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अज्ञान जैसा शत्रु दूसरा नहीं
- चाणक्य
अपने शत्रु से प्रेम करो, जो तुम्हे सताए उसके लिए प्रार्थना करो
- ईसा
प्रत्येक दिन का आकलन उस दिन काटी गई फसल से नहीं बल्कि बोए गए बीजों से करें।
- राबर्ट लुइस स्टीवेंसन
अज्ञानी होना मनुष्य का असाधारण अधिकार नहीं है बल्कि स्वयं को अज्ञानी जानना ही उसका विशेषाधिकार है
- राधाकृष्णन
ईश्वर द्वारा निर्मित जल और वायु की तरह सभी चीजों पर सबका सामान अधिकार होना चाहिए
- महात्मा गाँधी
अधिकार जताने से अधिकार सिद्ध नहीं होता
- टैगोर
दुनिया में दो ही त्रासदियां हैं: एक जिसकी ख्वाहिष हो वह नहीं मिलना और दूसरी त्रासदी, उसका मिल जाना।
- आस्कर वाइल्ड
सुख बाहर से मिलने की चीज नहीं पर अहंकार छोड़े बगैर इसकी प्राप्ति होने वाली भी नहीं।
- महात्मा गांधी
गुजरात की बहादुर बेटियाां
जीवन क्षणभंगुर है एवं मृत्यु एक शाश्वत सत्य। इसका एहसास मानव को सबसे अधिक श्मशान घाट पर होता है। कितना मुश्किल है एक व्यक्ति को चिता के हवाले करना जो कुछ देर पहले हम सबके बीच था। नारी का कोमल स्वभाव इस दुख को सह नहीं पाएगा यही सोचकर हिंदू संस्कृति में बेटियां श्मशान घाट नहीं जातीं । वहीं कुछ बेटियां ऐसी भी हैं जिन्होंने कोरोनाकाल में स्वयं आगे बढ़कर शवों के अंतिम संस्कार की जिम्मेदारी संभाली। इस कहानी में आज हम आपको मिलाएंगे राष्ट्र सेविका समिति की ऐसी ही स्वयंसेवी बहनों से।
बात अप्रैल 2021 की है, जब कोविड की दूसरी लहर से हाहाकार मचा हुआ था। संक्रमण के डर से लोग अपने-अपने घरों में डरे सहमे, दुबके बैठे थे। कोरोना पाज़िटिव शवों के अंतिम संस्कार के लिए उनके अपने परिजन ही तैयार नहीं थे। ऐसे में गुजरात- कच्छ के सुखपर गांव की हिना वेलानी, रिंकू वेकरिया, सुमिता भूडिया, तुलसी वेलानी समेत राष्ट्र सेविका समिति की 10 बहनों ने अद्भुत साहस का परिचय देते हुए घाट की सफाई, चिता सजाने से लेकर पी.पी.ई. किट पहनकर अंतिम विदाई देने के काम को बखूबी अंजाम दिया।
यह सिलसिला तब आरंभ हुआ, जब 15 अप्रैल 2021 की शाम भुज तहसील के विकास अधिकारी का फोन संघ के स्वयंसेवक रामजी वेलानी के पास आया स्वयंसेवकों से मदद के लिए, ताकि भुज के सरकारी अस्पताल में अंतिम विदाई की राह देख रही ऐसी लाशों की अंतिम क्रिया सम्पन्न कराई जा सके
जिनके अंतिम संस्कार के लिए परिजनों ने ही मुंह मोड़ लिया था, व सरकारी कर्मचारी भी पर्याप्त नहीं थे। इस विकट अवस्था को देखकर संघ कार्यकर्ताओं ने मिलकर इस कार्य के लिए पुरुष स्वयंसेवकों की एक टीम बनाई तो उनकी बेटी हिना ने भी इसमें सहयोग करने की इच्छा जाहिर की। पिता का मन थोड़ा आशंकित था कि इस कठोर कार्य को क्या हिना संपन्न कर पाएंगी? किंतु उनकी आशंका गलत साबित हुई, हिना के साथ-साथ राष्ट्र सेविका समिति की नौ अन्य बहनें भी इस काम में जुट गईं।
अपना अनुभव साझा करते हुए सौराष्ट्र प्रांत की राष्ट्रीय सेविका समिति की प्रांत प्रचार प्रसार प्रमुख हिना दीदी बताती हैं कि, हम 3-3 की टोली में काम कर रहे थे। नियमित श्मशान घाट की सफाई से लेकर, भीषण गर्मी में पी.पी.ई. किट पहनकर अंतिम संस्कार करने में हमें थोड़ी भी कठिनाई महसूस नहीं हुई। गांव के लोगों ने भी पूरा सहयोग किया, जिनके घरों में लकड़ी थी उन्होंने लकड़ी दी, कहीं से घी आया तो कहीं से कपूर।
लॉकडाउन का समय था, भुज के अस्पताल व आसपास के गांवो के सभी शवों का अंतिम संस्कार हमारे गांव सुखपर के घाट पर ही होता था। लगभग 45 दिन चले इस अभियान में, 450 से अधिक शवों को सम्मानजनक विदाई स्वयंसेवकों की टोली एवं समिति की बहनों ने मिलकर दी।
जब काम धीरे-धीरे आगे बढ़ा तो कई युवा इस कार्य के में जुट गए और अग्निदाह का काम संभाल लिया तो समिति की इन बहनों ने माँ अन्नपूर्णा का रूप धारण कर क्वॉरेंटाइन लोगों के टिफिन की जिम्मेदारी संभाल ली। लॉकडाउन में सेनेटाइजर के साथ सिलाई मशीन से मास्क बनवा कर घर-घर बांटना, अकेले असहाय वृद्धों के घर पहुंच कर फ्रूट व खाने से लेकर दवाइयां पहुंचाना, पुलिस से लेकर समग्र तंत्र को सभी प्रकार का सहयोग करने से लेकर ऐसी कोई सेवा नहीं थी, जो कोरोना काल में सेविका बहनों ने नहीं की हो।
यह सब कैसे कर पाती हैं ऐसा पूछने पर एक ही प्रत्युत्तर आता था कि - संघ के पारिवारिक संस्कार व समिति के प्रशिक्षण वर्गों की वजह से सब कुछ सम्भव है। तभी कहते हैं "संघे शक्ति युगे युगे"।
महावीर जयंती पर विशेष
जानिये भगवान महावीर के बारे मे
पूरे भारत वर्ष मे महावीर जयंती जैन समाज द्वारा भगवान महावीर के जन्म उत्सव के रूप मे मनाई जाती है. जैन समाज द्वारा मनाए जाने वाले इस त्योहार को महावीर जयंती के साथ साथ महावीर जन्म कल्याणक नाम से भी जानते है. महावीर जयंती हर वर्ष चैत्र माह के 13 वे दिन मनाई जाती है, जो हमारे वर्किंग केलेन्डर के हिसाब से मार्च या अप्रैल मे आती है. इस दिन हर तरह के जैन दिगम्बर, श्वेताम्बर आदि एक साथ मिलकर इस उत्सव को मनाते है. भगवान महावीर के जन्म उत्सव के रूप मे मनाए जाने वाले इस त्योहार मे पूरे भारत मे सरकारी छुट्टी घोषित की गयी है.
जैन धर्म के प्रवर्तक भगवान महावीर का जीवन उनके जन्म के ढाई हजार साल भी उनके लाखों अनुयायियों के साथ ही पूरी दुनिया को अहिंसा का पाठ पढ़ा रहा है. पंचशील सिद्धान्त के प्रर्वतक और जैन धर्म के चौबिसवें तीर्थंकर महावीर स्वामी अहिंसा के प्रमुख ध्वजवाहकों में से एक हैं. जैन ग्रंथों के अनुसार, 23वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ जी के मोक्ष प्राप्ति के बाद 298 वर्ष बाद महावीर स्वामी का जन्म ऐसे युग में हुआ, जहां पशुबलि, हिंसा और जाति-पाति के भेदभाव का अंधविश्वास था.
भगवान महावीर का जीवन परिचय
पूरा नाम |
भगवान महावीर |
जन्म |
599 BCE |
जन्म स्थान |
क्षत्रियकुंड, वैशाली जिला, बिहार, भारत |
मृत्यु |
527 BCE |
मृत्यु स्थान |
पावापुरी, मगध, नालंदा जिला, बिहार, भारत |
उम्र |
72 साल |
पिता |
सिद्धार्थराजा |
माता |
त्रिशाला |
भाई |
नंदीवर्धना, सुदर्शना |
पत्नी |
यशोदा |
जाति |
जनिज्म |
धर्म |
जैन |
भगवान महावीर के जन्म, परिवार, पत्नी
भगवान महावीर का जन्म लगभग 600 वर्ष पूर्व चैत्र शुक्ल त्रयोदशी के दिन क्षत्रियकुण्ड नगर मे हुआ. भगवान महावीर की माता का नाम महारानी त्रिशला और पिता का नाम महाराज सिद्धार्थ थे. भगवान महावीर कई नामो से जाने गए उनके कुछ प्रमुख नाम वर्धमान, महावीर, सन्मति, श्रमण आदि थे. महावीर स्वामी के भाई नंदिवर्धन और बहन सुदर्शना थी. बचपन से ही महावीर तेजस्वी और साहसी थे. शिक्षा पूरी होने के बाद इनके माता—पिता ने इनका विवाह राजकुमारी यशोदा के साथ कर दिया. बाद में उन्हें एक पुत्री प्रियदर्शना की प्राप्ति हुई, जिसका विवाह जमली से हुआ.
भगवान महावीर का जन्म एक साधारण बालक के रूप मे हुआ था, इन्होने अपनी कठिन तपस्या से अपने जीवन को अनूठा बनाया. महावीर स्वामी के जीवन के हर चरण मे एक कथा व्याप्त है, हम यहा उनके जीवन से जुड़े कुछ चरणों तथा उसमे निहित कथाओ को बता रहे है.
महावीर स्वामी के जीवन के विभिन्न चरण तथा उनसे जुड़ी कथा
महावीर स्वामी जन्म और नामकरण संस्कार :
महावीर स्वामी के जन्म के समय क्षत्रियकुण्ड गाव मे दस दिनो तक उत्सव मनाया गया. सारे मित्रो भाई बंधुओ को आमंत्रित किया गया, तथा उनका खूब सत्कार किया गया. राजा सिद्धार्थ का कहना था, कि जब से महावीर स्वामी का जन्म उनके परिवार मे हुआ है, तब से उनके धन धान्य कोष भंडार बल आदि सभी राजकीय साधनो मे बहुत वृध्दी हुई, तो उन्होने सबकी सहमति से अपने पुत्र का नाम वर्ध्दमान रखा.
महावीर स्वामी का विवाह:
कहा जाता है कि महावीर स्वामी अन्तर्मुखी स्वभाव के थे. शुरवात से ही उन्हे संसार के भोगो मे कोई रुचि नहीं थी, परंतु माता पिता की इच्छा के कारण उन्होने वसंतपुर के महासामन्त समरवीर की पुत्री यशोदा के साथ विवाह किया. तथा उनके साथ उनकी एक पुत्री हुई, जिसका नाम प्रियदर्शना रखा गया.
महावीर स्वामी का वैराग्य:
महावीर स्वामी के माता पिता की मृत्यु के पश्चात उनके मन मे वैराग्य लेने की इच्छा जागृत हुई, परंतु जब उन्होने इसके लिए अपने बड़े भाई से आज्ञा मांगी, तो उन्होने अपने भाई से कुछ समय रुकने का आग्रह किया. तब महावीर स्वामी जी ने अपने भाई की आज्ञा का मान रखते हुये 2 वर्ष पश्चात 30 वर्ष की आयु मे वैराग्य लिया. इतनी कम आयु में घर का त्याग कर ‘केशलोच’ के साथ जंगल में रहने लगे. वहां उन्हें 12 वर्ष के कठोर तप के बाद जम्बक में ऋजुपालिका नदी के तट पर एक साल्व वृक्ष के नीचे सच्चा ज्ञान प्राप्त हुआ. इसके बाद उन्हें ‘केवलिन’ नाम से जाना गया तथा उनके उपदेश चारों और फैलने लगे. बडे-बडे राजा महावीर स्वामी के अनुयायी बने उनमें से बिम्बिसार भी एक थे. 30 वर्ष तक महावीर स्वामी ने त्याग, प्रेम और अहिंसा का संदेश फैलाया और बाद में वे जैन धर्म के चौबीसवें तीर्थंकर बनें और विश्व के श्रेष्ठ महात्माओं में शुमार हुए.
उपसर्ग, अभिग्रह, केवलज्ञान: तीस वर्ष की आयु मे महावीर स्वामी ने पूर्ण संयम रखकर श्रमण बन गये, तथा दीक्षा लेते ही उन्हे मन पर्याय का ज्ञान हो गया. दीक्षा लेने के बाद महावीर स्वामी जी ने बहुत कठिन तापस्या की और विभिन्न कठिन उपसर्गों को समता भाव से ग्रहण किया. साधना के बारहवे वर्ष मे महावीर स्वामी जी मेढ़िया ग्राम से कोशम्बी आए और तब उन्होने पौष कृष्णा प्रतिपदा के दिन एक बहुत ही कठिन अभिग्रह धारण किया. इसके पश्चात साढ़े बारह वर्ष की कठिन तपस्या और साधना के बाद ऋजुबालुका नदी के किनारे महावीर स्वामी जी को शाल वृक्ष के नीचे वैशाख शुक्ल दशमी के दिन केवल ज्ञान- केवल दर्शन की उपलब्धि हुई.
महावीर और जैन धर्म
महावीर को वीर, अतिवीर और सन्मती के नाम से भी जाना जाता है. वे महावीर स्वामी ही थे, जिनके कारण ही 23वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्तों ने एक विशाल धर्म ‘जैन धर्म’ का रूप धारण किया. भगवान महावीर के जन्म स्थान को लेकर विद्वानों में कई मत प्रचलित है, लेकिन उनके भारत में अवतरण को लेकर वे एक मत है. वे भगवान महावीर के कार्यकाल को ईराक के जराथ्रुस्ट, फिलिस्तीन के जिरेमिया, चीन के कन्फ्यूसियस तथा लाओत्से और युनान के पाइथोगोरस, प्लेटो और सुकरात के समकालीन मानते हैं. भारत वर्ष को भगवान महावीर ने गहरे तक प्रभावित किया. उनकी शिक्षाओं से तत्कालीन राजवंश खासे प्रभावित हुए और ढेरों राजाओं ने जैन धर्म को अपना राजधर्म बनाया. बिम्बसार और चंद्रगुप्त मौर्य का नाम इन राजवंशों में प्रमुखता से लिया जा सकता है, जो जैन धर्म के अनुयायी बने. भगवान महावीर ने अहिंसा को जैन धर्म का आधार बनाया. उन्होंने तत्कालीन हिन्दु समाज में व्याप्त जाति व्यवस्था का विरोध किया और सबको समान मानने पर जोर दिया. उन्होंने जियो और जीने दो के सिद्धान्त पर जोर दिया. सबको एक समान नजर में देखने वाले भगवान महावीर अहिंसा और अपरिग्रह के साक्षात मूर्ति थे. वे किसी को भी कोई दु:ख नहीं देना चाहते थे.
महावीर स्वामी के उपदेश
भगवान महावीर ने अहिंसा, तप, संयम, पाच महाव्रत, पाच समिति, तीन गुप्ती, अनेकान्त, अपरिग्रह एवं आत्मवाद का संदेश दिया. महावीर स्वामी जी ने यज्ञ के नाम पर होने वाली पशु-पक्षी तथा नर की बाली का पूर्ण रूप से विरोध किया तथा सभी जाती और धर्म के लोगो को धर्म पालन का अधिकार बतलाया. महावीर स्वामी जी ने उस समय जाती-पाति और लिंग भेद को मिटाने के लिए उपदेश दिये.
निर्वाण :
कार्तिक मास की अमावस्या को रात्री के समय महावीर स्वामी निर्वाण को प्राप्त हुये, निर्वाण के समय भगवान महावीर स्वामी जी की आयु 72 वर्ष की थी.
विशेष तथ्य – भगवान महावीर
भगवान महावीर के जिओं और जीने दो के सिद्धान्त को जन—जन तक पहुंचाने के लिए जैन धर्म के अनुयायी हर वर्ष की कार्तिक पूर्णिमा को त्योहार की तरह मनाते हैं. इस अवसर पर वह दीपक प्रज्वलित करते हैं.
जैन धर्म के अनुयायियों के लिए उन्होंने पांच व्रत दिए, जिसमें अहिंसा,अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह बताया गया.
अपनी सभी इंन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर लेने की वजह से वे जितेन्द्रिय या ‘जिन’ कहलाए.
जिन से ही जैन धर्म को अपना नाम मिला.
जैन धर्म के गुरूओं के अनुसार भगवान महावीर के कुल 11 गणधर थे, जिनमें गौतम स्वामी पहले गणधर थे.
भगवान महावीन ने 527 ईसा पूर्व कार्तिक कृष्णा द्वितीया तिथि को अपनी देह का त्याग किया. देह त्याग के समय उनकी आयू 72 वर्ष थी.
बिहार के पावापूरी जहां उन्होंने अपनी देह को छोड़ा, जैन अनुयायियों के लिए यह पवित्र स्थल की तरह पूजित किया जाता है.
भगवान महावीर की मृत्यु के दो सौ साल बाद, जैन धर्म श्वेताम्बर और दिगम्बर सम्प्रदायों में बंट गया.
दिगम्बर सम्प्रदाय के जैन संत वस्त्रों का त्याग कर देते हैं, इसलिए दिगम्बर कहलाते हैं जबकि श्वेताम्बर सम्प्रदाय के संत श्वेत वस्त्र धारण करते हैं.
भगवान महावीर स्वामी जी की शिक्षाए
भगवान महावीर द्वारा दिए गए पंचशील सिद्धान्त ही जैन धर्म का आधार बने है. इस सिद्धान्त को अपना कर ही एक अनुयायी सच्चा जैन अनुयायी बन सकता है. सत्य, अहिंसा, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह को पंचशील कहा जाता है.
सत्य –
भगवान महावीर ने सत्य को महान बताया है. उनके अनुसार, सत्य इस दुनिया में सबसे शक्तिशाली है और एक अच्छे इंसान को किसी भी हालत में सच का साथ नहीं छोड़ना चाहिए. एक बेहतर इंसान बनने के लिए जरूरी है कि हर परिस्थिति में सच बोला जाए.
अहिंसा –
दूसरों के प्रति हिंसा की भावना नहीं रखनी चाहिए. जितना प्रेम हम खुद से करते हैं उतना ही प्रेम दूसरों से भी करें. अहिंसा का पालन करें.
अस्तेय –
दूसरों की वस्तुओं को चुराना और दूसरों की चीजों की इच्छा करना महापाप है. जो मिला है उसमें ही संतुष्ट रहें.
ब्रहृमचर्य –
महावीर जी के अनुसार जीवन में ब्रहमचर्य का पालन करना सबसे कठिन है, जो भी मनुष्य इसको अपने जीवन में स्थान देता है, वो मोक्ष प्राप्त करता है.
अपरिग्रह –
ये दुनिया नश्वर है. चीजों के प्रति मोह ही आपके दु:खों को कारण है. सच्चे इंसान किसी भी सांसारिक चीज का मोह नहीं करते हैं.
कर्म किसी को भी नहीं छोड़ते, ऐसा समझकर कर्म बांधने से भाय रखो.
तीर्थकर स्वयं घर का त्याग कर साधू धर्म स्वीकारते है तो फिर बिना धर्म कारणि किए हमारा कल्याण केसे होगा.
भगवान ने जब इतनी उग्र तपस्या की तो हमे भी शक्ति अनुसार तपस्या करनी चाहिए.
भगवान ने सामने जाकर उपसर्ग सहे तो कम से कम हमे अपने सामने आए उपसर्गो को समता से सहन करना चाहिए.
