचाया जाए. यह काम किसी एक देश या एक वर्ग के बस की बात नही है. इसके लिए सभी को मिलकर प्रयास करने पड़ेंगे. क्योंकि हमें रहना तो इसी धरती पर है. केवल एक दिन पर्यावरण की चिंता से कुछ नही होगा.
एआईसीटीई के इस छापे ने खड़े किए कई सवाल
हाल ही मे सीबीआई द्वारा अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद (एआईसीटीई) के सेंट्रल जोन के क्षेत्रीय निदेशक के साथ ही निजी कॉलेजों के निरीक्षण के लिए गठित टीम पर की गयी छापेमार कार्यवाही ने कई सवाल खड़े कर दिए हैं. कार्यवाही के दौरान करीब 60 निजी इंजीनियरिंग कॉलेजों की फाइलें जब्त की गई. माना जा रहा है की इन कॉलेजों का निरीक्षण दोबारा किया जा सकता है. इन हालातों में यह सवाल उतना लाजिमी है की जिन कॉलेजों की फाइलें जब्त नही की गयी हैं उनकी मान्यता क्या रिश्वत देकर नही ली गयी होगी.
रिश्वत लेकर निजी इंजीनियरिंग कॉलेजों को मान्यता देने वालों के घर से करोड़ों रुपये मिल रहे हैं और बैंक लॉकर सोना चाँदी उगल रहे हैं. सीबीआई ने यह छापे तो इसी साल मारे हैं लेकिन रिश्वत लेकर मान्यता देने का यह खेल कितने सालों से चल रहा था इसका जवाब किसके पास है. इस पूरे मामले ने यह बात तो साफ कर दी की शिक्षा का बाज़ारीकरण किस हद तक हो चुका है. छात्रों से फीस के रूप मे मोटी रकम लेकर उन्हें न तो बेहतर सुविधा उपलब्ध कराई जा रही है और ना ही उच्च स्तर की शिक्षा ही दी जा रही है. हाल ही मे हॉस्टल मेस की मामूली रकम नही चुका पाने के कारण भोपाल के ही एक निजी इंजीनियरिंग कॉलेज को इतना प्रताड़ित किया गया की छात्र को ख़ुदकुशी कर परेशानियों से पीछा छुड़ाना पड़ा. नतीजा यह हुआ की छात्र के क्लासमेट्स ने कॉलेज मे तोड़फोड़ कर दी तथा कॉलेज की बस मे आग लगा दी. कॉलेज प्रबंधन के शोषण से परेशान छात्रों का गुस्सा कुछ इसी तरह फूट कर बाहर आ रहा है. यह बात दावे से नही कही जा सकती की आगे भी इस तरह की कोई घटना नहीं होगी.
पिछले कुछ सालों से प्रदेश के अधिकांश निजी इंजीनियरिंग कॉलेजों की खाली जा रही सीटों ने एक बात तो साबित कर दी है की छात्रों का रुझान अब प्रदेश के कॉलेजों से इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने मे नही रहा है. वजह साफ है की लाखों रूपय की फीस वसूलने के बावजूद इंजीनियरिंग कॉलेज छात्रों को केम्पस मे चयन की गारंटी नही दे पा रहे है. इस समय मध्य प्रदेश मे करीब 215 इंजीनियरिंग कॉलेज है. जिनमे अकेले भोपाल मे लगभग 87 इंजीनियरिंग कॉलेज हैं. कुल इंजीनियरिंग की करीब 85000 सीटों का इंटेक है. पिछले साल करीब 30 फीसदी सीटें खाली गयी थी. इससे निजी इंजीनियरिंग कॉलेजों को काफ़ी नुकसान उठाना पड़ा था. सीट खाली जाने का तोड़ सरकार ने निकाल लिया. महज कक्षा 12 वीं मे 40 से 45 प्रतिशत अंकों पर इंजीनियरिंग कॉलेजों मे प्रवेश की पात्रता दी जा रही है. हो सकता है की इससे सीटें भर जाए इससे अंदाज़ा लगाया जा सकता है की आने वाले समय मे क्या स्थिति होगी. जानकारों का कहना है कि इससे स्टूडेंट्स को डिग्री तो मिल जाएगी लेकिन नौकरी नही मिलेगी. यह स्थिति कहीं ज़्यादा भयावाह है.