वर्ष 2023 मे महावीर जयंती कब है
वर्ष 2023 मे महावीर जयंती 4 अप्रैल, के दिन मनाई जाएगी. जहा भी भगवान महावीर के मंदिर है, वहा इस दिन विशेष आयोजन किए जाते है परंतु महावीर जयंती अधिकतर त्योहारो से अलग बहुत ही शांत माहौल मे विशेष पूजा अर्चना द्वारा मनाई जाती है . इस दिन भगवान महावीर का विशेष अभिषेक किया जाता है तथा जैन बंधुओ द्वारा अपने मंदिरो मे जाकर विशेष ध्यान और प्रार्थना की जाती है . इस दिन हर जैन मंदिर मे अपनी शक्ति अनुसार गरीबो मे दान दक्षिणा का विशेष महत्व है. भारत मे गुजरात, राजेस्थान, बिहार और कोलकाता मे उपस्थित प्रसिध्द मंदिरो मे यह उत्सव विशेष रूप से मनाया जाता है
भगवान महावीर के प्रमुख ग्यारह गणधर
1.श्री इंद्र्भूती जी
2.श्री अग्निभूति जी
3.श्री वायुभूति जी
4.श्री व्यक्त स्वामीजी
5.श्री सुधर्मा स्वामीजी
6.श्री मंडितपुत्रजी
7.श्री मौर्यपुत्र जी
8.श्री अकम्पित जी
9.श्री अचलभ्राता जी
10.श्री मोतार्यजी
11.श्री प्रभासजी
शिवरात्रि
शिवरात्रि हिन्दू कैलेन्डर के अनुसार फाल्गुन महीने की अमावस मे मनाई जाती है,जो कि इंगलिश कैलेन्डर के हिसाब से मार्च में होती है|शिवरात्रि बहुत महत्वपूर्ण त्योहार है|इसदिन लोग व्रत रखते है और सारी रात मन्दिरों मे भगवान शिवकाभजन होता है| सुबह भगवान शिव के भक्त बिशेष तौर पर औरतें नहा धोकर शिबलिंग पर जल चढ़ाने जाती है|औरतो के लिये विशेष रुप से शुभ माना जाता है|क्योकि एक कथा है कि पार्वती ने तपस्या की और प्रार्थना की कि इस अन्धेरी रात में मेरे पर कोई मुसीवत न आये| हे भगवान उसके सारे दुख दूर हो जाये|तव से महाशिवरात्रि के उत्सव पर औरतें अपने पति और पुत्र का शुभ मांगती हैं| भगवान से पार्थना करती है क्वारी लडकियाँ भगवान शिव का पूजन करती हैं कि हमें अच्छा पति मिले|
सुबह होने पर लोग गंगा में या खजुराहो में शिवसागर तालाव में स्नान करना पुन्य समझते हैं| भक्त लोग सूर्य,विष्णु और शिव की पूजा करते ह, शिवलिंग पर पानी या दूध चढ़ाते हैऔर औंनमःशिवाय , जय शंकर जी की बोलते है| मन्दिर में घंटियों की आवाज गूंज उठती है|
रामायण में शिवभक्तों की कथा इसप्रकार कही गई है कि एक बार राजा भागीरथ अपना राज्य छोडकर ब्रह्मा के पास गये और प्रार्थना की कि हमारे पूर्बजों को उनके पापों से मुक्त करें और उन्हें स्वर्ग में भेज स्थान दें| वह गंगा को पृथ्वी पर भेजें जो उनके पूर्वजो को इस बन्धन से छुडा सकती है और सब पाप धो सकती है| तब ब्रह्मा ने उसकी इच्छा पूरी की और कहा कि आप शिव को प्रार्थना करे वह ही गंगा का भार उठा सकते है कहते है कि गंगा शिव की जटाओ पर उतरी उसके बाद पृथ्वी पर आई और यह भी कहा गया है कि शिव की जटाओं के बाद थोडी सी बौछारे आई इसलिये बरुण को भी पवित्रता का रुप माना जाता है जो कि प्राणी का जीवन आधार है| लिगं को पानी से स्बान कराया जाता है जिसको एक धार्मिक रुप देदिया गया है| लिंग को दूध ,पानी और शहद से भी नहलाते है उसके बाद उस पर चन्दन की लकडी के बूरे का पेस्ट बनाकर उस का टीका लिंग पर लगाया जाता है फूल,फल ,पान के पत्त्ते चढाये जाते है और धूप दिया जलाया जाता है| शिब पुराण की कथा मैं इन छः वस्तुओं का ढ़ंग से महत्व बताया गया हैः
१ लोग बेलपत्र से पानी लिंग पर छिडकते है उसका तात्पर्य यह है कि शिव की क्रोध की अग्नि को शान्त करने के लिये ठन्डे पानी व पत्ते से स्नान कराया जाता है जो कि आत्मा कि शुद्धि का प्रतीक है|
२ नहलाने के बाद लिंग पर चन्दन का टीका लगाना शुभ जाग्रत करने का प्रतीक है|
३ फल, फूल चढ़ाना, धन्यबाद करना भगवान की कृपा और जीवनदान, भगवान शिव इस दुनिया के रवयिता है|उनकी रचना पर धन्यवाद करना|
४ धूप जलानाः सब अशुद्ध वायु,कीटाणु, गंदगी का नाश करने का प्रतीक है|हमारे सब संकट, कष्ट,दुःख दूर रहे, सब सुखी बसें|
५ दिया जलानाः हमें ज्ञान दें,हमें रोशनी दें,प्रकाश दें,विद्वान बनाये, शिक्षा दें ताकि हम सदा उन्नति के पथ पर बढते रहें|
६.पान का पत्ताः इसी से सन्तुष्ट हैं हमें जो दिया है हम उसी का धन्यवाद करते है|
पानी चढाना, मस्तक झुकाना , लिंग पर धूप जलाना,मन्दिर की घण्टी बजाना यह सब अपनी आत्मा को सर्तक करना हैकि हम इस संसार के रचने वाले का अंग हैं|
शिव के नृत्य, ताण्डव नृत्य की मुद्राएँ भी खूब दर्शनीय होती हैं| नृत्य में झूमने के, लिये लोग ठंडाई जो एक पेय है और यह बादाम, भंग और दूध से बनती है, पीते है|
पुराणों में बहुत सी कथाएँ मिलती हैं| एक कथा है कि समुद्र मंथन की | एक बार समुद्र से जहर निकला, सब देवी देवता डर गये कि अब दुनिया तबाह हो जायेगी| इस समस्या को लेकर सब देवी देवता शिव जी के पास गये, शिव ने वह जहर पी लिया और अपने गले तक रखा, निगला नही,शिव का गला नीला हो गया और उसे नीलकंठ का नाम दिया गया| शिव ने दुनिया को बचा लिया, शिवरात्रि इसलिये भी मनाई जाती है|
पुराणों में और भी कथायें मिलती है जो कि शिव की महिमा का वर्णन करती है परन्तु सारांश यह है कि शिवरात्रि भारत में सब जगह फाल्गुन के महिने में मनाई जाती है,हर जगह हरियाली छा जाती है, सर्दी का मौसम समाप्त होता है| धरती फिर से फूलों में समाने लगती है| ऐसा लगता है कि पृथ्वी में फिर से जान आ गई है| सारे भारत में शिवलिंग की पूजा होती है जो कि रचना की प्रतीक है| विश्वनाथ मन्दिर, जो काशी में है, में शिवलिंग के "ज्ञान का स्तम्भ" दिखाया गया है| शिव को बुद्धि मता,प्रकाश,रोशनी का प्रतीक माना गया है| वह दुनिया का रचयिता है| वह अज्ञानता को दूर कर के फिर से इन्सान में एक नई लहर सी जाग जाती है आगे बढ़नें की, यह त्योहार एक नई उमंग लेकर मनुष्य को प्रोत्साहित करते रहते है| बच्चे, बूढ़े, जवान सभी चेतना से भर जाते हैं |।
हनुमान साधना के कुछ नियम
हनुमान जी को प्रसन्न करना बहुत सरल है। राह चलते उनका नाम स्मरण करने मात्र से ही सारे संकट दूर हो जाते हैं। जो साधक विधिपूर्वक साधना से हनुमान जी की कृपा प्राप्त करना चाहते हैं उनके लिए प्रस्तुत हैं कुछ उपयोगी नियम ...
वर्तमान युग में हनुमान साधना तुरंत फल देती है। इसी कारण ये जन-जन के देव माने जाते हैं। इनकी पूजा-अर्चना अति सरल है, इनके मंदिर जगह-जगह स्थित हैं अतः भक्तों को पहुंचने में कठिनाई भी नहीं आती है। मानव जीवन का सबसे बड़ा दुख भय'' है और जो साधक श्री हनुमान जी का नाम स्मरण कर लेता है वह भय से मुक्ति प्राप्त कर लेता है।
हनुमान साधना के कुछ नियम यहां उद्धृत हैं। जिनका पालन करना अति आवश्यक है
हनुमान साधना में शुद्धता एवं पवित्रता अनिवार्य है। प्रसाद शुद्ध घी का बना होना चाहिए।
हनुमान जी को तिल के तेल में मिल हुए सिंदूर का लेपन करना चाहिए।
हनुमान जी को केसर के साथ घिसा लाल चंदन लगाना चाहिए।
पुष्पों में लाल, पीले बड़े फूल अर्पित करने चाहिए। कमल, गेंदे, सूर्यमुखी के फूल अर्पित करने पर हनुमान जी प्रसन्न होते हैं।
नैवेद्य में प्रातः पूजन में गुड़, नारियल का गोला और लडू, दोपहर में गुड़, घी और गेहूं की रोटी का चूरमा अथवा मोटा रोट अर्पित करना चाहिए। रात्रि में आम, अमरूद, केला आदि फलों का प्रसाद अर्पित करें।
साधना काल में ब्रह्मचर्य का पालन अति अनिवार्य है।
जो नैवेद्य हनुमान जी को अर्पित किया जाता है उसे साधक को ग्रहण करना चाहिए।
मंत्र जप बोलकर किए जा सकते हैं। हनुमान जी की मूर्ति के समक्ष उनके नेत्रों की ओर देखते हुए मंत्रों के जप करें।
साधना में दो प्रकार की मालाओं का प्रयोग किया जाता है। सात्विक कार्य से संबंधित साधना में रुद्राक्ष माला तथा तामसी एवं पराक्रमी कार्यों के लिए मूंगे की माला।
साधना पूर्ण आस्था, श्रद्धा और सेवा भाव से की जानी चाहिए।
मंगलवार हनुमान जी का दिन है। इस दिन अनुष्ठान संपन्न करना चाहिए। इसके अतिरिक्त शनिवार को भी हनुमान पूजा का विधान है।
हनुमान साधना से ग्रहों का अशुभत्व पूर्ण रूप से शांत हो जाता है। हनुमान जी और सूर्यदेव एक दूसरे के स्वरूप हैं, इनकी परस्पर मैत्री अति प्रबल मानी गई है। इसलिए हनुमान साधना करने वाले साधकों में सूर्य तत्व अर्थात आत्मविश्वास, ओज, तेजस्विता आदि विशेष रूप से आ जाते हैं। यह तेज ही साधकों को सामान्य व्यक्तियों से अलग करता है।
हनुमान जी की साधना में जो ध्यान किया जाता है उसका विशेष महत्व है। हनुमान जी के जिस विग्रह स्वरूप का ध्यान करें वैसी ही मूर्ति अपने मानस में स्थिर करें और इस तरह का अभ्यास करें कि नेत्र बंद कर लेने पर भी वही स्वरूप नजर आता रहे।
अंधश्रद्धा से मुक्ति सबसे बड़ी देशभक्ति है-
परम्परावादी सोच ही विज्ञान मे बाधा- हरीश देशमुख
दुनिया मे भूत नही होते, भूत दिमाग मे होते
टोना-टोटकों का कोई अस्तित्व नही
अंधश्रद्धा निर्मूलन समिती ईश्वर और धर्म के विरोधी ‘अंधविश्वास उन्मूलन’ के लिए तैयार हो रहे विज्ञान प्रचारक
‘विज्ञान बनाम चमत्कार’ पानी से दिया जलाकर किया कार्यशाला
अखिल भारतीय अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति नागपूर द्वारा विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी संचार परिषद नई दिल्ली के सहयोग से 24 से 28 मई 2014 तक पांच दिवसीय अंधविश्वास निर्मूलन कार्यशाला का आयोजन भोपाल के आॅयकफ आश्रम लायोसा निवास, अरेरा काॅलोनी मे किया जा रहा है। 5 दिवसीय इस कार्यशाला का उद्देश्य बताते हुए अखिल भारतीय अंधविश्वास उन्मूलन समिति के कार्यकारी सचिव श्री हरिभाऊ पाथोडे ने बताया कि अंधश्रद्धा और अंधविश्वास भारतीय समाज की गंभीर समस्या है। जब तब अंधश्रद्धा व्यापक तौर पर दूर नही होती तब तक किसी समाज का सुधार और प्रगति असंभव है। कार्यशाला का शुभारंभ मुख्य अतिथी अखिल भारतीय अंधविश्वास उन्मूलन समिति राष्ट्रीय महासचिव हरीश देशमुख ने पानी से दिया जलाकर किया।
प्रमुख अतिथीयों मे अखिल भारतीय अंधविश्वास उन्मूलन समिति के कार्यकारी सचिव श्री हरिभाऊ पाथोडे, मास्टर रिसोर्स पर्सन एड. गणेश हलकारे, अखिल भारतीय अंधविश्वास उन्मूलन समिति के महाराष्ट्र संघटक दिलीप सोलंके, कार्यशाला के को-आर्डिनेटर प्रशांत बौद्ध, चन्द्रकाॅत देशमुख उपस्थित थे। कार्यशाला के शुभारंभ श्री हरिओम ने कहा कि समाज मे व्याप्त अंधविश्वास को दूर रखने का दायित्व हम सभी का है। मानवीय हितों को केंद्र मे रखकर समाज को अंधविश्वास से मुक्त करने की आवश्यकता आज भी है ा अखिल भारतीय अंधविश्वास उन्मूलन समिति की भूमिका स्पष्ट करते हूए कहा कि वह ईश्वर और धर्म के विरोधी नही, बल्कि ईश्वर और ध्ार्म के नाम पर लोगों को लूटने, उनका शेाषण करने के की मानसिकता का विरोध करती है। भारतीय संविधान और संत परंपरा भी इसकी इजाजत नहीं कार्यशाला में मानवी उत्क्रांती, अंधविश्वासों का उद्गम, वैज्ञानिक सोच, बाबागिरी, मंत्र-तंत्र टोना -टोटका, भूत और भूतों का मनोविज्ञान, ज्योतिषशास्त्र, आत्मा-पुर्नजन्म, तथाकथित चमत्कारों की व्याख्या, बाबागिरी का पर्दापाश, फिल्म-शो आदि विषयों पर विस्तार से चर्चा और व्याख्या की जा रही है। भोपाल के आसपास के 12 जिलों से लगभग 40 प्रशिक्षणार्थी स्त्रोत व्यक्तिओं से प्रशिक्षण ले रहे है। उद्घाटन सत्र का संचालन करते हुए अनिल भवरे ने बताया कि कार्यशाला में प्रषिक्षण प्राप्त कर प्रशिक्षणार्थी अपने क्षेत्र में जाकर लोगोें को जागरूक करेंगे। आंख बंद कर वैज्ञानिक घटना में चमत्कार का वैज्ञानिक आधार खोजने की कोशिश अवैज्ञानिक है।
बुद्धमं शरणं गच्छामी...
उस दिन बैसाख पूर्णिमा थी, जो गुरु पूर्णिमा कहलाई भारत वर्ष को गुरु होने का गौरव प्राप्त हुआ। गौतम बुद्ध का जन्म उस संघर्षमय युग में हुआ जब समाज में जाति व्यवस्था व जातिभेद प्रबल हो रहा था। धार्मिक अंधविश्वासों, कर्मकांडों व पाखंड का भारी बोलबाला था। हिंसा, सामाजिक कुरीतियों व आडंबरों से भारतीय समाज आहत हो रहा था। समाज का हर वर्ग भेदभावपूर्ण प्रचलित व्यवस्था से दु:खी था और बदलाव की प्रतीक्षा कर रहा था। गौतम बुद्ध ने प्रचलित सामाजिक, धार्मिक रूढ़िगत मान्यताओं का कड़ा विरोध किया और समता, स्वतंत्रता, बंधुता, नैतिकता व वैज्ञानिक सोच की नई स्वस्थ परम्पराएं स्थापित कीं।
बुद्ध का व्यक्तित्व आकषर्क था। उनके उपदेशों का मूल आधार शास्त्र, धर्मग्रंथ, ईश्वर, मोक्ष या काल्पनिक शक्ति न होकर मानव समाज था। उन्होंने खुद को ‘मुक्तिदाता’ नहीं, ‘मार्गदाता’ कहा। स्वयं को मानव समाज का अंग मानते हुए मनुष्य के सुखी व शांतिपूर्ण जीवन का रास्ता बताया, लेकिन यह भी कहा कि समय व काल के अनुसार मेरी बातें मानव कल्याण की राह में उचित नहीं लगें तो उन्हें मत मानना।
पंचशील सदाचार
जीवन में अच्छा आचरण यानी सदाचार बौद्ध धर्म की आधारशिला है और इस सदाचार को ही पंचशील कहा गया है। पंचशील सदाचार के पांच सार्वभौम नियम हैं- जीव ¨हसा न करना, चोरी न करना, व्यभिचार न करना, झूठ न बोलना और व्यसनों से दूर रहना।
बुद्ध ने सिखाया
1. स्वचिंतन से निर्णय लो किसी भी बात को इसलिए मत मानो कि..
* ऐसा सदियों से होता आया है
* किसी धर्मग्रंथ में लिखा हुआ है या ज्यादातर लोग ऐसा मानते हैं
* किसी आचार्य, साधु, संत ने कहा है
* कोई बड़ा तुमसे कह रहा है बल्कि हर बात को तर्क, विवेक व चिंतन की कसौटी पर कसकर तौलना। यदि वह बात स्वयं, समाज व मानव कल्याण के हित में लगे तो ही मानना।
2. गुलाम नहीं, बुद्धिवादी बनो अत्त दीपोभव: यानी अपने दीपक स्वयं बनो, स्वयं प्रकाशवान बनो। अपने जीवन को सुखी, समृद्धशाली व निर्वाण के लिए किसी काल्पनिक शक्ति का गुलाम मत बनो। तुम्हें अपनी दास्ता, दरिद्रता व गरीबी खुद ही मिटानी है। तुम इस जीव जगत के सबसे बुद्धिमान प्राणी हो, इसलिए गुलाम नहीं, बुद्धिवादी बनो।
3. जाति नहीं आचरण मानो कोई भी व्यक्ति जन्म से बड़ा नहीं होता है, बल्कि आचरण से होता है। इसलिए अपना आचरण ऐसा रखो कि स्वत: बड़े हो जाओ।
संदेश-
हे मानव! तुम शेर के सामने जाने से मत डरना, यह बहादुरी की परीक्षा है। तुम तलवार का सामना करने से भी भयभीत मत होना, यह त्याग की कसौटी है। तुम पर्वत शिखर से पाताल में कूदते हुए भी मत डरना,यह तप की परीक्षा है। तुम धधकती ज्वालाओं से भी मत डरना, यह स्वर्ण परीक्षा है लेकिन शराब व अन्य व्यसन से हमेशा भयभीत रहना, क्योंकि यह बुराई, गरीबी व दुराचार की जननी है।
- गौतम बुद्ध
छठ पूजा
छठ हिन्दुओं का एक प्रमुख त्योहार है । यह पूजा उत्तर भारत एवं नेपाल में बड़े पैमाने पर की जाती है । छठ की पूजा बिहार, झारखंड और पूर्वी उत्तर प्रदेश में अत्यंत लोकप्रिय है । छठ पूजा दीपावली पर्व के छठे एवं सातवे दिन कार्तिक शुक्ल षष्ठी एवं सप्तमी को की जाती है । छठ, षष्टी का अपभ्रंश है जिसका अर्थ हिन्दू पंचांग की छठवीं तारीख है । कार्तिक शुक्ल षष्टी को सूर्य षष्टी नाम से जाना जाता है ।
छठ, सूर्य की उपासना का पर्व है । वैसे भारत में सूर्य पूजा की परम्परा वैदिक काल से ही रही है । लंका विजय के बाद रामराज्य की स्थापना के दिन कार्तिक शुक्ल षष्ठी को भगवान राम और माता सीता ने उपवास किया और सूर्यदेव की आराधना की और सप्तमी को सूर्योदय के समय अनुष्ठान कर सूर्यदेव से आशिर्वाद प्राप्त किया। इसी के उपलक्ष्य में छठ पूजा की जाती है।
ऊर्जा का सबसे बड़ा स्रोत सूर्य है । इस कारण हिन्दू शास्त्रों में सूर्य को भगवान मानते हैं । सूर्य के बिना कुछ दिन रहने की जरा कल्पना कीजिए । इनका जीवन के लिए इनका रोज उदित होना जरूरी है । कुछ इसी तरह की परिकल्पना के साथ पूर्वोत्तर भारत के लोग छठ महोत्सव के रूप में इनकी आराधना करते हैं ।
माना जाता है कि छठ या सूर्य पूजा महाभारत काल से की जाती रही है । छठ पूजा की शुरुआत सूर्य पुत्र कर्ण ने की थी। कर्ण भगवान सूर्य का परम भक्त था। वह प्रतिदिन घंटों कमर तक पानी में ख़ड़े होकर सूर्य को अर्घ्य देता था । सूर्य की कृपा से ही वह महान योद्धा बना था । महाभारत में सूर्य पूजा का एक और वर्णन मिलता है।
यह भी कहा जाता है कि पांडवों की पत्नी द्रौपदी अपने परिजनों के उत्तम स्वास्थ्य की कामना और लंबी उम्र के लिए नियमित सूर्य पूजा करती थीं । इसका सबसे प्रमुख गीत 'केलवा जे फरेला घवद से, ओह पर सुगा मे़ड़राय काँच ही बाँस के बहंगिया, बहंगी लचकत जाए' है।
दीपावली के छठे दिन से शुरू होने वाला छठ का पर्व चार दिनों तक चलता है । इन चारों दिन श्रद्धालु भगवान सूर्य की आराधना करके वर्षभर सुखी, स्वस्थ और निरोगी होने की कामना करते हैं । चार दिनों के इस पर्व के पहले दिन घर की साफ-सफाई की जाती है ।
वैसे तो छठ महोत्सव को लेकर तरह-तरह की मान्यताएँ प्रचलित हैं, लेकिन इन सबमें प्रमुख है साक्षात भगवान का स्वरूप सूर्य से आँखें मिलाने की कोशिश भी कोई नहीं कर सकता। ऐसे में इनके कोप से बचने के लिए छठ के दौरान काफी सावधानी बरती जाती है। इस त्योहार में पवित्रता का सर्वाधिक ध्यान रखा जाता है।
इस अवसर पर छठी माता का पूजन होता है । मान्यता है कि पूजा के दौरान कोई भी मन्नत माँगी जाए, पूरी होती। जिनकी मन्नत पूरी होती है, वे अपने वादे अनुसार पूजा करते हैं । पूजा स्थलों पर लोट लगाकर आते लोगों को देखा जा सकता है ।
छठ पूजा का प्रारंभ महाभारत काल में कुंती द्वारा सूर्य की आराधना व पुत्र कर्ण के जन्म के समय से माना जाता है। मान्यता है कि छठ देवी सूर्य देव की बहन हैं और उन्हीं को प्रसन्न करने के लिए जीवन के महत्वपूर्ण अवयवों में सूर्य व जल की महत्ता को मानते हुए, इन्हें साक्षी मान कर कार्तिक माह के शुक्ल पक्ष की पंचमी को भगवान सूर्य की आराधना तथा उनका धन्यवाद करते हुए मां गंगा-यमुना या किसी भी पवित्र नदी या तालाब के किनारे पूजा करने के लिए लोगो का हुजूम एकत्रित होता है प्राचीन काल में इसे बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश में ही मनाया जाता था। लेकिन आज इस प्रान्त के लोग विश्व में जहाँ भी रहते हैं वहाँ इस पर्व को उसी श्रद्धा और भक्ति से मनाते हैं। छठ मुख्य रूप से बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश में मनाया जाता है।इस लोकपर्व का संबंध बिहार के उस क्षेत्र से है, जो इतिहास के किसी दौर में महान सूर्योपासक रहा है। यह संबंध पूर्वी बिहार अथवा प्राचीन ‘अंग’ प्रदेश से जोड़ा जा सकता है, जिसमें भागलपुर, मुंगेर, पटना, गया, राजगृह, चंपा नगरी और मिथिला आदि क्षेत्र आते हैं। बिहार में तो इसे राजकीय पर्व जैसा दर्जा मिला हुआ है। अब मुंबई,दिल्ली और कोलकाता जैसे महानगरों और इनके उपनगरों में भी प्रवासी बिहारी और उत्तर प्रदेश के लोग यह पर्व बड़े पैमाने पर मनाने लगे हैं।
छठ का पर्व तीन दिनों तक मनाया जाता है। इसे छठ से दो दिन पहले चौथ के दिन शुरू करते हैं जिसमें दो दिन तक व्रत रखा जाता है।-पर्व के पहले दिन पूजा में चढ़ावे के लिए सामान तैयार किया जाता है जिसमें सभी प्रकार के मौसमी फल, केले की पूरी गौर (गवद), इस पर्व पर खासतौर पर बनाया जाने वाला पकवान ठेकुआ(खजूर), नारियल, मूली, सुथनी, अखरोट, बादाम, नारियल, इस पर चढ़ाने के लिए लाल,पीले रंग का कपड़ा, एक बड़ा घड़ा जिस पर बारह दीपक लगे हो गन्ने के बारह पेड़ आदि। पहले दिन महिलाएँ अपने बाल धो कर चावल, लौकी और चने की दाल का भोजन करती हैं और देवकरी में पूजा का सारा सामान रख कर दूसरे दिन आने वाले व्रत की तैयारी करती हैं।
छठ पर्व पर दूसरे दिन पूरे दिन व्रत ( उपवास) रखा जाता है और शाम को गन्ने के रस की बखीर बनाकर देवकरी में पांच जगह कोशा ( मिट्टी के बर्तन) में बखीर रखकर उसी से हवन किया जाता है। बाद में प्रसाद के रूप में बखीर का ही भोजन किया जाता है व सगे संबंधियों में इसे बाँटा जाता है।
तीसरे दिन यानी छठ के दिन 24 घंटे का निर्जली व्रत रखा जाता है सारे दिन पूजा की तैयारी की जाती है और पूजा के लिए एक बांस की बनी हुई बड़ी टोकरी, जिसे दौरी कहते हैं दौरी में पूजा का सभी सामान डाल कर देवकरी में रख दिया जाता है। देवकरी में गन्ने के पेड़ से एक छत्र बनाकर और उसके नीचे मिट्टी का एक बड़ा बर्तन, दीपक, तथा मिट्टी के हाथी बना कर रखे जाते हैं और उसमें पूजा का सामान भर दिया जाता है। वहाँ पूजा अर्चना करने के बाद शाम को एक सूप में नारियल कपड़े में लिपटा हुआ नारियल, पांच प्रकार के फल, पूजा का अन्य सामान ले कर दौरी में रख कर घर का पुरूष इसे अपने हाथों से उठा कर नदी, समुद्र या पोखर पर ले जाता है। यह अपवित्र न हो जाए इसलिए इसे सिर के उपर की तरफ रखते हैं। इस पर्व की विशेषता है कि इसे घर का कोई भी सदस्य रख सकता है तथा इसे किसी मन्दिर या धार्मिक स्थान में न मना कर अपने घर में देवकरी ( पूजा-स्थल) व प्राकृतिक जल राशि के समक्ष मनाया जाता है। तीन दिन तक चलने वाले इस पर्व के लिए महिलाएँ कई दिनों से तैयारी करती हैं इस अवसर पर घर के सभी सदस्य स्वच्छता का बहुत ध्यान रखते हैं जहाँ पूजा स्थल होता है वहाँ नहा धो कर ही जाते हैं यही नही तीन दिन तक घर के सभी सदस्य देवकरी के सामने जमीन पर ही सोते हैं।
वैसे तो प्रत्येक पर्व में ही स्वच्छता एवं शुद्धता पर विशेष ध्यान दिया जाता है, पर इस पर्व के संबंध में ऐसी धारणा है कि किसी ने यदि भूल से या अनजाने में भी कोई त्रुटि की तो उसका कठिन दंड भुगतना होगा। इसलिए पूरी सतर्कता बरती जाती है कि पूजा के निमित्त लाए गए फल- फूल किसी भी कारण अशुद्ध न होने पाएं। इस पर्व के नियम बड़े कठोर हैं। सबसे कठोर अनुशासन बिहार के दरभंगा में देखने को मिलता है। संभवत: इसीलिए इसे छठ व्रतियों का सिद्धपीठ भी कहा जाता है। ऐसा समझा जाता है कि इस पूजा के दौरान अर्घ्यदान के लिए साधक जल पूरित अंजलि ले कर सूर्याभिमुख होकर जब जल को भूमि पर गिराता है, तब सूर्य की किरणें उस जल धारा को पार करते समय प्रिज्म प्रभाव से अनेक प्रकार की किरणों में विखंडित हो जाती हैं। साधक के शरीर पर ये किरणें परा बैंगनी किरणों जैसा प्रभाव डालती हैं, जिसका उपचारी प्रभाव होता है।
छठ पर्व हिंदी महीने के कार्तिक मास के छठे दिन मनाया जाता है। यह कुल चार दिन का पर्व है। प्रथम दिन व्रती गंगा स्नान करके गंगाजल घर लाते हैं। दूसरे दिन, दिन भर उपवास रहकर रात में उपवास तोड़ देते हैं। फिर तीसरे दिन व्रत रहकर पूरे दिन पूजा के लिए सामग्री तैयार करते हैं। इस सामग्री में कम से कम पांच किस्म के फलों का होना जरूरी होता है।
तीसरे दिन ही शाम को जलाशयों या गंगा में खड़े रहकर व्रती सूर्यदेव की उपासना करते हैं और उन्हें अर्घ्य देते हैं। अगले दिन तड़के पुन: तट पर पहुंचकर पानी में खड़े रहकर सूर्योदय का इंतजार करते हैं। सूर्योदय होते ही सूर्य दर्शन के साथ उनका अनुष्ठान पूरा हो जाता है। पूरे चौबीस घंटे व्रतधारियों का निर्जला बीतता है।
इस व्रत में पहले दिन खरना होता है। पूरे दिन उपवास रखकर व्रती शाम को गुड़ की खीर और रोटी का प्रसाद ग्रहण करते हैं। साथ ही लौकी की सब्जी खाने की भी परंपरा है। कहा जाता है कि गुड़ की खीर खाने से जीवन और काया में सुख-समृद्धि के अंश जुड़ जाते हैं। इस प्रसाद को लोग मांगकर भी प्राप्त करते हैं अथवा व्रती अपने आसपास के घरों में स्वयं बांटने के लिए जाते हैं, ताकि जीवन के सुख की मिठास समाज में भी फैले।
इस पर्व के संबंध में कई कहानियां प्रचलित हैं। एक कथा यह है कि लंका विजय के बाद जब भगवान राम अयोध्या लौटे तो दीपावली मनाई गई। जब राम का राज्याभिषेक हुआ, तो राम और सीता ने सूर्य षष्ठी के दिन तेजस्वी पुत्र की प्राप्ति के लिए सूर्य की उपासना की। इसके अलावा एक कथा यह भी है कि सूर्य षष्ठी को ही गायत्री माता का जन्म हुआ था। इसी दिन ऋषि विश्वामित्र के मुख से गायत्री मंत्र फूटा था। पुत्र की प्राप्ति के लिए गायत्री माता की भी उपासना की जाती है।
एक प्रसंग यह भी है कि अपना राजपाट खो चुके जंगलों में भटकते पांडवों की दुर्दशा से व्यथित दौपद्री ने सूर्यदेव की आराधना की थी।
कोशी भरने की मान्यता
इस अवसर पर पुत्र प्राप्ति या सुखा -शांति और वैभव प्राप्ति किसी भी इच्छा पूर्ति हेतु जो कोई छठ मां से मन्नत मांगता है वह मन्नत पूरी होने पर कोशी भरी जाती है इसके लिए छठ पूजन के साथ -साथ गन्ने के बारह पेड़ से एक समूह बना कर उसके नीचे एक मिट्टी का बड़ा घड़ा जिस पर छ: दिए होते हैं देवकरी में रखे जाते हैं और बाद में इसी प्रक्रिया से नदी किनारे पूजा की जाती है नदी किनारे गन्ने का एक समूह बना कर छत्र बनाया जाता है उसके नीचे पूजा का सारा सामान रखा जाता है।
छठ माता का एक लोकप्रिय गीत है–
केरवा जे फरेला गवद से ओह पर सुगा मंडराय
उ जे खबरी जनइबो अदिक से सुगा देले जुठियाए
उ जे मरबो रे सुगवा धनुक से सुगा गिरे मुरझाय
उ जे सुगनी जे रोवे ले वियोग से आदित होइ ना सहाय
दीपावली : त्यौहार रोशनी का
भारत की सांस्कृतिक विरासत को हरा-भरा करने में यहां के विविधता भरे त्यौहारों का अहम स्थान है. दीपावली, होली, दशहरा हमारे जीवन को नया रंग रूप देते हैं. यह त्यौहार ही हैं जो हमें जीने का नया जोश दिलाते हैं. अगर होली हमारे जीवन में रंग भरने के लिए जानी जाती है तो हमारे जीवन में उजियारा फैलाने के लिए दीपावली का त्यौहार है. दीपावली एक ऐसा त्यौहार है जिसे हम पूरी पवित्रता और हर्षोल्लास के साथ मनाते हैं.
दीपावली दीपों का त्यौहार है. इस दिन रोशनी का विशेष महत्व होता है. दीपावली के कई मायने हैं. भारत के हर धार्मिक त्यौहार की तरह इस त्यौहार के पीछे भी पुराणिक कथा है. पर तमाम कथाओं और रीति रिवाजों के बावजूद दीपावली ही एक ऐसा पर्व है जिसे हम साल का सबसे बड़ा पर्व कह सकते हैं. यह हिन्दुओं का सबसे बड़ा पर्व होता है. लेकिन भारत जैसे धर्मनिरपेक्ष देश में कोई भी पर्व किसी खास जाति या धर्म तक तो सीमित रह ही नहीं सकता. आज दीपावली भारत में रहने वाले हर इंसान के लिए एक अहम त्यौहार है.
धार्मिक मान्यत
कार्तिक अमावस्या की काली रात को दीयों से उजाले में बदलने की यह परंपरा बहुत पुरानी है. मान्यता है कि इसी दिन भगवान श्री रामचंद्रजी चौदह वर्ष का वनवास काटकर तथा रावण का वध कर अयोध्या वापस लौटे थे. तब अयोध्यावासियों ने राम के राज्यारोहण पर दीपमालाएं जलाकर महोत्सव मनाया था. उसी परंपरा को आज भी हम मानते हैं और दीपावली पर दिए जलाकर मर्दाया पुरुषोत्तम राम को याद करते हैं.
लक्ष्मी पूजन: कलयुग में सांसारिक वस्तुओं और धन का विशेष महत्व है. मान्यता है कि इस युग में लक्ष्मी जी ही ऐसी देवी हैं जो अपने भक्तों को संसारिक वस्तुओं से परिपूर्ण करती हैं और धन देती हैं. मान्यता है कि समुद्र मंथन के समय कार्तिक अमावस्या को ही लक्ष्मी जी प्रकट हुई थीं. इसलिए इसी दिन लक्ष्मी पूजन का विशेष महत्व है.
दीपावली की कथा
वैसे तो दीपावली मनाने का मुख्य कारण भगवान राम का अयोध्या लौटना था पर मनुष्य जिसमें शायद अब पुरुषोत्तम बनने की हिम्मत रही नहीं वह इस त्यौहार को मात्र लक्ष्मी पूजन का दिन मनाता है. क्यूंकि लक्ष्मी जी धन की देवी हैं और धन आज सबसे ज्यादा महत्व रखता है इसलिए आज ज्यादातर लोग इस पर्व पर मात्र लक्ष्मी जी को ही याद करते हैं.
रामायण तो हम सब ने सुनी ही है चलिए इस बार लक्ष्मी जी से जुड़ी एक कथा भी पढ़ लेते हैं:
प्राचीनकाल में एक साहूकार था. उसकी एक सुशील और सुंदर बेटी थी. वह प्रतिदिन पीपल पर जल चढ़ाने जाती थी. उस पीपल पर लक्ष्मी जी का वास था. एक दिन लक्ष्मीजी ने साहूकार की बेटी से कहा- ‘तुम मेरी सहेली बन जाओ.’ तब साहूकार के बेटी ने लक्ष्मी जी से कहा- ‘मैं कल अपने पिता से पूछकर उत्तर दूंगी.’ घर जाकर उसने अपने पिता को सारी बात कह सुनाई. उसने कहा- ‘पीपल पर एक स्त्री मुझे अपनी सहेली बनाना चाहती है.’ तब साहूकार ने कहा- ‘वह तो लक्ष्मी जी हैं. और हमें क्या चाहिए, तू उनकी सहेली बन जा.’
इस प्रकार पिता के हां कर देने पर दूसरे दिन साहूकार की बेटी जब पीपल सींचने गई तो उसने लक्ष्मी जी को सहेली बनाना स्वीकार कर लिया. एक दिन लक्ष्मी जी ने साहूकार की बेटी को भोजन का न्यौता दिया. जब साहूकार की बेटी लक्ष्मी जी के यहाँ भोजन करने गई तो लक्ष्मी जी ने उसको ओढ़ने के लिए शाल दुशाला दिया तथा सोने की चौकी पर बैठाकर, सोने की थाली में अनेक प्रकार के भोजन कराए. जब साहूकार की बेटी खा-पीकर अपने घर को लौटने लगी तो लक्ष्मी जी ने उसे पकड़ लिया और कहा- ‘तुम मुझे अपने घर कब बुला रही हो? मैं भी तेरे घर जीमने आऊंगी.’ पहले तो उसने आनाकानी की, फिर कहा -’अच्छा, आ जाना.’ घर आकर वह रूठकर बैठ गई. तब साहूकार ने कहा- ‘तुम लक्ष्मीजी को तो घर आने का निमन्त्रण दे आई हो और स्वयं उदास बैठी हो.’ तब साहूकार की बेटी बोली- ‘पिताजी! लक्ष्मी जी ने तो मुझे इतना दिया और बहुत उत्तम भोजन कराया. मैं उन्हें किस प्रकार खिलाऊंगी, हमारे घर में तो वैसा कुछ भी नहीं है.’
तब साहूकार ने कहा- ‘जो अपने से बनेगा, वही ख़ातिर कर देंगे. तू जल्दी से गोबर मिट्टी से चौका देकर सफ़ाई कर दे. चौमुखा दीपक बनाकर लक्ष्मी जी का नाम लेकर बैठ जा.’ तभी एक चील किसी रानी का नौलखा हार उठा लाई और उसे साहूकार की बेटी के पास डाल गई. साहूकार की बेटी ने उस हार को बेचकर सोने का थाल, शाल, दुशाला और अनेक प्रकार के भोजन की तैयारी कर ली. थोड़ी देर बाद लक्ष्मी जी उसके घर पर आ गईं. साहूकार की बेटी ने लक्ष्मी जी को बैठने के लिए सोने की चौकी दी. लक्ष्मी जी ने बैठने को बहुत मना किया और कहा- ‘इस पर तो राजा-रानी बैठते हैं.’ तब साहूकार की बेटी ने कहा- ‘तुम्हें तो हमारे यहाँ बैठना ही पड़ेगा.’ तब लक्ष्मी जी उस पर बैठ गई. साहूकार की बेटी ने लक्ष्मीजी की बहुत ख़ातिरदारी की, इससे लक्ष्मी जी बहुत प्रसन्न हुई और साहूकार के पास बहुत धन-दौलत हो गई.
दीपावली को सफाई का महत्व: दीपावली धार्मिक कारणों से ही नहीं बल्कि वैज्ञानिक दृष्टि से भी एक अहम पर्व है. ज्यादातर लोग इस दिन घर की पूरी सफाई और रंगाई करते हैं जिससे जहां पूरे साल सफाई नहीं होती वहां भी सफाई हो जाती है.
दीपावली पूजन विधि: दीपावली को लक्ष्मी, गणेश और सरस्वती की पूजा करने का विधान है. इसके साथ भगवान राम और सीताजी को भी पूजा जाता है. इस दिन गणेश जी की पूजा इसलिए की जाती है क्यूंकि गणेश पूजन के बिना कोई भी पूजन अधूरा होता है और सरस्वती जी की इसलिए की जाती है क्यूंकि धन व सिद्धि के साथ ज्ञान भी पूजनीय है.
इस दिन सुबह-सुबह जल्दी उठकर नहा लेना चाहिए और आलस्य का त्याग करना चाहिए. कहा जाता है कि लक्ष्मी वहीं वास करती हैं जहां सफाई और स्फूर्ति हो. शाम के समय लक्ष्मी जी की फोटो या मूर्ति पर रोली बांधे.
छः चौमुखे व 26 छोटे दीपक रखें. इनमें तेल-बत्ती डालकर जलाएं. फिर जल, मौली, चावल, फल, गुढ़, अबीर, गुलाल, धूप आदि से विधिवत पूजन करें. पूजा पहले पुरुष तथा बाद में स्त्रियां करें. पूजा के बाद एक-एक दीपक घर के कोनों में जलाकर रखें.
एक छोटा तथा एक चौमुखा दीपक रखकर निम्न मंत्र से लक्ष्मीजी का पूजन करें:
नमस्ते सर्वदेवानां वरदासि हरेः प्रिया.
या गतिस्त्वत्प्रपन्नानां सा मे भूयात्वदर्चनात॥
इस पूजन के पश्चात तिजोरी में गणेशजी तथा लक्ष्मीजी की मूर्ति रखकर विधिवत पूजा करें. इसके बाद मां लक्ष्मी जी की आरती सपरिवार गाएं. पूजा के बाद खील बताशों का प्रसाद सभी को बांटें.
दीपावली और पटाखे
हार साल दीपावली पर पटाखों की वजह से कई घटनाएं होती है. कई लोग आग का शिकार होते हैं. दीपावली दीपों का त्यौहार है ना कि पटाखों का. आज के पटाखों की आवाज से तो शायद भगवान के कान भी कांपते होंगे.
तो दोस्तों जितना हो सके इस दीपावली खुद भी पटाखों से दूर रहें और अपने आसपास के लोगों को भी पटाखों से होनी वाली हानियों के बारे में बताएं. इस दीपावली उजाला फैलाएं ना कि प्रदूषण.