दरअसल केम्पस चयन के लिए आने वाली कंपनियाँ केवल उन्हीं छात्रों का चयन कर रही हैं जो कक्षा 10 वीं से लेकर स्नातक तक प्रथम रहे हैं. प्रदेश के इंजीनियरिंग कॉलेजों मे हुए केम्पस चयन पर नज़र डालें तो यह बात सॉफ हो जाती है की स्थिति न केवल निराशाजनक है बल्कि विकट भी है. हालत इतनी खराब है की तकनीकी शिक्षा विभाग ने अपनी सत्र 2011-2012 की वार्षिक रिपोर्ट में केम्पस मे चयनित छात्रों के आँकड़े देना ही मुनासिब नही समझा. जबकि इससे पहले सत्र 2010-2012 की रिपोर्ट मे सरकारी कॉलेजों में केपस चयन के जो आँकड़े दिए थे वो बहुत ज़्यादा उम्मीद जगाने वाले नही थे. सत्र 2010-2012 की रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2011 में जबलपुर इंजीनियरिंग कॉलेज में 20, रीवा इंजीनियरिंग कॉलेज में मात्र 2, इंदिरा गाँधी इंजीनियरिंग कॉलेज में 36 स्टूडेंट्स केम्पस मे चयनित हुए. यूआईटी आरजीपीवी के करीब 720 स्टूडेंट्स का चयन वर्ष 2011 मे ही हुआ. निजी कॉलेजों ने अपनी तरफ से कुछ कंपनियों को केम्पस के लिए आमंत्रित किया था लेकिन इनमे एसी बात निकलकर नही आई जो राहत भरी हो. ख़ासकर तब जब प्रदेश की एकमात्र राजीव गाँधी टेक्निकल यूनिवर्सिटी से सम्बध इंजीनियरिंग कॉलेजों मे करीब 2 लाख 17 हज़ार से अधिक स्टूडेंट अध्यनरत हो.
आलम यह है की स्टूडेंट्स अब प्रदेश के इंजीनियरिंग कॉलेजों से पढ़ाई नही करना चाहते है. केवल इंजीनियरिंग ही नही बल्कि एमबीए, एमसीए और फार्मेसी कोर्स का भी यही हाल है. व्यावसायिक परीक्षा मंडल से मिली जानकारी के अनुसार एमबीए की 18 हज़ार 510 सीटों के लिए वर्ष 2012 मे आयोजित प्रवेश परीक्षा मे शामिल होने करीब 9 हज़ार 200 फार्म ही आए थे. जिनमे से भी मात्र 7 हज़ार 500 के आसपास ही उत्तीर्ण रहे. यही स्थिति एमसीए और फार्मेसी की भी रही. हालाँकि इंजीनियरिंग कॉलेजों मे संचालित बीई कोर्स की 85 हज़ार सीटों के लिए 1 लाख 35 हज़ार से ज़्यादा फॉर्म आए हैं लेकिन यह दावे के साथ नही कहा जा सकता की इतनी सीटें भर ही जाएँगी.
जानकारों का कहना है की इंजीनियरिंग कॉलेजों व इंजीनियरिंग करने वाले स्टूडेंट्स की संख्या तो बढ़ गयी लेकिन क्वालिटी काफ़ी हद तक गिर गयी है. इस का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि प्रदेश मे 215 के आसपास इंजीनियरिंग कॉलेज हैं लेकिन देश के टॉप 100 मे भी इनमे से एक भी शामिल नही है. भोपाल स्थित एनआईटीटीटीआर के निदेशक डॉ. विजय अग्रवाल इसकी वजह यूनिवर्सिटी और इंडस्ट्रीज़ के बीच सामन्जस्य नही होना है. इंजीनियरिंग कॉलेजों मे चल रहे कोर्स इंडस्ट्रीज़ के हिसाब के नही है. उपर से कॉलेजों में अच्छी क्वालिटी के टीचर्स की भी काफ़ी कमी है. ज़्यादातर इंजीनियरिंग कॉलेजों मे जो टीचर्स पढ़ा रहे हैं वो उसी कॉलेज से निकले होते है जो कम वेतन पर पढ़ाने को राज़ी हो जाते है. चिंता की बात यह है की बीई, एमबीए व एमसीए डिग्रीधारी भी अब क्लर्क और चपरासी की पोस्ट के लिए आवेदन कर रहे है. इसने गौर करने वाली बात यह है की इसके लिए भी अपनी काबिलियत अबिट नही कर पा रहे हैं. सवाल उठना लाजिमी है कि क्या कॉलेज इन छात्रों को उस तरह का नॉलेज, स्किल और आत्मविश्वास नही दे पा रहे हैं जो उन्हें आयेज बढ़ने मे सहायक हो.