दशहरा
दशहरा (विजयदशमी या आयुध-पूजा) हिन्दुओं का एक प्रमुख त्योहार है। अश्विन (क्वार) मास के शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि को इसका आयोजन होता है। भगवान राम ने इसी दिन रावण का वध किया था। इसे असत्य पर सत्य की विजय के रूप में मनाया जाता है। इसीलिये इस दशमी को विजयादशमी के नाम से जाना जाता है। दशहरा वर्ष की तीन अत्यन्त शुभ तिथियों में से एक है, अन्य दो हैं चैत्र शुक्ल की एवं कार्तिक शुक्ल की प्रतिपदा। इसी दिन लोग नया कार्य प्रारम्भ करते हैं, शस्त्र-पूजा की जाती है। प्राचीन काल में राजा लोग इस दिन विजय की प्रार्थना कर रण-यात्रा के लिए प्रस्थान करते थे। इस दिन जगह-जगह मेले लगते हैं। रामलीला का आयोजन होता है। रावण का विशाल पुतला बनाकर उसे जलाया जाता है। दशहरा अथवा विजयदशमी भगवान राम की विजय के रूप में मनाया जाए अथवा दुर्गा पूजा के रूप में, दोनों ही रूपों में यह शक्ति-पूजा का पर्व है, शस्त्र पूजन की तिथि है। हर्ष और उल्लास तथा विजय का पर्व है। भारतीय संस्कृति वीरता की पूजक है, शौर्य की उपासक है। व्यक्ति और समाज के रक्त में वीरता प्रकट हो इसलिए दशहरे का उत्सव रखा गया है। दशहरा का पर्व दस प्रकार के पापों- काम, क्रोध, लोभ, मोह मद, मत्सर, अहंकार, आलस्य, हिंसा और चोरी के परित्याग की सद्प्रेरणा प्रदान करता है।
सामाजिक महत्त्व
दशहरे का सांस्कृतिक पहलू भी है। भारत कृषि प्रधान देश है। जब किसान अपने खेत में सुनहरी फसल उगाकर अनाज रूपी संपत्ति घर लाता है तो उसके उल्लास और उमंग का पारावार नहीं रहता। इस प्रसन्नता के अवसर पर वह भगवान की कृपा को मानता है और उसे प्रकट करने के लिए वह उसका पूजन करता है। समस्त भारतवर्ष में यह पर्व विभिन्न प्रदेशों में विभिन्न प्रकार से मनाया जाता है। महाराष्ट्र में इस अवसर पर सिलंगण के नाम से सामाजिक महोत्सव के रूप में भी इसको मनाया जाता है। सायंकाल के समय पर सभी ग्रामीणजन सुंदर-सुंदर नव वस्त्रों से सुसज्जित होकर गाँव की सीमा पार कर शमी वृक्ष के पत्तों के रूप में 'स्वर्ण' लूटकर अपने ग्राम में वापस आते हैं। फिर उस स्वर्ण का परस्पर आदान-प्रदान किया जाता है।
भारत के विभिन्न प्रदेशों का दशहरा
दशहरा अथवा विजयदशमी राम की विजय के रूप में मनाया जाए अथवा दुर्गा पूजा के रूप में, दोनों ही रूपों में यह शक्ति पूजा का पर्व है, शस्त्र पूजन की तिथि है। हर्ष और उल्लास तथा विजय का पर्व है। देश के कोने-कोने में यह विभिन्न रूपों से मनाया जाता है, बल्कि यह उतने ही जोश और उल्लास से दूसरे देशों में भी मनाया जाता जहां प्रवासी भारतीय रहते हैं।
हिमाचल प्रदेश में कुल्लू का दशहरा बहुत प्रसिद्ध है। अन्य स्थानों की ही भाँति यहाँ भी दस दिन अथवा एक सप्ताह पूर्व इस पर्व की तैयारी आरंभ हो जाती है। स्त्रियाँ और पुरुष सभी सुंदर वस्त्रों से सज्जित होकर तुरही, बिगुल, ढोल, नगाड़े, बाँसुरी आदि-आदि जिसके पास जो वाद्य होता है, उसे लेकर बाहर निकलते हैं। पहाड़ी लोग अपने ग्रामीण देवता का धूम धाम से जुलूस निकाल कर पूजन करते हैं। देवताओं की मूर्तियों को बहुत ही आकर्षक पालकी में सुंदर ढंग से सजाया जाता है। साथ ही वे अपने मुख्य देवता रघुनाथ जी की भी पूजा करते हैं। इस जुलूस में प्रशिक्षित नर्तक नटी नृत्य करते हैं। इस प्रकार जुलूस बनाकर नगर के मुख्य भागों से होते हुए नगर परिक्रमा करते हैं और कुल्लू नगर में देवता रघुनाथजी की वंदना से दशहरे के उत्सव का आरंभ करते हैं। दशमी के दिन इस उत्सव की शोभा निराली होती है।
पंजाब में दशहरा नवरात्रि के नौ दिन का उपवास रखकर मनाते हैं। इस दौरान यहां आगंतुकों का स्वागत पारंपरिक मिठाई और उपहारों से किया जाता है। यहां भी रावण-दहन के आयोजन होते हैं, व मैदानों में मेले लगते हैं।
बस्तर में दशहरे के मुख्य कारण को राम की रावण पर विजय ना मानकर, लोग इसे मां दंतेश्वरी की आराधना को समर्पित एक पर्व मानते हैं। दंतेश्वरी माता बस्तर अंचल के निवासियों की आराध्य देवी हैं, जो दुर्गा का ही रूप हैं। यहां यह पर्व पूरे ७५ दिन चलता है। यहां दशहरा श्रावण मास की अमावस से आश्विन मास की शुक्ल त्रयोदशी तक चलता है। प्रथम दिन जिसे काछिन गादि कहते हैं, देवी से समारोहारंभ की अनुमति ली जाती है। देवी एक कांटों की सेज पर विरजमान होती हैं, जिसे काछिन गादि कहते हैं। यह कन्या एक अनुसूचित जाति की है, जिससे बस्तर के राजपरिवार के व्यक्ति अनुमति लेते हैं। यह समारोह लगभग १५वीं शताब्दी से शुरु हुआ था। इसके बाद जोगी-बिठाई होती है, इसके बाद भीतर रैनी (विजयदशमी) और बाहर रैनी (रथ-यात्रा) और अंत में मुरिया दरबार होता है। इसका समापन अश्विन शुक्ल त्रयोदशी को ओहाड़ी पर्व से होता है।
बंगाल,ओडिशा और असम में यह पर्व दुर्गा पूजा के रूप में ही मनाया जाता है। यह बंगालियों,ओडिआ,और आसाम के लोगों का सबसे महत्वपूर्ण त्योहार है। पूरे बंगाल में पांच दिनों के लिए मनाया जाता है।ओडिशा और असम मे ४ दिन तक त्योहार चलता है। यहां देवी दुर्गा को भव्य सुशोभित पंडालों विराजमान करते हैं। देश के नामी कलाकारों को बुलवा कर दुर्गा की मूर्ति तैयार करवाई जाती हैं। इसके साथ अन्य देवी द्वेवताओं की भी कई मूर्तियां बनाई जाती हैं। त्योहार के दौरान शहर में छोटे मोटे स्टाल भी मिठाईयों से भरे रहते हैं। यहां षष्ठी के दिन दुर्गा देवी का बोधन, आमंत्रण एवं प्राण प्रतिष्ठा आदि का आयोजन किया जाता है। उसके उपरांत सप्तमी, अष्टमी एवं नवमी के दिन प्रातः और सायंकाल दुर्गा की पूजा में व्यतीत होते हैं।अष्टमी के दिन महापूजा और बलि भि दि जाति है। दशमी के दिन विशेष पूजा का आयोजन किया जाता है। प्रसाद चढ़ाया जाता है और प्रसाद वितरण किया जाता है। पुरुष आपस में आलिंगन करते हैं, जिसे कोलाकुली कहते हैं। स्त्रियां देवी के माथे पर सिंदूर चढ़ाती हैं, व देवी को अश्रुपूरित विदाई देती हैं। इसके साथ ही वे आपस में भी सिंदूर लगाती हैं, व सिंदूर से खेलते हैं। इस दिन यहां नीलकंठ पक्षी को देखना बहुत ही शुभ माना जाता है। तदनंतर देवी प्रतिमाओं को बड़े-बड़े ट्रकों में भर कर विसर्जन के लिए ले जाया जाता है। विसर्जन की यह यात्रा भी बड़ी शोभनीय और दर्शनीय होती है।
तमिल नाडु, आंध्र प्रदेश एवं कर्नाटक में दशहरा नौ दिनों तक चलता है जिसमें तीन देवियां लक्ष्मी, सरस्वती और दुर्गा की पूजा करते हैं। पहले तीन दिन लक्ष्मी - धन और समृद्धि की देवी का पूजन होता है। अगले तीन दिन सरस्वती- कला और विद्या की देवी की अर्चना की जाती है और अंतिम दिन देवी दुर्गा-शक्ति की देवी की स्तुति की जाती है। पूजन स्थल को अच्छी तरह फूलों और दीपकों से सजाया जाता है। लोग एक दूसरे को मिठाइयां व कपड़े देते हैं। यहां दशहरा बच्चों के लिए शिक्षा या कला संबंधी नया कार्य सीखने के लिए शुभ समय होता है। कर्नाटक में मैसूर का दशहरा विशेष उल्लेखनीय है। मैसूर में दशहरे के समय पूरे शहर की गलियों को रोशनी से सज्जित किया जाता है और हाथियों का श्रंगार कर पूरे शहर में एक भव्य जुलूस निकाला जाता है। इस समय प्रसिद्ध मैसूर महल को दीपमालिकाओं से दुलहन की तरह सजाया जाता है। इसके साथ शहर में लोग टार्च लाइट के संग नृत्य और संगीत की शोभा यात्रा का आनंद लेते हैं। इन द्रविड़ प्रदेशों में रावण-दहन का आयोजन नहीं किया जाता है।
गुजरात में मिट्टी सुशोभित रंगीन घड़ा देवी का प्रतीक माना जाता है और इसको कुंवारी लड़कियां सिर पर रखकर एक लोकप्रिय नृत्य करती हैं जिसे गरबा कहा जाता है। गरबा नृत्य इस पर्व की शान है। पुरुष एवं स्त्रियां दो छोटे रंगीन डंडों को संगीत की लय पर आपस में बजाते हुए घूम घूम कर नृत्य करते हैं। इस अवसर पर भक्ति, फिल्म तथा पारंपरिक लोक-संगीत सभी का समायोजन होता है। पूजा और आरती के बाद डांडिया रास का आयोजन पूरी रात होता रहता है। नवरात्रि में सोने और गहनों की खरीद को शुभ माना जाता है।
महाराष्ट्र में नवरात्रि के नौ दिन मां दुर्गा को समर्पित रहते हैं, जबकि दसवें दिन ज्ञान की देवी सरस्वती की वंदना की जाती है। इस दिन विद्यालय जाने वाले बच्चे अपनी पढ़ाई में आशीर्वाद पाने के लिए मां सरस्वती के तांत्रिक चिह्नों की पूजा करते हैं। किसी भी चीज को प्रारंभ करने के लिए खासकर विद्या आरंभ करने के लिए यह दिन काफी शुभ माना जाता है। महाराष्ट्र के लोग इस दिन विवाह, गृह-प्रवेश एवं नये घर खरीदने का शुभ मुहूर्त समझते हैं।
कश्मीर के अल्पसंख्यक हिन्दू नवरात्रि के पर्व को श्रद्धा से मनाते हैं। परिवार के सारे वयस्क सदस्य नौ दिनों तक सिर्फ पानी पीकर उपवास करते हैं। अत्यंत पुरानी परंपरा के अनुसार नौ दिनों तक लोग माता खीर भवानी के दर्शन करने के लिए जाते हैं। यह मंदिर एक झील के बीचोबीच बना हुआ है। ऐसा माना जाता है कि देवी ने अपने भक्तों से कहा हुआ है कि यदि कोई अनहोनी होने वाली होगी तो सरोवर का पानी काला हो जाएगा। कहा जाता है कि इंदिरा गांधी की हत्या के ठीक एक दिन पहले और भारत पाक युद्ध के पहले यहाँ का पानी सचमुच काला हो गया था।
विजय पर्व
दशहरे का उत्सव शक्ति और शक्ति का समन्वय बताने वाला उत्सव है। नवरात्रि के नौ दिन जगदम्बा की उपासना करके शक्तिशाली बना हुआ मनुष्य विजय प्राप्ति के लिए तत्पर रहता है। इस दृष्टि से दशहरे अर्थात विजय के लिए प्रस्थान का उत्सव का उत्सव आवश्यक भी है।
भारतीय संस्कृति सदा से ही वीरता व शौर्य की समर्थक रही है। प्रत्येक व्यक्ति और समाज के रुधिर में वीरता का प्रादुर्भाव हो कारण से ही दशहरे का उत्सव मनाया जाता है। यदि कभी युद्ध अनिवार्य ही हो तब शत्रु के आक्रमण की प्रतीक्षा ना कर उस पर हमला कर उसका पराभव करना ही कुशल राजनीति है। भगवान राम के समय से यह दिन विजय प्रस्थान का प्रतीक निश्चित है। भगवान राम ने रावण से युद्ध हेतु इसी दिन प्रस्थान किया था। मराठा रत्न शिवाजी ने भी औरंगजेब के विरुद्ध इसी दिन प्रस्थान करके हिन्दू धर्म का रक्षण किया था। भारतीय इतिहास में अनेक उदाहरण हैं जब हिन्दू राजा इस दिन विजय-प्रस्थान करते थे।
इस पर्व को भगवती के 'विजया' नाम पर भी 'विजयादशमी' कहते हैं। इस दिन भगवान रामचंद्र चौदह वर्ष का वनवास भोगकर तथा रावण का वध कर अयोध्या पहुँचे थे। इसलिए भी इस पर्व को 'विजयादशमी' कहा जाता है। ऐसा माना जाता है कि आश्विन शुक्ल दशमी को तारा उदय होने के समय 'विजय' नामक मुहूर्त होता है। यह काल सर्वकार्य सिद्धिदायक होता है। इसलिए भी इसे विजयादशमी कहते हैं।
ऐसा माना गया है कि शत्रु पर विजय पाने के लिए इसी समय प्रस्थान करना चाहिए। इस दिन श्रवण नक्षत्र का योग और भी अधिक शुभ माना गया है। युद्ध करने का प्रसंग न होने पर भी इस काल में राजाओं (महत्त्वपूर्ण पदों पर पदासीन लोग) को सीमा का उल्लंघन करना चाहिए। दुर्योधन ने पांडवों को जुए में पराजित करके बारह वर्ष के वनवास के साथ तेरहवें वर्ष में अज्ञातवास की शर्त दी थी। तेरहवें वर्ष यदि उनका पता लग जाता तो उन्हें पुनः बारह वर्ष का वनवास भोगना पड़ता। इसी अज्ञातवास में अर्जुन ने अपना धनुष एक शमी वृक्ष पर रखा था तथा स्वयं वृहन्नला वेश में राजा विराट के यहँ नौकरी कर ली थी। जब गोरक्षा के लिए विराट के पुत्र धृष्टद्युम्न ने अर्जुन को अपने साथ लिया, तब अर्जुन ने शमी वृक्ष पर से अपने हथियार उठाकर शत्रुओं पर विजय प्राप्त की थी। विजयादशमी के दिन भगवान रामचंद्रजी के लंका पर चढ़ाई करने के लिए प्रस्थान करते समय शमी वृक्ष ने भगवान की विजय का उद्घोष किया था। विजयकाल में शमी पूजन इसीलिए होता है।
नवरात्रि
नवरात्रि एक हिंदू पर्व है। नवरात्रि संस्कृत शब्द है, जिसका अर्थ होता है नौ रातें । यह पर्व साल में चार बार आता है।चैत्र,आषाढ,अश्विन,पोषप्रतिपदा से नवमी तक मनाया जाता है। नवरात्रि के नौ रातो में तीन देवियों - महाकाली, महालक्ष्मी और महासरस्वतीया सरस्वतीकि तथा दुर्गा के नौ स्वरुपों की पूजा होती है जिन्हे नवदुर्गा कहते हैं ।
नौ देवियाँ है :-
श्री शैलपुत्री
देवी दुर्गा के नौ रूप होते हैं। दुर्गाजी पहले स्वरूप में 'शैलपुत्री' के नाम से जानी जाती हैं। ये ही नवदुर्गाओं में प्रथम दुर्गा हैं। पर्वतराज हिमालय के घर पुत्री रूप में उत्पन्न होने के कारण इनका नाम 'शैलपुत्री' पड़ा। नवरात्र-पूजन में प्रथम दिवस इन्हीं की पूजा और उपासना की जाती है। इस प्रथम दिन की उपासना में योगी अपने मन को 'मूलाधार' चक्र में स्थित करते हैं। यहीं से उनकी योग साधना का प्रारंभ होता है।
शोभा
वृषभ-स्थिता इन माताजी के दाहिने हाथ में त्रिशूल और बाएँ हाथ में कमल-पुष्प सुशोभित है। अपने पूर्व जन्म में ये प्रजापति दक्ष की कन्या के रूप में उत्पन्न हुई थीं। तब इनका नाम 'सती' था। इनका विवाह भगवान शंकरजी से हुआ था।
कथा
एक बार प्रजापति दक्ष ने एक बहुत बड़ा यज्ञ किया। इसमें उन्होंने सारे देवताओं को अपना-अपना यज्ञ-भाग प्राप्त करने के लिए निमंत्रित किया, किन्तु शंकरजी को उन्होंने इस यज्ञ में निमंत्रित नहीं किया। सती ने जब सुना कि उनके पिता एक अत्यंत विशाल यज्ञ का अनुष्ठान कर रहे हैं, तब वहाँ जाने के लिए उनका मन विकल हो उठा।
अपनी यह इच्छा उन्होंने शंकरजी को बताई। सारी बातों पर विचार करने के बाद उन्होंने कहा- प्रजापति दक्ष किसी कारणवश हमसे रुष्ट हैं। अपने यज्ञ में उन्होंने सारे देवताओं को निमंत्रित किया है। उनके यज्ञ-भाग भी उन्हें समर्पित किए हैं, किन्तु हमें जान-बूझकर नहीं बुलाया है। कोई सूचना तक नहीं भेजी है। ऐसी स्थिति में तुम्हारा वहाँ जाना किसी प्रकार भी श्रेयस्कर नहीं होगा।'
शंकरजी के इस उपदेश से सती का प्रबोध नहीं हुआ। पिता का यज्ञ देखने, वहाँ जाकर माता और बहनों से मिलने की उनकी व्यग्रता किसी प्रकार भी कम न हो सकी। उनका प्रबल आग्रह देखकर भगवान शंकरजी ने उन्हें वहाँ जाने की अनुमति दे दी।
सती ने पिता के घर पहुँचकर देखा कि कोई भी उनसे आदर और प्रेम के साथ बातचीत नहीं कर रहा है। सारे लोग मुँह फेरे हुए हैं। केवल उनकी माता ने स्नेह से उन्हें गले लगाया। बहनों की बातों में व्यंग्य और उपहास के भाव भरे हुए थे।
परिजनों के इस व्यवहार से उनके मन को बहुत क्लेश पहुँचा। उन्होंने यह भी देखा कि वहाँ चतुर्दिक भगवान शंकरजी के प्रति तिरस्कार का भाव भरा हुआ है। दक्ष ने उनके प्रति कुछ अपमानजनक वचन भी कहे। यह सब देखकर सती का हृदय क्षोभ, ग्लानि और क्रोध से संतप्त हो उठा। उन्होंने सोचा भगवान शंकरजी की बात न मान, यहाँ आकर मैंने बहुत बड़ी गलती की है।
वे अपने पति भगवान शंकर के इस अपमान को सह न सकीं। उन्होंने अपने उस रूप को तत्क्षण वहीं योगाग्नि द्वारा जलाकर भस्म कर दिया। वज्रपात के समान इस दारुण-दुःखद घटना को सुनकर शंकरजी ने क्रुद्ध होअपने गणों को भेजकर दक्ष के उस यज्ञ का पूर्णतः विध्वंस करा दिया।
सती ने योगाग्नि द्वारा अपने शरीर को भस्म कर अगले जन्म में शैलराज हिमालय की पुत्री के रूप में जन्म लिया। इस बार वे 'शैलपुत्री' नाम से विख्यात हुर्ईं। पार्वती, हैमवती भी उन्हीं के नाम हैं। उपनिषद् की एक कथा के अनुसार इन्हीं ने हैमवती स्वरूप से देवताओं का गर्व-भंजन किया था।
उपसंहार
'शैलपुत्री' देवी का विवाह भी शंकरजी से ही हुआ। पूर्वजन्म की भाँति इस जन्म में भी वे शिवजी की ही अर्द्धांगिनी बनीं। नवदुर्गाओं में प्रथम शैलपुत्री दुर्गा का महत्व और शक्तियाँ अनंत हैं।
श्री ब्रह्मचारिणी
नवरात्र पर्व के दूसरे दिन माँ ब्रह्मचारिणी की पूजा-अर्चना की जाती है। साधक इस दिन अपने मन को माँ के चरणों में लगाते हैं। ब्रह्म का अर्थ है तपस्या और चारिणी यानी आचरण करने वाली। इस प्रकार ब्रह्मचारिणी का अर्थ हुआ तप का आचरण करने वाली। इनके दाहिने हाथ में जप की माला एवं बाएँ हाथ में कमण्डल रहता है।
शक्ति
इस दिन साधक कुंडलिनी शक्ति को जागृत करने के लिए भी साधना करते हैं। जिससे उनका जीवन सफल हो सके और अपने सामने आने वाली किसी भी प्रकार की बाधा का सामना आसानी से कर सकें।
फल
माँ दुर्गाजी का यह दूसरा स्वरूप भक्तों और सिद्धों को अनन्तफल देने वाला है। इनकी उपासना से मनुष्य में तप, त्याग, वैराग्य, सदाचार, संयम की वृद्धि होती है। जीवन के कठिन संघर्षों में भी उसका मन कर्तव्य-पथ से विचलित नहीं होता।
माँ ब्रह्मचारिणी देवी की कृपा से उसे सर्वत्र सिद्धि और विजय की प्राप्ति होती है। दुर्गा पूजा के दूसरे दिन इन्हीं के स्वरूप की उपासना की जाती है। इस दिन साधक का मन ‘स्वाधिष्ठान ’चक्र में शिथिल होता है। इस चक्र में अवस्थित मनवाला योगी उनकी कृपा और भक्ति प्राप्त करता है।
इस दिन ऐसी कन्याओं का पूजन किया जाता है कि जिनका विवाह तय हो गया है लेकिन अभी शादी नहीं हुई है। इन्हें अपने घर बुलाकर पूजन के पश्चात भोजन कराकर वस्त्र, पात्र आदि भेंट किए जाते हैं।
उपासना
प्रत्येक सर्वसाधारण के लिए आराधना योग्य यह श्लोक सरल और स्पष्ट है। माँ जगदम्बे की भक्ति पाने के लिए इसे कंठस्थ कर नवरात्रि में द्वितीय दिन इसका जाप करना चाहिए।
या देवी सर्वभूतेषु माँ ब्रह्मचारिणी रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।
अर्थ : हे माँ! सर्वत्र विराजमान और ब्रह्मचारिणी के रूप में प्रसिद्ध अम्बे, आपको मेरा बार-बार प्रणाम है। या मैं आपको बारंबार प्रणाम करता हूँ।
श्री चंद्रघंटा
माँ दुर्गाजी की तीसरी शक्ति का नाम चंद्रघंटा है। नवरात्रि उपासना में तीसरे दिन की पूजा का अत्यधिक महत्व है और इस दिन इन्हीं के विग्रह का पूजन-आराधन किया जाता है। इस दिन साधक का मन 'मणिपूर' चक्र में प्रविष्ट होता है।
माँ चंद्रघंटा की कृपा से अलौकिक वस्तुओं के दर्शन होते हैं, दिव्य सुगंधियों का अनुभव होता है तथा विविध प्रकार की दिव्य ध्वनियाँ सुनाई देती हैं। ये क्षण साधक के लिए अत्यंत सावधान रहने के होते हैं।
स्वरूप
माँ का यह स्वरूप परम शांतिदायक और कल्याणकारी है। इनके मस्तक में घंटे का आकार का अर्धचंद्र है, इसी कारण से इन्हें चंद्रघंटा देवी कहा जाता है। इनके शरीर का रंग स्वर्ण के समान चमकीला है। इनके दस हाथ हैं। इनके दसों हाथों में खड्ग आदि शस्त्र तथा बाण आदि अस्त्र विभूषित हैं। इनका वाहन सिंह है। इनकी मुद्रा युद्ध के लिए उद्यत रहने की होती है।
कृपा
मां चंद्रघंटा की कृपा से साधक के समस्त पाप और बाधाएँ विनष्ट हो जाती हैं। इनकी आराधना सद्यः फलदायी है। माँ भक्तों के कष्ट का निवारण शीघ्र ही कर देती हैं। इनका उपासक सिंह की तरह पराक्रमी और निर्भय हो जाता है। इनके घंटे की ध्वनि सदा अपने भक्तों को प्रेतबाधा से रक्षा करती है। इनका ध्यान करते ही शरणागत की रक्षा के लिए इस घंटे की ध्वनि निनादित हो उठती है।
माँ का स्वरूप अत्यंत सौम्यता एवं शांति से परिपूर्ण रहता है। इनकी आराधना से वीरता-निर्भयता के साथ ही सौम्यता एवं विनम्रता का विकास होकर मुख, नेत्र तथा संपूर्ण काया में कांति-गुण की वृद्धि होती है। स्वर में दिव्य, अलौकिक माधुर्य का समावेश हो जाता है। माँ चंद्रघंटा के भक्त और उपासक जहाँ भी जाते हैं लोग उन्हें देखकर शांति और सुख का अनुभव करते हैं।
माँ के आराधक के शरीर से दिव्य प्रकाशयुक्त परमाणुओं का अदृश्य विकिरण होता रहता है। यह दिव्य क्रिया असाधारण चक्षुओं से दिखाई नहीं देती, किन्तु साधक और उसके संपर्क में आने वाले लोग इस बात का अनुभव भली-भाँति करते रहते हैं।
साधना
हमें चाहिए कि अपने मन, वचन, कर्म एवं काया को विहित विधि-विधान के अनुसार पूर्णतः परिशुद्ध एवं पवित्र करके माँ चंद्रघंटा के शरणागत होकर उनकी उपासना-आराधना में तत्पर हों। उनकी उपासना से हम समस्त सांसारिक कष्टों से विमुक्त होकर सहज ही परमपद के अधिकारी बन सकते हैं।
हमें निरंतर उनके पवित्र विग्रह को ध्यान में रखते हुए साधना की ओर अग्रसर होने का प्रयत्न करना चाहिए। उनका ध्यान हमारे इहलोक और परलोक दोनों के लिए परम कल्याणकारी और सद्गति देने वाला है।
प्रत्येक सर्वसाधारण के लिए आराधना योग्य यह श्लोक सरल और स्पष्ट है। माँ जगदम्बे की भक्ति पाने के लिए इसे कंठस्थ कर नवरात्रि में तृतीय दिन इसका जाप करना चाहिए।
उपासना
या देवी सर्वभूतेषु माँ चंद्रघंटा रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।
अर्थ : हे माँ! सर्वत्र विराजमान और चंद्रघंटा के रूप में प्रसिद्ध अम्बे, आपको मेरा बार-बार प्रणाम है। या मैं आपको बारंबार प्रणाम करता हूँ। हे माँ, मुझे सब पापों से मुक्ति प्रदान करें।
इस दिन सांवली रंग की ऐसी विवाहित महिला जिसके चेहरे पर तेज हो, को बुलाकर उनका पूजन करना चाहिए। भोजन में दही और हलवा खिलाएँ। भेंट में कलश और मंदिर की घंटी भेंट करना चाहिए।
श्री कुष्मांडा
नवरात्र-पूजन के चौथे दिन कूष्माण्डा देवी के स्वरूप की ही उपासना की जाती है। इस दिन साधक का मन 'अदाहत' चक्र में अवस्थित होता है। अतः इस दिन उसे अत्यंत पवित्र और अचंचल मन से कूष्माण्डा देवी के स्वरूप को ध्यान में रखकर पूजा-उपासना के कार्य में लगना चाहिए।
जब सृष्टि का अस्तित्व नहीं था, तब इन्हीं देवी ने ब्रह्मांड की रचना की थी। अतः ये ही सृष्टि की आदि-स्वरूपा, आदिशक्ति हैं। इनका निवास सूर्यमंडल के भीतर के लोक में है। वहाँ निवास कर सकने की क्षमता और शक्ति केवल इन्हीं में है। इनके शरीर की कांति और प्रभा भी सूर्य के समान ही दैदीप्यमान हैं।
इनके तेज और प्रकाश से दसों दिशाएँ प्रकाशित हो रही हैं। ब्रह्मांड की सभी वस्तुओं और प्राणियों में अवस्थित तेज इन्हीं की छाया है। माँ की आठ भुजाएँ हैं। अतः ये अष्टभुजा देवी के नाम से भी विख्यात हैं। इनके सात हाथों में क्रमशः कमंडल, धनुष, बाण, कमल-पुष्प, अमृतपूर्ण कलश, चक्र तथा गदा है। आठवें हाथ में सभी सिद्धियों और निधियों को देने वाली जपमाला है। इनका वाहन सिंह है।
महिमा
माँ कूष्माण्डा की उपासना से भक्तों के समस्त रोग-शोक मिट जाते हैं। इनकी भक्ति से आयु, यश, बल और आरोग्य की वृद्धि होती है। माँ कूष्माण्डा अत्यल्प सेवा और भक्ति से प्रसन्न होने वाली हैं। यदि मनुष्य सच्चे हृदय से इनका शरणागत बन जाए तो फिर उसे अत्यन्त सुगमता से परम पद की प्राप्ति हो सकती है।
विधि-विधान से माँ के भक्ति-मार्ग पर कुछ ही कदम आगे बढ़ने पर भक्त साधक को उनकी कृपा का सूक्ष्म अनुभव होने लगता है। यह दुःख स्वरूप संसार उसके लिए अत्यंत सुखद और सुगम बन जाता है। माँ की उपासना मनुष्य को सहज भाव से भवसागर से पार उतारने के लिए सर्वाधिक सुगम और श्रेयस्कर मार्ग है।
माँ कूष्माण्डा की उपासना मनुष्य को आधियों-व्याधियों से सर्वथा विमुक्त करके उसे सुख, समृद्धि और उन्नति की ओर ले जाने वाली है। अतः अपनी लौकिक, पारलौकिक उन्नति चाहने वालों को इनकी उपासना में सदैव तत्पर रहना चाहिए।
उपासना
चतुर्थी के दिन माँ कूष्मांडा की आराधना की जाती है। इनकी उपासना से सिद्धियों में निधियों को प्राप्त कर समस्त रोग-शोक दूर होकर आयु-यश में वृद्धि होती है। प्रत्येक सर्वसाधारण के लिए आराधना योग्य यह श्लोक सरल और स्पष्ट है। माँ जगदम्बे की भक्ति पाने के लिए इसे कंठस्थ कर नवरात्रि में चतुर्थ दिन इसका जाप करना चाहिए।
या देवी सर्वभूतेषु माँ कूष्माण्डा रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।
अर्थ : हे माँ! सर्वत्र विराजमान और कूष्माण्डा के रूप में प्रसिद्ध अम्बे, आपको मेरा बार-बार प्रणाम है। या मैं आपको बारंबार प्रणाम करता हूँ। हे माँ, मुझे सब पापों से मुक्ति प्रदान करें।
अपनी मंद, हल्की हँसी द्वारा अंड अर्थात ब्रह्मांड को उत्पन्न करने के कारण इन्हें कूष्माण्डा देवी के रूप में पूजा जाता है। संस्कृत भाषा में कूष्माण्डा को कुम्हड़ कहते हैं। बलियों में कुम्हड़े की बलि इन्हें सर्वाधिक प्रिय है। इस कारण से भी माँ कूष्माण्डा कहलाती हैं।
पूजन
इस दिन जहाँ तक संभव हो बड़े माथे वाली तेजस्वी विवाहित महिला का पूजन करना चाहिए। उन्हें भोजन में दही, हलवा खिलाना श्रेयस्कर है। इसके बाद फल, सूखे मेवे और सौभाग्य का सामान भेंट करना चाहिए। जिससे माताजी प्रसन्न होती हैं। और मनवांछित फलों की प्राप्ति होती है।
श्री स्कंदमाता
नवरात्रि का पाँचवाँ दिन स्कंदमाता की उपासना का दिन होता है। मोक्ष के द्वार खोलने वाली माता परम सुखदायी हैं। माँ अपने भक्तों की समस्त इच्छाओं की पूर्ति करती हैं।
कथा
भगवान स्कंद 'कुमार कार्तिकेय' नाम से भी जाने जाते हैं। ये प्रसिद्ध देवासुर संग्राम में देवताओं के सेनापति बने थे। पुराणों में इन्हें कुमार और शक्ति कहकर इनकी महिमा का वर्णन किया गया है। इन्हीं भगवान स्कंद की माता होने के कारण माँ दुर्गाजी के इस स्वरूप को स्कंदमाता के नाम से जाना जाता है।
स्वरूप
स्कंदमाता की चार भुजाएँ हैं। इनके दाहिनी तरफ की नीचे वाली भुजा, जो ऊपर की ओर उठी हुई है, उसमें कमल पुष्प है। बाईं तरफ की ऊपर वाली भुजा में वरमुद्रा में तथा नीचे वाली भुजा जो ऊपर की ओर उठी है उसमें भी कमल पुष्प ली हुई हैं। इनका वर्ण पूर्णतः शुभ्र है। ये कमल के आसन पर विराजमान रहती हैं। इसी कारण इन्हें पद्मासना देवी भी कहा जाता है। सिंह भी इनका वाहन है।
महत्व
नवरात्रि-पूजन के पाँचवें दिन का शास्त्रों में पुष्कल महत्व बताया गया है। इस चक्र में अवस्थित मन वाले साधक की समस्त बाह्य क्रियाओं एवं चित्तवृत्तियों का लोप हो जाता है। वह विशुद्ध चैतन्य स्वरूप की ओर अग्रसर हो रहा होता है।
साधक का मन समस्त लौकिक, सांसारिक, मायिक बंधनों से विमुक्त होकर पद्मासना माँ स्कंदमाता के स्वरूप में पूर्णतः तल्लीन होता है। इस समय साधक को पूर्ण सावधानी के साथ उपासना की ओर अग्रसर होना चाहिए। उसे अपनी समस्त ध्यान-वृत्तियों को एकाग्र रखते हुए साधना के पथ पर आगे बढ़ना चाहिए।
माँ स्कंदमाता की उपासना से भक्त की समस्त इच्छाएँ पूर्ण हो जाती हैं। इस मृत्युलोक में ही उसे परम शांति और सुख का अनुभव होने लगता है। उसके लिए मोक्ष का द्वार स्वमेव सुलभ हो जाता है। स्कंदमाता की उपासना से बालरूप स्कंद भगवान की उपासना भी स्वमेव हो जाती है। यह विशेषता केवल इन्हीं को प्राप्त है, अतः साधक को स्कंदमाता की उपासना की ओर विशेष ध्यान देना चाहिए।
सूर्यमंडल की अधिष्ठात्री देवी होने के कारण इनका उपासक अलौकिक तेज एवं कांति से संपन्न हो जाता है। एक अलौकिक प्रभामंडल अदृश्य भाव से सदैव उसके चतुर्दिक् परिव्याप्त रहता है। यह प्रभामंडल प्रतिक्षण उसके योगक्षेम का निर्वहन करता रहता है।
हमें एकाग्रभाव से मन को पवित्र रखकर माँ की शरण में आने का प्रयत्न करना चाहिए। इस घोर भवसागर के दुःखों से मुक्ति पाकर मोक्ष का मार्ग सुलभ बनाने का इससे उत्तम उपाय दूसरा नहीं है।
उपासना
प्रत्येक सर्वसाधारण के लिए आराधना योग्य यह श्लोक सरल और स्पष्ट है। माँ जगदम्बे की भक्ति पाने के लिए इसे कंठस्थ कर नवरात्रि में पाँचवें दिन इसका जाप करना चाहिए।
या देवी सर्वभूतेषु माँ स्कंदमाता रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।
अर्थ : हे माँ! सर्वत्र विराजमान और स्कंदमाता के रूप में प्रसिद्ध अम्बे, आपको मेरा बार-बार प्रणाम है। या मैं आपको बारंबार प्रणाम करता हूँ। हे माँ, मुझे सब पापों से मुक्ति प्रदान करें। इस दिन साधक का मन 'विशुद्ध' चक्र में अवस्थित होता है। इनके विग्रह में भगवान स्कंदजी बालरूप में इनकी गोद में बैठे होते हैं।
श्री कात्यायनी
माँ दुर्गा के छठे स्वरूप का नाम कात्यायनी है। उस दिन साधक का मन 'आज्ञा' चक्र में स्थित होता है। योगसाधना में इस आज्ञा चक्र का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है। इस चक्र में स्थित मन वाला साधक माँ कात्यायनी के चरणों में अपना सर्वस्व निवेदित कर देता है। परिपूर्ण आत्मदान करने वाले ऐसे भक्तों को सहज भाव से माँ के दर्शन प्राप्त हो जाते हैं।
कथा
माँ का नाम कात्यायनी कैसे पड़ा इसकी भी एक कथा है- कत नामक एक प्रसिद्ध महर्षि थे। उनके पुत्र ऋषि कात्य हुए। इन्हीं कात्य के गोत्र में विश्वप्रसिद्ध महर्षि कात्यायन उत्पन्न हुए थे। इन्होंने भगवती पराम्बा की उपासना करते हुए बहुत वर्षों तक बड़ी कठिन तपस्या की थी। उनकी इच्छा थी माँ भगवती उनके घर पुत्री के रूप में जन्म लें। माँ भगवती ने उनकी यह प्रार्थना स्वीकार कर ली।
कुछ समय पश्चात जब दानव महिषासुर का अत्याचार पृथ्वी पर बढ़ गया तब भगवान ब्रह्मा, विष्णु, महेश तीनों ने अपने-अपने तेज का अंश देकर महिषासुर के विनाश के लिए एक देवी को उत्पन्न किया। महर्षि कात्यायन ने सर्वप्रथम इनकी पूजा की। इसी कारण से यह कात्यायनी कहलाईं।
ऐसी भी कथा मिलती है कि ये महर्षि कात्यायन के वहाँ पुत्री रूप में उत्पन्न हुई थीं। आश्विन कृष्ण चतुर्दशी को जन्म लेकर शुक्त सप्तमी, अष्टमी तथा नवमी तक तीन दिन इन्होंने कात्यायन ऋषि की पूजा ग्रहण कर दशमी को महिषासुर का वध किया था।
माँ कात्यायनी अमोघ फलदायिनी हैं। भगवान कृष्ण को पतिरूप में पाने के लिए ब्रज की गोपियों ने इन्हीं की पूजा कालिन्दी-यमुना के तट पर की थी। ये ब्रजमंडल की अधिष्ठात्री देवी के रूप में प्रतिष्ठित हैं।
माँ कात्यायनी का स्वरूप अत्यंत चमकीला और भास्वर है। इनकी चार भुजाएँ हैं। माताजी का दाहिनी तरफ का ऊपरवाला हाथ अभयमुद्रा में तथा नीचे वाला वरमुद्रा में है। बाईं तरफ के ऊपरवाले हाथ में तलवार और नीचे वाले हाथ में कमल-पुष्प सुशोभित है। इनका वाहन सिंह है।
माँ कात्यायनी की भक्ति और उपासना द्वारा मनुष्य को बड़ी सरलता से अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष चारों फलों की प्राप्ति हो जाती है। वह इस लोक में स्थित रहकर भी अलौकिक तेज और प्रभाव से युक्त हो जाता है।
उपासना
नवरात्रि का छठा दिन माँ कात्यायनी की उपासना का दिन होता है। इनके पूजन से अद्भुत शक्ति का संचार होता है व दुश्मनों का संहार करने में ये सक्षम बनाती हैं। इनका ध्यान गोधुली बेला में करना होता है। प्रत्येक सर्वसाधारण के लिए आराधना योग्य यह श्लोक सरल और स्पष्ट है। माँ जगदम्बे की भक्ति पाने के लिए इसे कंठस्थ कर नवरात्रि में छठे दिन इसका जाप करना चाहिए।
'या देवी सर्वभूतेषु शक्ति रूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:॥
अर्थ : हे माँ! सर्वत्र विराजमान और शक्ति -रूपिणी प्रसिद्ध अम्बे, आपको मेरा बार-बार प्रणाम है। या मैं आपको बारंबार प्रणाम करता हूँ।
इसके अतिरिक्त जिन कन्याओ के विवाह मे विलम्ब हो रहा हो,उन्हे इस दिन माँ कात्यायनी की उपासना अवश्य करनी चाहिए, जिससे उन्हे मनोवान्छित वर की प्राप्ति होती है।
विवाह के लिये कात्यायनी मन्त्र-- ॐ कात्यायनी महामाये महायोगिन्यधीश्वरि ! नंदगोपसुतम् देवि पतिम् मे कुरुते नम:।
महिमा
माँ को जो सच्चे मन से याद करता है उसके रोग, शोक, संताप, भय आदि सर्वथा विनष्ट हो जाते हैं। जन्म-जन्मांतर के पापों को विनष्ट करने के लिए माँ की शरणागत होकर उनकी पूजा-उपासना के लिए तत्पर होना चाहिए।
श्री कालरात्रि
माँ दुर्गाजी की सातवीं शक्ति कालरात्रि के नाम से जानी जाती हैं। दुर्गापूजा के सातवें दिन माँ कालरात्रि की उपासना का विधान है। इस दिन साधक का मन 'सहस्रार' चक्र में स्थित रहता है। इसके लिए ब्रह्मांड की समस्त सिद्धियों का द्वार खुलने लगता है।
सहस्रार चक्र में स्थित साधक का मन पूर्णतः माँ कालरात्रि के स्वरूप में अवस्थित रहता है। उनके साक्षात्कार से मिलने वाले पुण्य का वह भागी हो जाता है। उसके समस्त पापों-विघ्नों का नाश हो जाता है। उसे अक्षय पुण्य-लोकों की प्राप्ति होती है।
वर्णन
इनके शरीर का रंग घने अंधकार की तरह एकदम काला है। सिर के बाल बिखरे हुए हैं। गले में विद्युत की तरह चमकने वाली माला है। इनके तीन नेत्र हैं। ये तीनों नेत्र ब्रह्मांड के सदृश गोल हैं। इनसे विद्युत के समान चमकीली किरणें निःसृत होती रहती हैं।
माँ की नासिका के श्वास-प्रश्वास से अग्नि की भयंकर ज्वालाएँ निकलती रहती हैं। इनका वाहन गर्दभ (गदहा) है। ये ऊपर उठे हुए दाहिने हाथ की वरमुद्रा से सभी को वर प्रदान करती हैं। दाहिनी तरफ का नीचे वाला हाथ अभयमुद्रा में है। बाईं तरफ के ऊपर वाले हाथ में लोहे का काँटा तथा नीचे वाले हाथ में खड्ग (कटार) है।
महिमा
माँ कालरात्रि का स्वरूप देखने में अत्यंत भयानक है, लेकिन ये सदैव शुभ फल ही देने वाली हैं। इसी कारण इनका एक नाम 'शुभंकारी' भी है। अतः इनसे भक्तों को किसी प्रकार भी भयभीत अथवा आतंकित होने की आवश्यकता नहीं है।
माँ कालरात्रि दुष्टों का विनाश करने वाली हैं। दानव, दैत्य, राक्षस, भूत, प्रेत आदि इनके स्मरण मात्र से ही भयभीत होकर भाग जाते हैं। ये ग्रह-बाधाओं को भी दूर करने वाली हैं। इनके उपासकों को अग्नि-भय, जल-भय, जंतु-भय, शत्रु-भय, रात्रि-भय आदि कभी नहीं होते। इनकी कृपा से वह सर्वथा भय-मुक्त हो जाता है।
माँ कालरात्रि के स्वरूप-विग्रह को अपने हृदय में अवस्थित करके मनुष्य को एकनिष्ठ भाव से उपासना करनी चाहिए। यम, नियम, संयम का उसे पूर्ण पालन करना चाहिए। मन, वचन, काया की पवित्रता रखनी चाहिए। वे शुभंकारी देवी हैं। उनकी उपासना से होने वाले शुभों की गणना नहीं की जा सकती। हमें निरंतर उनका स्मरण, ध्यान और पूजा करना चाहिए।
नवरात्रि दिवस== नवरात्रि की सप्तमी के दिन माँ कालरात्रि की आराधना का विधान है। इनकी पूजा-अर्चना करने से सभी पापों से मुक्ति मिलती है व दुश्मनों का नाश होता है, तेज बढ़ता है। प्रत्येक सर्वसाधारण के लिए आराधना योग्य यह श्लोक सरल और स्पष्ट है। माँ जगदम्बे की भक्ति पाने के लिए इसे कंठस्थ कर नवरात्रि में सातवें दिन इसका जाप करना चाहिए।
मंत्र
या देवी सर्वभूतेषु माँ कालरात्रि रूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।
अर्थ : हे माँ! सर्वत्र विराजमान और कालरात्रि के रूप में प्रसिद्ध अम्बे, आपको मेरा बार-बार प्रणाम है। या मैं आपको बारंबार प्रणाम करता हूँ। हे माँ, मुझे पाप से मुक्ति प्रदान कर।
श्री महागौरी