बहरहाल इस स्थिति से निपटने के लिए सरकार और राजीव गाँधी टेक्निकल यूनिवर्सिटी ने कुछ इंडस्ट्रीज़ के साथ मिलकर क्वालिटी एजुकेशन पर काम करना शुरू किया है. इसके लिए इंडस्ट्रीज़ के साथ करार कर सिलेबस को इंडस्ट्रीज़ की ज़रूरत के अनुसार डिजाइन करने की कवायद शुरू कि गई है. देखना यह है की इसके परिणाम कब तक सामने आते हैं.
आख़िर कैसे काबू मे आए भ्रष्टाचार?
लोकायुक्त पुलिस द्वारा हाल ही मे प्रदेश के स्वास्थ्य विभाग संचालक डॉ. एएन मित्तल व बाबू जीपी किरार के घरों पर छापा मार करीब 100 करोड़ रुपये से ज़्यादा की संपत्ति बरामद की. प्रदेश में एक साल के भीतर सरकारी कर्मचारियों के पास से 800 करोड़ रुपये से ज़्यादा की काली कमाई उजागर हो चुकी है. इसी साल अब तक 210 करोड़ रुपये से ज़्यादा की आय से अधिक संपत्ति सामने आ चुकी है.
लगातार उजागार हो रही काली कमाई ने एक बार फिर पूरे प्रशासनिक तंत्र को कटघड़े मे खड़ा कर दिया है. लोकायुक्त पुलिस के छापे के दौरान स्वास्थ्य विभाग संचालक डॉ. एएन मित्तल की पत्नी का यह कहना की हर महीने मंत्री जी को 1 करोड़ देते हैं उनके यहाँ क्यों छापा नही मारते उस सच्चाई को बयाँ करता है जिसे कहने मे अमूमन हर कोई हिचकिचाता है. इन मोटी मछलियों पर कौन हाथ डालेगा पता नही. लेकिन देखा जाए तो अब समय आ गया है कि प्रदेश सहित देश मे एक मजबूत लोकपाल बिल लाया जाए जो इन काली कमाई करने वालों की लगाम कस सके.
इन परिस्थितियों मे अमेरिका के ख्यात लेखक मार्क ट्वेन का कथन कि 'वाकई हमारे पास एसी सरकारें हैं जो पेसों से खरीदी जा सकती है' वर्तमान समय मे भारत मे पूरी तरह प्रासंगिक हो गया है. सरकारी महकमों मे नीचे से लेकर उपर तक जमे लोग जनता की खून पसीने की कमाई को हजम करने मे नही हिचक रहे हैं. ज़रा मित्तल पर एक नज़र डालें. मित्तल ने अंबिकापुर में अस्सिटेंट सर्जन के रूप में नौकरी शुरू की थी। तीन साल पहले स्वास्थ्य संचालक बने थे। राजनीतिक व प्रशासनिक रसूख के चलते उन्हें सुपरसीड कर संचालक पद पर पदोन्नत किया गया था। इतना ही नहीं न्यायालय के आदेश पर उन्हें पदावनत किया गया तो एक बार फिर उन्हें डीपीसी कर पदोन्नति दी गई। उनके खिलाफ कई जांचें लंबित हैं। डॉ. मित्तल को पदोन्नत किसने कराया, इसका खुलासा अभी नहीं हुआ है। लेकिन यहाँ सवाल यह उठता है की आख़िर जब न्यायालय ने उनकी नियुक्ति को ग़लत माना था तो सरकार ने उन्हे वापस डीपीसी कर पदोन्नति क्यों दी. बात साफ है की कहीं न कहीं सरकार की मंशा भी ठीक नही थी. मित्तल के पास जितनी संपत्ति मिली है या मिल रही है उससे प्रदेश के प्रत्येक जिले में 50 बिस्तरों के दो अस्पताल बनाए जा सकते हैं।
इतिहास पर हम अगर नज़र डालें तो पाएँगे की देश का सबसे पहला घोटाला 1948 मे जीप घोटाले के रूप मे सामने आया था. इस घोटाले के तार लंदन मे भारतीय कमिश्नर वीके कृष्ण मेनन से जुड़े हुए थे. लेकिन देश के इस पहले घोटाले के अब तक जितने भी घोटाले सामने आए हैं उनके आगे यह घोटाला निर्दोष सा लगता है. 2 जी स्पेक्ट्रम, कॉमनवेल्थ, सत्यम, मधू कोड़ा, आदर्श, हर्षद मेहता, स्टांप आदि जेसे घोटालों से देश को अरबों व खरबों रुपये का जो चूना लगा है उसने देश को विकास मे कई साल पीछे छोड़ दिया है.