माँ दुर्गाजी की आठवीं शक्ति का नाम महागौरी है। दुर्गापूजा के आठवें दिन महागौरी की उपासना का विधान है। इनकी शक्ति अमोघ और सद्यः फलदायिनी है। इनकी उपासना से भक्तों को सभी कल्मष धुल जाते हैं, पूर्वसंचित पाप भी विनष्ट हो जाते हैं। भविष्य में पाप-संताप, दैन्य-दुःख उसके पास कभी नहीं जाते। वह सभी प्रकार से पवित्र और अक्षय पुण्यों का अधिकारी हो जाता है।
स्वरूप
इनका वर्ण पूर्णतः गौर है। इस गौरता की उपमा शंख, चंद्र और कुंद के फूल से दी गई है। इनकी आयु आठ वर्ष की मानी गई है- 'अष्टवर्षा भवेद् गौरी।' इनके समस्त वस्त्र एवं आभूषण आदि भी श्वेत हैं।
महागौरी की चार भुजाएँ हैं। इनका वाहन वृषभ है। इनके ऊपर के दाहिने हाथ में अभय मुद्रा और नीचे वाले दाहिने हाथ में त्रिशूल है। ऊपरवाले बाएँ हाथ में डमरू और नीचे के बाएँ हाथ में वर-मुद्रा हैं। इनकी मुद्रा अत्यंत शांत है।
कथा
अपने पार्वती रूप में इन्होंने भगवान शिव को पति-रूप में प्राप्त करने के लिए बड़ी कठोर तपस्या की थी। इनकी प्रतिज्ञा थी कि 'व्रियेऽहं वरदं शम्भुं नान्यं देवं महेश्वरात्।' (नारद पांचरात्र)। गोस्वामी तुलसीदासजी के अनुसार भी इन्होंने भगवान शिव के वरण के लिए कठोर संकल्प लिया था-
जन्म कोटि लगि रगर हमारी। बरऊँ संभु न त रहऊँ कुँआरी॥
इस कठोर तपस्या के कारण इनका शरीर एकदम काला पड़ गया। इनकी तपस्या से प्रसन्न और संतुष्ट होकर जब भगवान शिव ने इनके शरीर को गंगाजी के पवित्र जल से मलकर धोया तब वह विद्युत प्रभा के समान अत्यंत कांतिमान-गौर हो उठा। तभी से इनका नाम महागौरी पड़ा।
महत्व
माँ महागौरी का ध्यान, स्मरण, पूजन-आराधना भक्तों के लिए सर्वविध कल्याणकारी है। हमें सदैव इनका ध्यान करना चाहिए। इनकी कृपा से अलौकिक सिद्धियों की प्राप्ति होती है। मन को अनन्य भाव से एकनिष्ठ कर मनुष्य को सदैव इनके ही पादारविन्दों का ध्यान करना चाहिए।
महागौरी भक्तों का कष्ट अवश्य ही दूर करती हैं। इनकी उपासना से आर्तजनों के असंभव कार्य भी संभव हो जाते हैं। अतः इनके चरणों की शरण पाने के लिए हमें सर्वविध प्रयत्न करना चाहिए।
उपासना
पुराणों में माँ महागौरी की महिमा का प्रचुर आख्यान किया गया है। ये मनुष्य की वृत्तियों को सत् की ओर प्रेरित करके असत् का विनाश करती हैं। हमें प्रपत्तिभाव से सदैव इनका शरणागत बनना चाहिए। या देवी सर्वभूतेषु माँ गौरी रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।
अर्थ : हे माँ! सर्वत्र विराजमान और माँ गौरी के रूप में प्रसिद्ध अम्बे, आपको मेरा बार-बार प्रणाम है। हे माँ, मुझे सुख-समृद्धि प्रदान करो।
श्री सिद्धिदात्री
माँ दुर्गाजी की नौवीं शक्ति का नाम सिद्धिदात्री हैं। ये सभी प्रकार की सिद्धियों को देने वाली हैं। नवरात्र-पूजन के नौवें दिन इनकी उपासना की जाती है। इस दिन शास्त्रीय विधि-विधान और पूर्ण निष्ठा के साथ साधना करने वाले साधक को सभी सिद्धियों की प्राप्ति हो जाती है। सृष्टि में कुछ भी उसके लिए अगम्य नहीं रह जाता है। ब्रह्मांड पर पूर्ण विजय प्राप्त करने की सामर्थ्य उसमें आ जाती है।
सिद्धियां
मार्कण्डेय पुराण के अनुसार अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व और वशित्व- ये आठ सिद्धियाँ होती हैं। ब्रह्मवैवर्त पुराण के श्रीकृष्ण जन्म खंड में यह संख्या अठारह बताई गई है। इनके नाम इस प्रकार हैं-
माँ सिद्धिदात्री भक्तों और साधकों को ये सभी सिद्धियाँ प्रदान करने में समर्थ हैं। देवीपुराण के अनुसार भगवान शिव ने इनकी कृपा से ही इन सिद्धियों को प्राप्त किया था। इनकी अनुकम्पा से ही भगवान शिव का आधा शरीर देवी का हुआ था। इसी कारण वे लोक में 'अर्द्धनारीश्वर' नाम से प्रसिद्ध हुए।
माँ सिद्धिदात्री चार भुजाओं वाली हैं। इनका वाहन सिंह है। ये कमल पुष्प पर भी आसीन होती हैं। इनकी दाहिनी तरफ के नीचे वाले हाथ में कमलपुष्प है।
प्रत्येक मनुष्य का यह कर्तव्य है कि वह माँ सिद्धिदात्री की कृपा प्राप्त करने का निरंतर प्रयत्न करे। उनकी आराधना की ओर अग्रसर हो। इनकी कृपा से अनंत दुख रूप संसार से निर्लिप्त रहकर सारे सुखों का भोग करता हुआ वह मोक्ष को प्राप्त कर सकता है।
नवदुर्गाओं में
नवदुर्गाओं में माँ सिद्धिदात्री अंतिम हैं। अन्य आठ दुर्गाओं की पूजा उपासना शास्त्रीय विधि-विधान के अनुसार करते हुए भक्त दुर्गा पूजा के नौवें दिन इनकी उपासना में प्रवत्त होते हैं। इन सिद्धिदात्री माँ की उपासना पूर्ण कर लेने के बाद भक्तों और साधकों की लौकिक, पारलौकिक सभी प्रकार की कामनाओं की पूर्ति हो जाती है। सिद्धिदात्री माँ के कृपापात्र भक्त के भीतर कोई ऐसी कामना शेष बचती ही नहीं है, जिसे वह पूर्ण करना चाहे। वह सभी सांसारिक इच्छाओं, आवश्यकताओं और स्पृहाओं से ऊपर उठकर मानसिक रूप से माँ भगवती के दिव्य लोकों में विचरण करता हुआ उनके कृपा-रस-पीयूष का निरंतर पान करता हुआ, विषय-भोग-शून्य हो जाता है। माँ भगवती का परम सान्निध्य ही उसका सर्वस्व हो जाता है। इस परम पद को पाने के बाद उसे अन्य किसी भी वस्तु की आवश्यकता नहीं रह जाती। माँ के चरणों का यह सान्निध्य प्राप्त करने के लिए भक्त को निरंतर नियमनिष्ठ रहकर उनकी उपासना करने का नियम कहा गया है। ऐसा माना गया है कि माँ भगवती का स्मरण, ध्यान, पूजन, हमें इस संसार की असारता का बोध कराते हुए वास्तविक परम शांतिदायक अमृत पद की ओर ले जाने वाला है। विश्वास किया जाता है कि इनकी आराधना से भक्त को अणिमा , लधिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, महिमा, ईशित्व, सर्वकामावसायिता, दूर श्रवण, परकामा प्रवेश, वाकसिद्ध, अमरत्व भावना सिद्धि आदि समस्त सिद्धियों नव निधियों की प्राप्ति होती है। ऐसा कहा गया है कि यदि कोई इतना कठिन तप न कर सके तो अपनी शक्तिनुसार जप, तप, पूजा-अर्चना कर माँ की कृपा का पात्र बन सकता ही है। माँ की आराधना के लिए इस श्लोक का प्रयोग होता है। माँ जगदम्बे की भक्ति पाने के लिए इसे कंठस्थ कर नवरात्रि में नवमी के दिन इसका जाप करने का नियम है।
स्तुति
या देवी सर्वभूतेषु माँ सिद्धिदात्री रूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।
अर्थ: हे माँ! सर्वत्र विराजमान और माँ सिद्धिदात्री के रूप में प्रसिद्ध अम्बे, आपको मेरा बार-बार प्रणाम है। या मैं आपको बारंबार प्रणाम करता हूँ। हे माँ, मुझे अपनी कृपा का पात्र बनाओ।
गांधी जी का व्यक्तित्व बहुआयामी था - सुरेश सोनी
चित्रकूट 2 अक्टूबर 2013/एकात्म मानव दर्शन के महान चिन्तक प0 दीनदयाल उपाध्याय जी की स्मृति में राष्ट्रऋ़षि नानाजी देशमुख द्वारा स्थापित दीनदयाल शोध संस्थान सामाजिक पुनर्रचना के कार्यो में अपने चार सूत्रों शिक्षा, स्वास्थ्य, स्वावलंबन एवं सदाचार के माध्यम से सतत प्रयत्नशील है।स्वास्थ्य प्रकल्प के अंतर्गत आयुर्वेद, प्राकृतिक चिकित्सा एवं योग के माध्यम से चित्रकूट क्षेत्र की 50 कि0मी0 की परिधि में आने वाले ग्राम केन्द्र में आजीवन स्वास्थ्य संवर्धन की दिशा में अपनी सेवायें दे रहे आरोग्यधाम के योग एवं प्राकृतिक चिकित्सा सदन में राष्ट्रपिता महात्मा गाॅधी एवं धरतीपुत्र लालबहादुर शाष्त्री जी का जन्मोत्सव हर्षोल्लास के साथ सम्पन्न हुआ। इस कार्यक्रम के मुख्य अतिथि के दायित्व का निर्वहन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सह सरकार्यवाह मा0 सुरेश सोनी जी ने एवं अध्यक्षता मध्य प्रदेश पर्यटन विभाग के चेयरमैन मा0 मोहन यादव जी ने की।
मा0 सुरेश सोनी जी ने उपिस्थत कार्यकर्ताओं का मार्गदर्शन करते हुये कहा कि राष्ट्रऋषि नानाजी ने आरोग्यधाम की स्थापना कर प्राकृतिक एवं योग चिकित्सा के साथ-साथ आयुर्वेद को जनव्यापी बनाने के लिये दीनदयाल जी एवं गाॅधीजी को आदर्श बनाकर संकल्प लिया। आज यह प्रकल्प अपनी सेवाओं से क्षेत्र के लोगों को लाभ दे रहा है। गाॅधीजी के राजनीतिक रुप को तो लोग अधिक जानते हैं लेकिन गाॅधी जी का व्यक्तित्व बहुआयामी था इस पर लोगों का ध्यान कम जाता है। गाॅधीजी ने ग्रामों के पुनरुत्थान के लिये बहुत बडा़ काम किया और इसी दिशा में बहुत बडा़ जनसमूह उनसे प्रेरणा ले कर इस काम पर लगा, लेकिन ऐसे लोगों का कहीं नाम नहीं आता जबकि राजनीतिक क्षेत्र से नेहरु, पटेल ऐसे लोगों का नाम लोग लेते हैं। गाॅधी जी आर्थिक स्वावलंबन पर विशेष जोर देते थे इसी के लिये उन्होने कुटीर उद्योगों की दिशा में व्यवहारिक काम प्रारम्भ करवाया। वे किसी भी काम को स्वयं कर के देखते थे तब लोगों से वैसा व्यवहार आचरण करने के लिये कहते थे। प्राकृतिक चिकित्सा क्या है इस पर गाॅधी जी ने बताया यह शरीर पंचतत्व का पुतला है। शरीर में कुछ गड़बड़ होती है तो इन पाॅच तत्वों से ही उसका इलाज भी संभव है जिनका आहार विहार ठीक है उन्हें औषधि की आवश्यकता ही नही हैं। आपने आदि एवं व्याधि के बारे में भी अत्यधिक सरल भाषा में बताया। आदि है मानसिक रोग। यदि हम किसी से द्वेष करतें है तो उससे हमारा मन विकृत होता है उसी का प्रभाव हमारे शरीर पर पड़ता है और हम अस्वस्थ्य हो जाते हैं। योग एवं प्राकृतिक चिकित्सा में इसीलिये मन की प्रसन्नता की भी बात कही गयी है यदि हम मन से हर परिस्थति में प्रसन्न रहतें है तो हमारा शरीर भी स्वस्थ्य रहता है। राष्ट्रऋषि नानजी ने इस सबको दीनदयाल शोध संस्थान के माध्यम से व्यवहारिक धरातल पर करके दिखाया जिसका लाभ सभी लेाग ले रहे है।
इस अवसर पर मध्य प्रदेश पर्यटन विभाग के चेयरमैन मा0 मोहन यादव जी ने अपना उद्बोधन देते हुये कहा कि आज मेेरा बडा़ सौभाग्य है जो मैं दो महापुरुषों की जयन्ती के शुभ उपलक्ष्य में राष्ट्रऋषि नानाजी द्वारा स्थापित दीनदयाल शोध संस्थान के स्वास्थ्य प्रकल्प आरोग्यधाम में सुरेश सोनी जी के सानिध्य में उपस्थित हुआ हूॅ। चित्रकूट धाम में आरोग्यधाम जनमानस की भावना को समझकर सच्चा भारत गाॅव में बसता है इस धारणा केा लेकर गा्रम के विकास पर राष्ट्ऱऋषि नानाजी ने गाॅधी जी से प्रेरणा लेकर जोर दिया आप कहते थे भारत की आत्मा गाॅव में बसती है और गाॅव के विकास से ही राष्ट्र का विकास हो सकता है। नानाजी ने इसे प्रत्यक्ष करके दिखाया। आज इस आयोजन की सफलता तभी सिद्ध हेागी जब हम सभी राष्ट्रवासी यह संकल्प लेगें कि राष्ट्रपिता महात्मा गाॅध्ाी एवं धरतीपुत्र लालबहादुर शाष्त्री तथा राष्ट्रऋषि नानाजी ने जो कर दिखाया हम सब भी अपने-क्षेत्रों में छाटे-छोटे रुप में इस सब को व्यवहारिक धरातल पर लाने का प्रयास करेगें तो यह हम सब की इन महापुरुषों के लिये सच्ची श्रद्धांजलि होगी।कार्यक्रम के क्रम में गाॅधीजी का प्रिय भजन वैष्णव जन को तेने कहिये............... एवं रघुपति राघव राजाराम भी हुये।
इस शुभ अवसर पर दीनदयाल शोध संस्थान के संगठन सचिव अभय महाजन एवं उद्यमिता विद्यपीठ की निदेशिका डा0 नन्दिता पाठक भी उपस्थित रहीं। सर्वे भवन्तुः सुखिनः से कार्यक्रम सम्पन्न हुआ।
धार्मिक मूल्यों से अभिप्रेरित होकर मनुष्यता के मायने समझे
इंदौर। महात्मा गांधी ने देश के धार्मिक मूल्यों से अभिप्राणित होकर धर्म शक्ति का उपयोग करते हुए सभी धर्मांे से नाता जोड़ने का प्रयास किया। उनका मानना था कि हर धर्म में मनुष्यता का एक बड़ा खजाना है। ये धर्म हमें मनुष्य, ईश्वर, प्रकृति, प्राणियों आदि के प्रति वफादार होने के भाव की सजगता का अहसास कराता है, तभी हम मनुष्यता के मायनों को समझ सकते है। धर्म निरपेक्ष देश में धर्म स्थलों, अवसरों, त्यौहारों, धार्मिक भावनाओं आदि के प्रदर्शन जरूर करते रहे है, लेकिन ईश्वरीयता का अपने जीवन में कब, कहां प्रवेश हुआ है, इस पर गंभीरता से सोचना चाहिए।
उक्त विचार गांधी दर्शन के व्याख्याता और विसर्जन आश्रम के अध्यक्ष डा. करूणाकर त्रिवेदी ने व्यक्त किये। डा. त्रिवेदी आज सुबह संस्था सेवा सुरभि व्दारा प्रीतमलाल दुआ सभागृह में गांधी जयंती निमित्त आयोजित संगोष्ठी में बोल रहे थे। संगोष्ठी का विषय था- बदलता हुआ भारत और गांधी का धर्म-निरपेक्ष दर्शन। इस मौके पर विशिष्ट वक्ता बतौर देवी अहिल्या विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति डा.ए.ए. अब्बासी उपस्थित थे।
डा. त्रिवेदी ने कहा कि महात्मा गांधी मूलतः धर्म निरपेक्ष नहीं थे। उन्होंने गांधी का मानना था कि ’’मैं अपना धर्म जीता हॅू। धर्म की शपथ लेता हॅू। ये मेरा व्यक्तिगत मामला है।’’ उन्होंने कहा कि एकादश व्रत श्लोक में सर्वधर्म समभाव का उल्लेख होता है इसका तात्पर्य ईश्वर, प्रकृति, पर्यावरण आदि से तादात्म्य स्थापित करने के लिए बडे लोगों व्दारा तैयार की गई योजना से है।
प्रखर विचारक डा. ए.ए. अब्बासी ने गांधीजी के प्रसंगों का उल्लेख करते हुए कहा कि स्त्री शक्ति जागरण के लिए महिलाएं साहस नहीं करेगी तो आंदोलन को शक्ति नहीं मिल सकती। गांधीजी के व्यक्तित्व के साथ कस्तूरबा भी जुड़ी हुई थी। गांधी के व्यक्तित्व,कृतित्व और जीवन दर्शन से नैतिकता, साहस, सत्य, अहिंसा, धर्म निरपेक्षता आदि का पाठ पढ़ा जा सकता है। उनका मानना है कि मोहब्बत के आधार पर ही व्यक्ति के दिल को जीतना एक बड़ा अस्त्र है।
कार्यक्रम के प्रांरभ में गांधी के परम अनुयायी श्री किशोर गुप्ता ने भजन प्रस्तुत किया। कस्तूरबा गांधी राष्ट्रीय स्मारक ट्रस्ट की छात्राओं ने बापू के लोकप्रिय भजनों की प्रस्तुति दी। वक्ताओं का स्वागत श्री अनुराग जैन, मोहन अग्रवाल, राजेश खंडेलवाल ने किया। स्वागत उद्बोधन संस्था के वरिष्ठ सदस्य श्री अरविंद बागडी ने दिया। अतिथियों को स्मृति चिन्ह श्री कमल कलवानी, हरि अग्रवाल, अवतारसिंह सैनी ने प्रदान किये। कार्यक्रम का संचालन श्री कुमार सिध्दार्थ ने किया। कार्यक्रम के आयोजन में श्री ओम नरेडा, विशाल डागरिया, राजेश खंडेलवाल का उल्लेखनीय योगदान रहा। सर्वधर्म प्रार्थना से कार्यक्रम का समापन हुआ। कार्यक्रम में डा. सरोजकुमार, पूर्व महापौर उमाशशि शर्मा, बाबूभाई महिदपुरवाला, राजेश चेलावत, डा. राजीव शर्मा, रेणु पंत, डा. शशिकांत भट्ट, डा. पुष्पेन्द्र दुबे, अतुल सेठ, अजबे गुरूजी सहित सेंट उमर विद्यालय के छात्र आदि बड़ी संख्या में उपस्थित थे।
अंतर्राष्ट्रीय अहिंसा दिवस के अवसर पर महात्मा गांधी को श्रद्धांजलि
लोग अपने-अपने तरीके से एक-दूसरे को बांध लेते हैं। कहीं प्रेम से बांधा जाता है तो कहीं अपनेपन में। कुछ लोग दुष्मनी के कारण भी बंधे हुए रहते हैं। बंधन का एक और तरीका है- कसम का बंधन। भारत में कसम देने की लोक 2 अक्तूबर को गांधी जयंती मनाई जाती है जो महात्मा गांधी अर्थात राष्ट्र के बापू का जन्मदिवस है। मोहनदास करमचंद गांधी का जन्म 2 अक्तूबर 1869 को गुजरात के पोरबंदर नामक स्थान पर हुआ था और उन्हें उनके नजदीकी मित्रों और जानकारों, अन्य अधिकांश भारतीयों द्वारा, जिसमें उनके आलोचक भी शामिल हैं, बापू जी का संबोधन दिया गया है। शेष दुनिया उन्हें महात्मा गांधी के नाम से जानती है।
''राष्ट्रपिता'' शांति और मानवता का प्रतीक हैं। हम उन्हें उनके जन्म दिवस तथा अन्य अनेक पवित्र अवसरों पर याद करते हैं और संयुक्त राष्ट्र द्वारा 2 अक्तूबर अंतरराष्ट्रीय अहिंसा दिवस के रूप में घोषित किया गया है।
महात्मा गांधी की विचारधारा
गांधी जी का दर्शन और उनकी विचारधारा सत्य और अहिंसा भगवत गीता और हिन्दु मान्यताओं, जैन धर्म और लियो टॉल्स्टॉय की शांतिवादी ईसाई धर्म की शिक्षाओं से प्रभावित हैं।
गांधी जी एक शाकाहारी और ब्रह्मचर्य के हिन्दु विचार के अनुयायी थे -आधात्यमिक और व्यवहारिक शुद्धता का पालन, सप्ताह में एक दिन मौन व्रत रखना। उनका विश्वास था कि बोलने पर संयम रखने से उन्हें आंतरिक शांति मिलती हैं, यह प्रभाव हिन्दु सिद्धांत मौन और शांति से लिया गया है।
दक्षिण अफ्रीका से लौटने के बाद गांधी जी ने पश्चिमी शैली के कपड़े पहनना छोड़ दिया, जो उनकी सम्पन्नता और सफलता से जुड़ा था। उन्होंने स्वदेशी रूप से बुने गए कपड़े अर्थात खादी का समर्थन किया। गांधी जी और उनके अनुयायियों ने सूत से बुने गए खादी के कपड़े को अपनाया। उन्होंने कपड़े को अपने आप बुना और अन्य लोगों को ऐसा करने के लिए प्रेरित किया। यह चरखा आगे चलकर भारतीय राष्ट्रीय कॉन्ग्रेस के झण्डे में शामिल किया गया।
गांधी जी ने दर्शन के बारे में और जीवन की शैली के बारे में अपनी जीवन कथा 'सत्य के साथ मेरे प्रयोग' की कहानी में बताया है।
भारतीय संविधान मौलिक अधिकारों के माध्यम से भारत के सभी नागरिकों को कानून के समक्ष समानता का अधिकार देता है। यह जाति, धर्म, नस्ल, लिंग या जन्म के आधार पर भेदभाव का निषेध करता है और अस्पृश्यता को समाप्त करता है। भारत सत्य और अहिंसा की मान्यताओं का पालन करता है क्योंकि देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था स्वराज की विचारधारा का प्रतिनिधित्व करती है।
बापू ने सत्याग्रह को इन लोगों की परिस्थितियों में सुधार लाने और इन्हें सामाजिक न्याय दिलाने के साधन के रूप में इस्तेमाल किया जैसे सार्वभौमिक शिक्षा, महिलाओं के अधिकार, सामुदायिक सौहार्द, निर्धनता का उन्मूलन, खादी को प्रोत्साहन देना आदि।
गांधी जी ने सात सामाजिक बुराइयां गिनाईं, जो हैं :
- सिद्धांतों के बिना राजनीति
- परिश्रम के बिना संपत्ति
- आत्म चेतना की बिना आनंद
- चरित्र के बिना ज्ञान
- नैतिकता के बिना व्यापार
- मानवता के बिना विज्ञान
- बलिदान के बिना पूजा
सन्मार्ग पर चलना शपथ का उद्देश्य
लोग अपने-अपने तरीके से एक-दूसरे को बांध लेते हैं। कहीं प्रेम से बांधा जाता है तो कहीं अपनेपन में। कुछ लोग दुष्मनी के कारण भी बंधे हुए रहते हैं। बंधन का एक और तरीका है- कसम का बंधन। भारत में कसम देने की लोक परंपरा है। संविधान में इसे ही शपथ का नाम दे दिया गया है। शपथ इसलिए ली जाती है कि सही के प्रति जो निर्णय लिया गया है उसे अवष्य पूरा किया जाए। पर शपथ की आड़ में कुछ लोग गलत काम भी करते हैं। कसम को भी हथियार बना लिया गया है। इसे राक्षसी वृत्ति कहते हैं। रावण पक्ष के लोंग इसमें बड़े माहिर थे। जब रावण के दूत पकड़े गये और राजा सुग्रीव ने आदेश दे दिया कि इन्हें अंग भंग किया जाए, तब देखिए राक्षसों ने क्या किया। सुंदरकांड में आया है- ‘सुनि सुग्रीव बचन कपि धाए। बांधि कटक चहु पास फिराए।। बहु प्रकार मारन कपि लागे। दीन पुकारत तदपि न त्यागे।। जो हमार हर नासा काना। तेहि कोसलाधीस कै आना।।’ सुग्रीव के आदेष पर वानरों ने राक्षसों को प्रताडि़त करना आरंभ किया। राक्षस गिड़गिड़ाने लगे, तब भी वानरों ने उन्हें छोड़ा नही ंतो राक्षसों ने कह दिया यदि हमारे नाक-कान काटोगे तो तुम्हें भगवान श्रीराम की कसम। वानरों को रूक जाना पड़ा। धर्म, संस्कृति, सभ्यता ये सब एक तरह की शपथ हैं सन्मार्ग पर चलने के लिए। राक्षसी वृत्ति के लोग धर्म की आड़ में ही अधर्म के काम करते हैं। संस्कृति के परदे में तमाम असांस्कृतिक कृत्य करते हैं।
-पं. विजयषंकर मेहता
बुजुर्गो के सम्मान की परंपरा श्राद्ध
उम्र बढ़ने के साथ सोच-विचार के धरातल भी बदल जाते हैं। बुजुर्गों को बात करते हुए देखें, उनके चिंतन पर उनकी शारीरक स्थिति का प्रभाव नजर आएगा। बुढ़ापे में स्मृति क्षीण होने कारण वे एक ही विषय को बार-बार दोहराते हैं। अनुभव के कारण अधिकांश मौकों पर बड़े- बूढ़े आपस में बात कम और बहस ज्यादा करते दिखेंगे। चूंकि शरीर काम कर नहीं पाता और मन अत्यधिक सक्रिय होता है इसलिए मन का सारा दबाव चिंतन पर पड़ता है और वे चिंतन के सहारे जीते हैं। वे या तो बैठे-बैठे सोचते रहेंगे या कोई सुनने वाला मिल जाए तो बीते समय की बातों को दोहराते रहेंगे। यदि ऐसा सतत् चलता रहे तो वृद्धावस्था बोझ लगने लगती है। जीवन ऊब से भर जाता है। कुछ मृत्यु का इंतजार करने लगते हैं तो कुछ मृत्यु के भय से डरने लगते हैं। वे भुल जाते हैं कि जीवन समग्र का नाम है। जीवन की समग्रता में बचपन, जवानी और बुढ़ापा तीनों शामिल हैं। इसलिए भारतीय परंपरा में श्राद्ध पर्व के रूप में मनाया जाता है। अन्न, पूजा आदि हमारे पितरों को कैसे और कितना पहुंचता है यह आज की पीढ़ी के लिए बहस का विषय हो सकता है, लेकिन वे इससे सहमत होंगे कि श्राद्ध पक्ष के इन 15 दिनों मे अपने आस-पास के वृद्धजन, माता-पिता का भरपूर सेवा-सम्मान करना चाहिए। संकल्प लें कि श्राद्धपक्ष के बाद भी जीवनभर अपने गुजरे हुए और जीवित वरिष्ठ परिजनों के साथ विनम्रता और सेवापूर्ण व्यवहार करेंगे।
प्रकृति में निहित षांति पाने के उपाय
एक महात्मा नदी किनारे एकांत में अपनी कुटिया में रहते थे। उन्होनें कुटिया के चारों ओर हरे-भरे वृक्ष लगा रखे थे, जिन पर सुबह-शाम पक्षियों का कलरव गूंजता रहता था। प्रकृति का यह मधुर सान्निध्य महात्मा को सदैव आनंदित रखता था। पक्षी और पेड़-पौधो तो मानो उनका परिवार ही बन गए थे। एक दिन महात्मा प्रातःकालीन पूजन कर उठे ही थे कि द्वार पर उन्हे एक सेठजी खड़े नजर आए। उन्हें चिंताग्रस्त देख महात्मा ने उनसे समस्या जाननी चाही। सेठजी बोले, ‘महाराज! मेरे पास विशाल संपदा है, भरा पूरा परिवार है और मुझे कोई रोग भी नहीं है। फिर भी मुझे नींद नहीं आती, रातभर करवटें ही बदलता रहता हूं।’ महात्मा आत्मीयता से सेठजी के सिर पर हाथ फेरकर बोले, ‘सेठ! तुम्हारे पास सब कुछ भले ही हो, किंतु वह नहीं है,जो नींद के लिए आवश्यक है।’ सेठ ने पूछा, ‘वह क्या है, महाराज?’ महात्मा बोले, तुम चारों ओर चिंताओं से घिरे हो। धन-संपत्ति की चिंता, व्यापार-व्यवसाय की चिंता, परिवार की चिंता। स्मरण रखो कि चिंता और चैन में शत्रुता है।’ सेठ ने इससे बचने का उपाय पूछा तो उन्होंने कहा, ‘तुम प्रकृति से शिक्षा ग्रहण करो। पेड़, पौधे, फल, पानी और प्रकाश के रूप में उसकी अनंत संपदा चारों ओर बिखरी हुई है, किंतु वह चिंतामुक्त है। अपनी इस दौलत को पूरी दुनिया पर दोनों हाथों से सतत लुटाती रहती है। तुम यदि उससे प्रेरणा लेकर अपना जीवन भी उसके अनुरूप बना लोगे तो तुम्हें न केवल नींद आएगी बल्कि अतीव शांति महसूस होगी।’ सेठ ने महात्मा की बात का मर्म समझा और लोक कल्याण की राह पर चल पड़ा। धन और ज्ञान देने से बढ़ते ही हैं। इसलिए इनके संग्रह के साथ-साथ इनके दान की वृत्ति भी रखनी चाहिए।
मोह के कारण गई लड़के की जान
जय और विजय में घनिष्ठ मित्रता थी। दोनों के परिवारों के मध्य भी बहुत स्नेह था। दोनों पढ़ाई-लिखाई, घूमना-फिरना साथ ही करते थे। एक बार दोनों नदी किनारे घूमने गए। दोनों ही बड़े अच्छे तैराक थें नदी में दोनों ने काफी देर मस्ती की। तभी वहां स्थानीय प्रशासन की ओर से सूचना दी गई कि नदी से बाहर निकल आएं, क्योंकि बांध से पानी छोड़ा जा रहा है। दोनों मित्र पानी से बाहर निकल आए। जब बांध से पानी नदी में छोड़ा गया तो बाढ़ जैसा द्रश्य निर्मित हो गया। जय और विजय सुरक्षित स्थान पर बैठकर यह नजारा देखने लगे।
तभी दोनों ने देखा कि नदी की धारा के मध्य में एक कंबल बहता हुआ आ रहा है। विजय को कंबल का लालच हो आया। जय ने उसे बहुत रोका, किंतु विजय पानी में कूद गया। लेकिन कंबल के पास पहुंचकर उसने जैसे ही उसे खींचकर ले जाने की कोशिश की, उसका संतुलन गड़बड़ा गया। कंबल पानी में भीगकर बहुत भारी हो गया था। पानी का बहाव भी बहुत तेज था। ऐसे में कंबल लेकर तैरना असंभव था। विजय जितना जोर लगाकर किनारे की ओर आने का प्रयास करता, बड़ी-बड़ी लहरें उसे पीछे की ओर फेंक देतीं। अपने मित्र की ऐसी दुर्दशा देखकर जय चिल्लाया, ‘विजय! कंबल फेंक दो और लौट आओ।’ किंतु विजय ने कहा, ‘मैं तो कंबल को छोड़ रहा हूं, किंतु यह कंबल मुझे नहीं छोड़ रहा है।’
जय समझ गया कि विजय के मन में कंबल के प्रति मोह जागृत हो गया है। विजय ने कंबल सहित किनारे पर आने की बहुत कोशिश की, किंतु वह नाकाम रहा और अंततः वह पानी में डूब गया। मोह सदैव संकट का कारण बनता है। इसलिए अपने मन को संयम की डोर से बांधे रखना चाहिए।
जब संतों ने लिया विपरीत का सहारा
किसी वन में दो संत रहते थे। वे एकांत में अपनी ध्यान-साधना में लीन रहते। उन्हें दुनिया से कोई सरोकार रखना पसंद नहीं था। कभी-कभार यात्रियों का कोई दल वहां से गुजरता था तो अवष्य उनसे ये संत बातचीत कर लेते। इन्हीं यात्रियों के द्वारा वहां के राजा को उनके विषय में ज्ञात हुआ। वह इन दोनों से मिलने रवाना हुआ। जब संतों को पता चला तो उन्होंने सोचा कि यदि राजा ने हमसे मिलकर हमारी भलाई देखी तो वह बार-बार हमसे मिलने आएगा। इस कारण हमारी ध्यान-साधना में बाधा पड़ेगी। अतः ऐसा कोई तरीका अपनाना चाहिए, जिससे राजा हमें सामान्य व्यक्ति ही समझे। दोनों ने एक उपाय सोचा। जब राजा का लाव-लष्कर कुटिया के पास पहुंचा तो दोनों संत बाहर निकलकर लड़ने लगे। दोनों ने अपने हाथों में एक-एक डंडा ले रखा था। एक संत ने कहा, ‘तू स्वयं को क्या समझता है? मैंने इतना ज्ञान अर्जित किया, जितना तू सात जन्मों में भी नहीं कर सकता।, तब दूसरे संत ने चिढ़कर अपनी आवाज ऊंची की- ‘अपने ज्ञान की डींग मत हांक। तुझसे ज्यादा तो मेरे षिष्यों ने ज्ञानार्जन किया है।’ पहले ने हाथ का डंडा ऊंचा कर कहा- ‘तू काहे का संत। दिन भर खाता रहता है।’ दूसरे ने तत्काल जवाब दिया- ‘तू कौन सा महात्मा है? खाने और सोने से तुझे फुर्सत मिले, तो साधना करेगा न!’ राजा ने जब यह दृष्य देखा, तो वह निराष हुआ और उन्हें सर्वथा सामान्य व्यक्ति समझकर वहां से चला गया। राजा के जाने पर संतों ने राहत महसूस की और पूर्ववत अपनी-अपनी साधना में रम गए। वृहत्तर उद्देष्यों की पूर्ति के लिए कई बार विपरीत मार्ग का अवलंबन लेना पड़ता है, जो दिखता गलत है, किंतु अंततः वह कल्याण की राह ही प्रषस्त करता है।
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी
19 September 2013
मोहनदास करमचंद गांधी (2 अक्तूबर 1869 - 30 जनवरी 1948) भारत एवं भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के एक प्रमुख राजनैतिक एवं आध्यात्मिक नेता थे। वे सत्याग्रह - व्यापक सविनय अवज्ञा के माध्यम से अत्याचार के प्रतिकार के अग्रणी नेता थे, उनकी इस अवधारणा की नींव संपूर्ण अहिंसा पर रखी गई थी जिसने भारत को आजादी दिलाकर पूरी दुनिया में जनता के नागरिक अधिकारों एवं स्वतंत्रता के प्रति आंदोलन के लिए प्रेरित किया। उन्हें दुनिया में आम जनता महात्मा गांधी के नाम से जानती है। संस्कृत: महात्मा अथवा महान आत्मा एक सम्मान सूचक शब्द जिसे सबसे पहले रवीन्द्रनाथ टेगौर ने प्रयोग किया और भारत में उन्हें बापू के नाम से भी याद किया जाता है।
गुजराती બાપુ (बापू अथवा पिता) उन्हें सरकारी तौर पर राष्ट्रपिता का सम्मान दिया गया है २ अक्टूबर को उनके जन्म दिन राष्ट्रीय पर्व गांधी जयंती के नाम से मनाया जाता है और दुनियाभर में इस दिन को अंतरराष्ट्रीय अहिंसा दिवस के नाम से मनाया जाता है।
सबसे पहले गांधी ने रोजगार अहिंसक सविनय अवज्ञा प्रवासी वकील के रूप में दक्षिण अफ्रीका, में भारतीय समुदाय के लोगों के नागरिक अधिकारों के लिए संघर्ष हेतु प्रयुक्त किया। १९१५ में उनकी वापसी के बाद उन्होंने भारत में किसानों , कृषि मजदूरों और शहरी श्रमिकों को अत्याधिक भूमि कर और भेदभाव के विरूद्ध आवाज उठाने के लिए एकजुट किया।
१९२१ में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की बागडोर संभालने के बाद गांधी जी ने देशभर में गरीबी से राहत दिलाने, महिलाओं के अधिकारों का विस्तार, धार्मिक एवं जातीय एकता का निर्माण, आत्म-निर्भरता के लिए अस्पृश्यता का अंत आदि के लिए बहुत से आंदोलन चलाएं। किंतु इन सबसे अधिक विदेशी राज से मुक्ति दिलाने वाले स्वराज की प्राप्ति उनका प्रमुख लक्ष्य था।
गाँधी जी ने ब्रिटिश सरकार द्वारा भारतीयों पर लगाए गए नमक कर के विरोध में १९३० में दांडी मार्च और इसके बाद १९४२ में , ब्रिटिश भारत छोड़ो आन्दोलन छेडकर भारतीयों का नेतृत्व कर प्रसिद्धि प्राप्त की। दक्षिण अफ्रीका और भारत में विभिन्न अवसरों पर कई वर्षों तक उन्हें जेल में रहना पड़ा।
गांधी जी ने सभी परिस्थितियों में अहिंसा और सत्य का पालन किया और सभी को इनका पालन करने के लिए वकालत भी की। उन्होंने आत्म-निर्भरता वाले आवासीय समुदाय में अपना जीवन गुजारा किया और पंरपरागत भारतीय पोशाक धोती और सूत से बनी शॉल पहनी जिसे उसने स्वयं ने चरखे पर सूत कात कर हाथ से बनाया था। उन्होंने सादा शाकाहारी भोजन खाया और आत्मशुद्धि तथा सामाजिक प्रतिकार दोनों के लिए लंबे-लंबे उपवास भी किए।
रबीन्द्रनाथ ठाकुर, गुरुदेव
19 September 2013
रबीन्द्रनाथ ठाकुर, गुरुदेव (जन्म- 7 मई, 1861, कलकत्ता, पश्चिम बंगाल; मृत्यु- 7 अगस्त, 1941, कलकत्ता) एक बांग्ला कवि, कहानीकार, गीतकार, संगीतकार, नाटककार, निबंधकार और चित्रकार थे। भारतीय संस्कृति के सर्वश्रेष्ठ रूप से पश्चिमी देशों का परिचय और पश्चिमी देशों की संस्कृति से भारत का परिचय कराने में टैगोर की बड़ी भूमिका रही तथा आमतौर पर उन्हें आधुनिक भारत का असाधारण सृजनशील कलाकार माना जाता है।
जीवन परिचय
रबीन्द्रनाथ ठाकुर का जन्म 7 मई, 1861 कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता) में देवेंद्रनाथ टैगोर और शारदा देवी के पुत्र के रूप में एक संपन्न बांग्ला परिवार में हुआ था। बहुमुखी प्रतिभा के धनी श्री टैगोर सहज ही कला के कई स्वरूपों की ओर आकृष्ट हुए जैसे- साहित्य, कविता, नृत्य और संगीत।
दुनिया की समकालीन सांस्कृतिक रुझान से वे भली-भाँति अवगत थे। साठ के दशक के उत्तरार्द्ध में टैगोर की चित्रकला यात्रा शुरू हुई। यह उनके कवित्य सजगता का विस्तार था। हालांकि उन्हें कला की कोई औपचारिक शिक्षा नहीं मिली थी उन्होंने एक सशक्त एवं सहज दृश्य शब्दकोश का विकास कर लिया था। श्री टैगोर की इस उपलब्धि के पीछे आधुनिक पाश्चात्य, पुरातन एवं बाल्य कला जैसे दृश्य कला के विभिन्न स्वरूपों की उनकी गहरी समझ थी।
शिक्षा
रबीन्द्रनाथ टैगोर की स्कूल की पढ़ाई प्रतिष्ठित सेंट ज़ेवियर स्कूल में हुई। टैगोर ने बैरिस्टर बनने की चाहत में 1878 में इंग्लैंड के ब्रिजटोन पब्लिक स्कूल में नाम दर्ज कराया। उन्होंने लंदन कॉलेज विश्वविद्यालय में क़ानून का अध्ययन किया लेकिन 1880 में बिना डिग्री हासिल किए ही वापस आ गए। रबीन्द्रनाथ टैगोर को बचपन से ही कविताऐं और कहानियाँ लिखने का शौक़ था। उनके पिता देवेन्द्रनाथ ठाकुर एक जाने-माने समाज सुधारक थे। वे चाहते थे कि रबीन्द्र बडे होकर बैरिस्टर बनें। इसलिए उन्होंने रबीन्द्र को क़ानून की पढ़ाई के लिए लंदन भेजा। लेकिन रबीन्द्र का मन साहित्य में ही रमता था। उन्हें अपने मन के भावों को काग़ज़ पर उतारना पसंद था। आख़िरकार, उनके पिता ने पढ़ाई के बीच में ही उन्हें वापस भारत बुला लिया और उन पर घर-परिवार की ज़िम्मेदारियाँ डाल दीं। रबीन्द्रनाथ टैगोर को प्रकृति से बहुत प्यार था। वे गुरुदेव के नाम से लोकप्रिय थे। भारत आकर गुरुदेव ने फिर से लिखने का काम शुरू किया।
रचनाएँ
रबीन्द्रनाथ ठाकुर एक बांग्ला कवि, कहानीकार, गीतकार, संगीतकार, नाटककार, निबंधकार और चित्रकार थे। जिन्हें 1913 में साहित्य के लिए नोबेल पुरस्कार प्रदान किया गया। टैगोर ने बांग्ला साहित्य में नए गद्य और छंद तथा लोकभाषा के उपयोग की शुरुआत की और इस प्रकार शास्त्रीय संस्कृत पर आधारित पारंपरिक प्रारूपों से उसे मुक्ति दिलाई। धर्म सुधारक देवेन्द्रनाथ टैगोर के पुत्र रबींद्रनाथ ने बहुत कम आयु में काव्य लेखन प्रारंभ कर दिया था। 1870 के दशक के उत्तरार्द्ध में वह इंग्लैंड में अध्ययन अधूरा छोड़कर भारत वापस लौट आए। भारत में रबींद्रनाथ टैगोर ने 1880 के दशक में कविताओं की अनेक पुस्तकें प्रकाशित की तथा मानसी (1890) की रचना की। यह संग्रह उनकी प्रतिभा की परिपक्वता का परिचायक है। इसमें उनकी कुछ सर्वश्रेष्ठ कविताएँ शामिल हैं, जिनमें से कई बांग्ला भाषा में अपरिचित नई पद्य शैलियों में हैं। साथ ही इसमें समसामयिक बंगालियों पर कुछ सामाजिक और राजनीतिक व्यंग्य भी हैं।
दो-दो राष्ट्रगानों के रचयिता रवीन्द्रनाथ टैगोर के पारंपरिक ढांचे के लेखक नहीं थे। वे एकमात्र कवि हैं जिनकी दो रचनाएँ दो देशों का राष्ट्रगान बनीं- भारत का राष्ट्र-गान जन गण मन और बांग्लादेश का राष्ट्रीय गान आमार सोनार बांग्ला गुरुदेव की ही रचनाएँ हैं। वे वैश्विक समानता और एकांतिकता के पक्षधर थे। ब्रह्मसमाजी होने के बावज़ूद उनका दर्शन एक अकेले व्यक्ति को समर्पित रहा। चाहे उनकी ज़्यादातर रचनाऐं बांग्ला में लिखी हुई हों। वह एक ऐसे लोक कवि थे जिनका केन्द्रीय तत्त्व अंतिम आदमी की भावनाओं का परिष्कार करना था। वह मनुष्य मात्र के स्पन्दन के कवि थे। एक ऐसे कलाकार जिनकी रगों में शाश्वत प्रेम की गहरी अनुभूति है, एक ऐसा नाटककार जिसके रंगमंच पर सिर्फ़ ‘ट्रेजडी’ ही ज़िंदा नहीं है, मनुष्य की गहरी जिजीविषा भी है। एक ऐसा कथाकार जो अपने आस-पास से कथालोक चुनता है, बुनता है, सिर्फ़ इसलिए नहीं कि घनीभूत पीड़ा के आवृत्ति करे या उसे ही अनावृत्त करे, बल्कि उस कथालोक में वह आदमी के अंतिम गंतव्य की तलाश भी करता है।
सर्वश्रेष्ठ कहानियाँ
सियालदह और शजादपुर स्थित अपनी ख़ानदानी जायदाद के प्रबंधन के लिए 1891 में टैगोर ने 10 वर्ष तक पूर्वी बंगाल (वर्तमान बांगला देश) में रहे, वहाँ वह अक्सर पद्मा नदी (गंगा नदी) पर एक हाउस बोट में ग्रामीणों के निकट संपर्क में रहते थे और उन ग्रामीणों की निर्धनता व पिछड़ेपन के प्रति टैगोर की संवेदना उनकी बाद की रचनाओं का मूल स्वर बनी। उनकी सर्वश्रेष्ठ कहानियाँ, जिनमें ‘दीन-हीनों’ का जीवन और उनके छोटे-मोटे दुख’ वर्णित हैं, 1890 के बाद की हैं और उनकी मार्मिकता में हल्का सा विडंबना का पुट है। जो टैगोर की निजी विशेषता है तथा जिसे निर्देशक सत्यजित राय अपनी बाद की फ़िल्मों में कुशलतापूर्वक पकड़ पाए हैं।
गल्पगुच्छ की तीन जिल्दों में उनकी सारी चौरासी कहानियाँ संगृहीत हैं, जिनमें से केवल दस प्रतिनिधि कहानियाँ चुनना टेढ़ी खीर है। 1891 से 1895 के बीच का पाँच वर्षों का समय रवीन्द्रनाथ की साधना का महान काल था। वे अपनी कहानियाँ सबुज पत्र (हरे पत्ते) में छपाते थे। आज भी पाठकों को उनकी कहानियों में ‘हरे पत्ते’ और ‘हरे गाछ’ मिल सकते हैं। उनकी कहानियों में सूर्य, वर्षा, नदियाँ और नदी किनारे के सरकंडे, वर्षा ऋतु का आकाश, छायादार गाँव, वर्षा से भरे अनाज के प्रसन्न खेत मिलते हैं। उनके साधारण लोग कहानी खत्म होते-होते असाधारण मनुष्यों में बदल जाते हैं। महानता की पराकाष्ठा छू आते हैं। उनकी मूक पीड़ा की करुणा हमारे हृदय को अभिभूत कर लेती है।