अब सवाल यह है की आख़िर भ्रष्टाचार को काबू मे कैसे किया जाए. जानकारों की माने तो भ्रष्टाचार के विरुद्ध जनता की एकता को मजबूत करना जरूरी है। एक ओर लोगों को अपने दैनिक जीवन में भ्रष्टाचारी तंत्र से राहत चाहिए तो दूसरी ओर राज्य व राष्ट्रीय स्तर के बड़े घोटालों पर भी रोक लगनी चाहिए ताकि विकास कार्यों के लिए पर्याप्त धन उपलब्ध हो सके। लोग इस जरूरत को समझते हैं। यही वजह है कि भ्रष्टाचार के विरोध में वे बड़े उत्साह से आगे आते हैं। पर हाल के समय में उनके उत्साह के सार्थक परिणाम क्यों नहीं मिल रहे हैं , इस बारे में लोगों को गंभीरता से सोचना पड़ेगा। कभी तो भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन महज एक कानून की मांग पर अटक जाता है , और कभी अपना मूल उद्देश्य छोड़कर वह संसद से अनावश्यक टकराव करने लगता है। भ्रष्टाचार का मूल मुद्दा पीछे पड़ जाता है , नए विवाद खड़े हो जाते हैं।
यह सच है कि राजनीति व अपराध के रिश्ते खतरनाक हद तक बढ़ चुके हैं और इसका विरोध होना चाहिए. लेकिन क्या कभी किसी ने सांसदों के आपराधिक रेकार्ड का मामला सही ढंग से उठाया ? क्या किसी पर महज अपराध का मामला दर्ज होना उसकी अनैतिकता का प्रमाण माना जा सकता है ? देश के सर्वाधिक नैतिक ख्याति वाले सामाजिक कार्यकर्ताओं पर भी कितने ही अपराधों के मुकदमे दर्ज हो चुके हैं। यह आंदोलनों में उनकी अग्रणी भूमिका के कारण हुआ। इसी तरह राजनीतिक दलों के अनेक कार्यकर्ताओं पर भी समय - समय पर मुकदमे दर्ज होते हैं। जरूरी नहीं कि ये सब अनैतिकता से जुडे़ हों। यह अच्छी बात है कि देश में चुनाव लड़ने से पहले दर्ज आपराधिक मामलों की जानकारी देने का कानून बनाया गया है। इस तरह आसानी से पता लगाया जा सकता है कि संसद या किसी विधानसभा में कितने सदस्यों पर ऐसे मुकदमे दर्ज हैं। पर केवल इन आँकड़ों के आधार पर सांसद या मंत्रियों के चरित्र की व्याख्या नहीं की जा सकती।
इस विरोध का सही तरीका यह होगा कि जहां भी यह गठबंधन उभरता नजर आए , वहीं इसके विरुद्ध जमकर मोर्चा लिया जाए। देश में प्रतिकूल परिस्थितियों के बावजूद कई जगहों पर लोग ऐसा मोर्चा ले रहे हैं। हम सबको चाहिए कि उनके हाथ मजबूत करें। संसद से नाहक टकराव लेने से कहीं बेहतर विकल्प है ऐसे अनेक मोर्चों पर जनता की ताकत से राजनीति - अपराध के गठबंधन को पराजित करना। भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन को अपनी रणनीति में यह स्पष्ट करना होगा कि वह संसदीय लोकतंत्र के विरुद्ध नहीं है , बल्कि इसे मजबूत करना चाहता है। लोकतंत्र की मौजूदा कमजोरी का एक बड़ा कारण भ्रष्टाचार है। भ्रष्टाचार को कम करने के प्रयास संसदीय लोकतंत्र की गरिमा बनाए रखते हुए ही तेज होने चाहिए।
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