उनकी कहानी पोस्टमास्टर इस बात का सजीव उदाहरण है कि एक सच्चा कलाकार साधारण उपकरणों से कैसी अद्भुत सृष्टि कर सकता है। कहानी में केवल दो सजीव साधारण-से पात्र हैं। बहुत कम घटनाओं से भी वे अपनी कहानी का महल खड़ा कर देते हैं। एक छोटी लड़की कैसे बड़े-बड़े इंसानों को अपने स्नेह-पाश में बाँध देती हैं। ‘क़ाबुलीवाला’ भी इस बात का जीता-जागता उदाहरण है। रवीन्द्रनाथ ने पहली बार अपनी कहानियों में साधारण की महिमा का बखान किया।
रवीन्द्रनाथ की कहानियों में अपढ़ ‘क़ाबुलीवाला’ और सुसंस्कृत बंगाली भूत भावनाओं में एक समान हैं। उनकी क़ाबुलीवाला, मास्टर साहब और ‘पोस्टमास्टर’ कहानियाँ आज भी लोकप्रिय कहानियाँ हैं-लोकप्रिय और सर्वश्रेष्ठ भी और बनी रहेंगी। उनकी कहानियाँ सर्वश्रेष्ठ होते हुए भी लोकप्रिय हैं और लोकप्रिय होते हुए भी सर्वश्रेष्ठ हैं।
अपनी कल्पना के पात्रों के साथ रवीन्द्रनाथ की अद्भुत सहानुभूतिपूर्ण एकात्मकता और उसके चित्रण का अतीव सौंदर्य उनकी कहानी को सर्वश्रेष्ठ बना देते हैं जिसे पढ़कर द्रवित हुए बिना नहीं रहा जा सकता। उनकी कहानियाँ फ़ौलाद को मोम बनाने की क्षमता रखती हैं।
अतिथि का तारापद रवीन्द्रनाथ की अविस्मरणीय सृष्टियों में है। इसका नायक कहीं बँधकर नहीं रह पाता। आजीवन ‘अतिथि’ ही रहता है। क्षुधित पाषाण, आधी रात में (निशीथे) तथा ‘मास्टर साहब’ प्रस्तुत संग्रह की इन तीन कहानियों में दैवी तत्त्व का स्पर्श मिलता है। इनमें पहली ‘क्षुधित पाषाण’ में कलाकार की कल्पना अपने सुंदरतम रूप में व्यक्त हुई है। यहाँ अतीत वर्तमान के साथ वार्तालाप करता है-रंगीन प्रभामय अतीत के साथ नीरस वर्तमान। समाज में महिलाओं का स्थान तथा नारी जीवन की विशेषताएँ उनके लिए गंभीर चिंता के विषय थे और इस विषय में भी उन्होंने गहरी अंतर्दृष्टि का परिचय दिया है।
संगीत
राष्ट्रगान (जन गण मन) के रचयिता टैगोर को बंगाल के ग्राम्यांचल से प्रेम था और इनमें भी पद्मा नदी उन्हें सबसे अधिक प्रिय थी। जिसकी छवि उनकी कविताओं में बार-बार उभरती है। उन वर्षों में उनके कई कविता संग्रह और नाटक आए, जिनमें सोनार तरी (1894; सुनहरी नाव) तथा चित्रांगदा (1892) उल्लेखनीय है। वास्तव में टैगोर की कविताओं का अनुवाद लगभग असंभव है और बांग्ला समाज के सभी वर्गों में आज तक जनप्रिय उनके 2,000 से अधिक गीतों, जो ‘रबींद्र संगीत’ के नाम से जाने जाते हैं, पर भी यह लागू होता है।
चित्रकला
साठ के दशक के उत्तरार्द्ध में टैगोर की चित्रकला यात्रा शुरू हुई। यह उनके कवित्य सजगता का विस्तार था। हालांकि उन्हें कला की कोई औपचारिक शिक्षा नहीं मिली थी उन्होंने एक सशक्त एवं सहज दृश्य शब्दकोष का विकास कर लिया था। श्री टैगोर की इस उपलब्धि के पीछे आधुनिक पाश्चात्य, पुरातन एवं बाल्य कला जैसे दृश्य कला के विभिन्न स्वरूपों की उनकी गहरी समझ थी। एक अवचेतन प्रक्रिया के रूप में आरंभ टैगोर की पांडुलिपियों में उभरती और मिटती रेखाएं ख़ास स्वरूप लेने लगीं। धीरे-धीरे टैगोर ने कई चित्रों को उकेरा जिनमें कई बेहद काल्पनिक एवं विचित्र जानवरों, मुखौटों, रहस्यमयी मानवीय चेहरों, गूढ़ भू-परिदृश्यों, चिड़ियों एवं फूलों के चित्र थे। उनकी कृतियों में फंतासी, लयात्मकता एवं जीवंतता का अद्भुत संगम दिखता है। कल्पना की शक्ति ने उनकी कला को जो विचित्रता प्रदान की उसकी व्याख्या शब्दों में संभव नहीं है। कभी-कभी तो ये अप्राकृतिक रूप से रहस्यमयी और कुछ धुंधली याद दिलाते हैं। तकनीकी रूप में टैगोर ने सर्जनात्मक स्वतंत्रता का आनंद लिया। उनके पास कई उद्वेलित करने वाले विषय थे जिनको लेकर बेशक कैनवस पर रंगीन रोशनाई से लिपा-पुता चित्र बनाने में भी उन्हें हिचक नहीं हुई। रोशनाई से बने उनके चित्र में एक स्वच्छंदता दिखती है जिसके तहत कूची, कपड़ा, रूई के फाहों, और यहाँ तक कि अंगुलियों के बख़ूबी इस्तेमाल किए गए हैं। टैगोर के लिए कला मनुष्य को दुनिया से जोड़ने का माध्यम है। आधुनिकवादी होने के नाते टैगोर विशेष कर कला के क्षेत्र में पूरी तरह समकालीन थे।
राष्ट्रगान (जन गण मन) के रचयिता टैगोर को बंगाल के ग्राम्यांचल से प्रेम था और इनमें भी पद्मा नदी उन्हें सबसे अधिक प्रिय थी। जिसकी छवि उनकी कविताओं में बार-बार उभरती है। उन वर्षों में उनके कई कविता संग्रह और नाटक आए, जिनमें सोनार तरी (1894; सुनहरी नाव) तथा चित्रांगदा (1892) उल्लेखनीय है।
टैगोर की कविताओं की पांडुलिपि को सबसे पहले विलियम रोथेनस्टाइन ने पढ़ा था और वे इतने मुग्ध हो गए कि उन्होंने अँग्रेज़ी कवि यीट्स से संपर्क किया और पश्चिमी जगत के लेखकों, कवियों, चित्रकारों और चिंतकों से टैगोर का परिचय कराया। उन्होंने ही इंडिया सोसायटी से इसके प्रकाशन की व्यवस्था की। शुरू में 750 प्रतियाँ छापी गईं, जिनमें से सिर्फ़ 250 प्रतियाँ ही बिक्री के लिए थीं। बाद में मार्च 1913 में मेकमिलन एंड कंपनी लंदन ने इसे प्रकाशित किया और 13 नवंबर 1913 को नोबेल पुरस्कार की घोषणा से पहले इसके दस संस्करण छापने पड़े। यीट्स ने टैगोर के अँग्रेज़ी अनुवादों का चयन करके उनमें कुछ सुधार किए और अंतिम स्वीकृति के लिए उन्हें टैगोर के पास भेजा और लिखाः ‘हम इन कविताओं में निहित अजनबीपन से उतने प्रभावित नहीं हुए, जितना कि यह देखकर कि इनमें तो हमारी ही छवि नज़र आ रही है।’ बाद में यीट्स ने ही अँग्रेज़ी अनुवाद की भूमिका लिखी। उन्होंने लिखा कि कई दिनों तक इन कविताओं का अनुवाद लिए मैं रेलों, बसों और रेस्तराओं में घूमा हूँ और मुझे बार-बार इन कविताओं को इस डर से पढ़ना बंद करना पड़ा है कि कहीं कोई मुझे रोते-सिसकते हुए न देख ले। अपनी भूमिका में यीट्स ने लिखा कि हम लोग लंबी-लंबी किताबें लिखते हैं जिनमें शायद एक भी पन्ना लिखने का ऐसा आनंद नहीं देता है। बाद में गीतांजलि का जर्मन, फ्रैंच, जापानी, रूसी आदि विश्व की सभी प्रमुख भाषाओं में अनुवाद हुआ और टैगोर की ख्याति दुनिया के कोने-कोने में फैल गई।
शांतिनिकेतन
1901 में टैगोर ने पश्चिम बंगाल के ग्रामीण क्षेत्र में स्थित शांतिनिकेतन में एक प्रायोगिक विद्यालय की स्थापना की। जहाँ उन्होंने भारत और पश्चिमी परंपराओं के सर्वश्रेष्ठ को मिलाने का प्रयास किया। वह विद्यालय में ही स्थायी रूप से रहने लगे और 1921 में यह विश्व भारती विश्वविद्यालय बन गया। 1902 तथा 1907 के बीच उनकी पत्नी तथा दो बच्चों की मृत्यु से उपजा गहरा दुख उनकी बाद की कविताओं में परिलक्षित होता है, जो पश्चिमी जगत में गीतांजली, साँग ऑफ़रिंग्स (1912) के रूप में पहुँचा। शांति निकेतन में उनका जो सम्मान समारोह हुआ था उसका सचित्र समाचार भी कुछ ब्रिटिश समाचार पत्रों में छपा था। 1908 में कोलकाता में हुए कांग्रेस अधिवेशन के सभापति और बाद में ब्रिटेन के प्रथम लेबर प्रधानमंत्री रेम्जे मेक्डोनाल्ड 1914 में एक दिन के लिए शांति निकेतन गए थे। उन्होंने शांति निकेतन के संबंध में पार्लियामेंट के एक लेबर सदस्य के रूप में जो कुछ कहा वह भी ब्रिटिश समाचार पत्रों में छपा। उन्होंने शांति निकेतन के संबंध में सरकारी नीति की भर्त्सना करते हुए इस बात पर चिंता व्यक्त की थी कि शांति निकेतन को सरकारी सहायता मिलना बंद हो गई है। पुलिस की ब्लेक लिस्ट में उसका नाम आ गया है और वहाँ पढ़ने वाले छात्रों के माता-पिता को धमकी भरे पत्र मिल रहे हैं। पर ब्रिटिश समाचार पत्र बराबर रवीन्द्रनाथ ठाकुर के इस प्रकार प्रशंसक नहीं रहे।
ब्रिटेन में गुरुदेव
रवीन्द्रनाथ ठाकुर 1878 से लेकर 1930 के बीच सात बार इंग्लैंड गए। 1878 और 1890 की उनकी पहली दो यात्राओं के संबंध में ब्रिटेन के समाचार पत्रों में कुछ भी नहीं छपा क्योंकि तब तक उन्हें वह ख्याति नहीं मिली थी कि उनकी ओर किसी विदेशी समाचार पत्र का ध्यान जाता। उस समय तो वे एक विद्यार्थी ही थे।
पहली पुस्तक का प्रकाशन
जब वे तीसरी बार 1912 में लंदन गए तब तक उनकी कविताओं की पहली पुस्तक का अंग्रेज़ी में अनुवाद प्रकाशित हो चुका था, अत: उनकी ओर ब्रिटेन के समाचार पत्रों का ध्यान गया। उनकी यह तीसरी ब्रिटेन यात्रा वस्तुत: उनके प्रशंसक एवं मित्र बृजेन्द्रनाथ सील के सुझाव एवं अनुरोध पर की गई थी और इस यात्रा के आधार पर पहली बार वहाँ के प्रमुख समाचार पत्र ‘द टाइम्स’ में उनके सम्मान में दी गई एक पार्टी का समाचार छपा जिसमें ब्रिटेन के कई प्रमुख साहित्यकार यथा डब्ल्यू.बी.यीट्स, एच.जी.वेल्स, जे.डी. एण्डरसन और डब्ल्यू.रोबेन्सटाइन आदि उपस्थित थे।
इसके कुछ दिन बाद ‘द टाइम्स’ में ही उनके काव्य की प्रशंसा में तीन पैराग्राफ लम्बा एक समाचार भी छपा और फिर उनकी मृत्यु के समय तक ब्रिटेन के समाचार पत्रों में उनके जीवन और कृतित्व के संबंध में कुछ-न-कुछ बराबर ही छपता रहा। इस पुस्तक से यह भी पता चलता है कि किस प्रकार परम्परागत रूप से भारत विरोधी समाचार पत्र उनके संबंध में चुप्पी ही लगाए रहे पर निष्पक्ष और भारत के प्रति सहानुभूति रखने वाले समाचार पत्रों ने बड़ी उदारता से उनके संबंध में समाचार, लेख आदि प्रकाशित किए। उदाहरणत: ब्रिटेन के कट्टर रुढ़िवादी कंजरवेटिव समाचार पत्र ‘डेली टेलीग्राफ’ ने उन्हें नोबेल पुरस्कार मिलने की सूचना तक प्रकाशित करना उचित नहीं समझा जबकि उस दिन के अन्य सभी समाचार पत्रों में इस सूचना के साथ ही पुरस्कृत कृति ‘गीतांजलि’ के संबंध में वहाँ के समीक्षकों की सम्मति भी प्रकाशित हुई।
गीतांजलि का अंग्रेज़ी अनुवाद
गीतांजलि’ का अंग्रेज़ी अनुवाद प्रकाशित होने के एक सप्ताह के अंदर लंदन से प्रकाशित होने वाले प्रसिद्ध साप्ताहिक ‘टाइम्स लिटरेरी सप्लीमेंट’ में उसकी समीक्षा प्रकाशित हुई थी और बाद में आगामी तीन माह के अंदर तीन समाचार पत्रों में भी उसकी समीक्षा प्रकाशित हुई। रवीन्द्रनाथ ठाकुर को नोबेल पुरस्कार मिलने के संबंध में ब्रिटिश समाचार पत्रों में मिश्रित प्रतिक्रिया हुई। इस संबंध में ‘द टाइम्स’ ने लिखा था कि ‘स्वीडिश एकेडेमी’ के इस अप्रत्याशित निर्णय पर कुछ समाचार पत्रों में आश्चर्य व्यक्त किया गया है’ पर इस पत्र के स्टाकहोम स्थित संवाददाता ने अपने डिस्पेच में लिखा था कि स्वीडन के प्रमुख कवियों और लेखकों ने स्वीडिश कमेटी के सदस्यों की हैसियत से नोबेल कमेटी के इस निर्णय पर पूर्ण संतोष व्यक्त किया है। इसी संबंध में ब्रिटेन के प्रतिष्ठित समाचार पत्र ‘मेन्चेस्टर गार्डियन’ ने लिखा था कि रवीन्द्रनाथ टैगोर को नोबेल पुरस्कार मिलने की सूचना पर कुछ लोगों को आश्चर्य अवश्य हुआ पर असंतोष नहीं। टैगोर एक प्रतिभाशाली कवि हैं। बाद में ‘द केरसेण्ट मून’ की समीक्षा करते हुए एक समाचार पत्र ने लिखा था कि इस बंगाली (यानी रवीन्द्रनाथ ठाकुर) का अंग्रेज़ी भाषा पर जैसा अधिकार है वैसा बहुत कम अंग्रेज़ों का होता है।
जलियाँवाला काँड की निंदा
1919 में हुए जलियाँवाला काँड की जब रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने निंदा की तो ब्रिटिश समाचार पत्रों का रुख एकाएक बदल गया। रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने जलियाँवाला काण्ड के विरोध स्वरूप अपना ‘सर’ का खिताब लौटाते हुए वाइसराय को जो पत्र लिखा वह भी ब्रिटिश समाचार पत्रों ने छापना उचित नहीं समझा। पर लॉर्ड माण्टेग्यू ने पार्लियामेंट में जब घोषणा की कि ‘सर रवीन्द्रनाथ को दिया गया खिताब वापिस नहीं लिया गया है’ तो यह समाचार ब्रिटिश समाचार पत्रों में अवश्य छपा। ‘डेली टेलीग्राफ’ ने तो व्यंग्यपूर्वक यह भी लिखा कि रवीन्द्रनाथ ठाकुर के अंग्रेज़ी प्रकाशक मेकमिलन्स उनके नाम के साथ अभी भी ‘सर’ छाप रहे हैं। 1941 में रवीन्द्रनाथ ठाकुर की मृत्यु पर ब्रिटिश समाचार पत्रों ने जो कुछ लिखा उससे जान पड़ता है मानो उनके सिर पर से एक बहुत बड़ा भारी बोझ हट गया है। एक समाचार पत्र ने उनके मृत्यु लेख में लिखा कि रवीन्द्रनाथ ठाकुर को इस बात के लिए मनाने की कोशिश की गई थी कि वे अपने ‘सर’ के खिताब को वापिस करने के निर्णय पर पुनर्विचार करें।
‘द टाइम्स’ ने हाउस ऑफ़ कॉमन्स की कार्यवाही का उल्लेख करते हुए लिखा कि अंडर सेक्रेटरी फ़ॉर इंडिया ने यह माना था कि उनकी पुस्तक ‘रूस के पत्र’ के अनुवाद में एक पूरे परिच्छेद में तथ्यों को जानबूझकर तोड़ा-मरोड़ा गया था जिससे भारत में ब्रिटिश शासन की निंदा हो। इस प्रकार तथ्यों को तोड़े-मरोड़े जाने और तरह-तरह के आरोपों के बावज़ूद अधिकांश समाचार पत्रों में रवीन्द्रनाथ ठाकुर के संबंध में प्राय: प्रशंसात्मक लेख ही छपते रहे। 1921 में छपे एक समाचार से पता चलता है कि रवीन्द्रनाथ ठाकुर की लंदन से पेरिस की पहली हवाई यात्रा का पूरा खर्च चेकोस्लावाकिया की सरकार ने दिया था।
जनसंहार की प्रतिक्रियाएँ
रबीन्द्रनाथ ठाकुर ने इस हत्याकाण्ड के मुखर विरोध किया और विरोध स्वरूप अपनी ‘नाइटहुड’ की उपाधि को वापस कर दिया था। आज़ादी का सपना ऐसी भयावह घटना के बाद भी पस्त नहीं हुआ। इस घटना के बाद आज़ादी हासिल करने की इच्छा और ज़ोर से उफन पड़ी। यद्यपि उन दिनों संचार के साधन कम थे, फिर भी यह समाचार पूरे देश में आग की तरह फैल गया। ‘आज़ादी का सपना’ पंजाब ही नहीं, पूरे देश के बच्चे-बच्चे के सिर पर चढ़ कर बोलने लगा। उस दौरान हज़ारों भारतीयों ने जलियांवाला बाग़ की मिट्टी से माथे पर तिलक लगाकर देश को आज़ाद कराने का दृढ़ संकल्प लिया।
सम्मान
टैगोर के गीतांजली (1910) समेत बांग्ला काव्य संग्रहालयों से ली गई कविताओं के अंग्रेज़ी गद्यानुवाद की इस पुस्तक की डब्ल्यू.बी.यीट्स और आंद्रे जीद ने प्रशंसा की और इसके लिए टैगोर को 1913 में नोबेल पुरस्कार प्रदान किया गया।
विदेशी यात्रा
1912 में टैगोर ने लंबी अवधि भारत से बाहर बिताई, वह यूरोप, अमेरिका और पूर्वी एशिया के देशों में व्याख्यान देते व काव्य पाठ करते रहे और भारत की स्वतंत्रता के मुखर प्रवक्ता बन गए। हालांकि टैगोर के उपन्यास उनकी कविताओं और कहानियों जैसे असाधारण नहीं हैं, लेकिन वह भी उल्लेखनीय है। इनमें सबसे ज़्यादा लोकप्रिय है गोरा (1990) और घरे-बाइरे (1916; घर और बाहर), 1920 के दशक के उत्तरार्द्ध में टैगोर ने चित्रकारी शुरू की और कुछ ऎसे चित्र बनाए, जिन्होंने उन्हें समकालीन अग्रणी भारतीय कलाकारों में स्थापित कर दिया।
मृत्यु
भारत के राष्ट्रगान के प्रसिद्ध रचयिता रबीन्द्रनाथ ठाकुर की मृत्यु 7 अगस्त, 1941 को कलकत्ता में हुई थी।
गौतम बुद्ध
19 September 2013
गौतम बुद्ध बौद्ध धर्म के प्रवर्तक थे। राजकुमार सिद्धार्थ के रूप में उनका जन्म ४८३ ईस्वी पूर्व तथा मृत्यु ५६३ ईस्वी पूर्व मे हुआ। उनको इस विश्व के सबसे महान पथ प्रदर्शकों में गिना जाता है। गौतम गोत्र में जन्मे बुद्ध का वास्तविक नाम सिद्धार्थ था। उनका जन्म शाक्य गणराज्य की राजधानी कपिलवस्तु के निकट लुंबिनी में हुआ। शाक्यों के राजा शुद्धोधन सिद्धार्थ के पिता थे। परंपरागत कथा के अनुसार, सिद्धार्थ की माता मायादेवी जो कोली वन्श की थी का उनके जन्म के सात दिन बाद निधन हो गया था। उनका पालन पोषण शुद्दोधन की दूसरी रानी महाप्रजावती ने किया। शिशु का नाम सिद्धार्थ दिया गया, जिसका अर्थ है "वह जो सिद्धी प्राप्ति के लिए जन्मा हो"। जन्म समारोह के दौरान, साधु द्रष्टा आसित ने अपने पहाड़ के निवास से घोषणा की- बच्चा या तो एक महान राजा या एक महान पवित्र पथ प्रदर्शक बनेगा। शुद्दोधन ने पांचवें दिन एक नामकरण समारोह आयोजित किया और आठ ब्राह्मण विद्वानों को भविष्य पढ़ने के लिए आमंत्रित किया। सभी ने एक सी दोहरी भविष्यवाणी की, कि बच्चा या तो एक महान राजा या एक महान पवित्र आदमी बनेगा। दक्षिण मध्य नेपाल में स्थित लुंबिनी में उस स्थल पर महाराज अशोक ने तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व बुद्ध के जन्म की स्मृति में एक स्तम्भ बनवाया था। बुद्ध का जन्म दिन व्यापक रूप से थएरावदा देशों में मनाया जाता है।
आरंभिक जीवन में सत्य की खोज
सिद्धार्थ ने दो ब्राह्मणों के साथ अपने प्रश्नों के उत्तर ढूंढने शुरू किये। समुचित ध्यान लगा पाने के बाद भी उन्हें इन प्रश्नों के उत्तर नहीं मिले। फ़िर उन्होने तपस्या की परंतु उन्हे अपने प्रश्नों के उत्तर फ़िर भी नहीं मिले। फिर उन्होने कुछ साथी इकठ्ठे किये और चल दिये अधिक कठोर तपस्या करने। ऐसे करते करते छः वर्ष बाद, भूख के कारण मरने के करीब-करीब से गुज़रकर, बिना अपने प्रश्नों के उत्तर पाएं, वे फ़िर कुछ और करने के बारे में सोचने लगे। इस समय, उन्हे अपने बचपन का एक पल याद आया जब उनके पिता खेत तैयार करना शुरू कर रहे थे। उस समय वे एक आनंद भरे ध्यान में पड़ गये थे और उन्हे ऐसा महसूस हुआ कि समय स्थिर हो गया है।
ज्ञान प्राप्ति
कठोर तपस्या छोड़कर उन्होने आर्य अष्टांग मार्ग ढूंढ निकाला, जो मध्यम मार्ग भी कहलाता जाता है क्योंकि यह मार्ग दोनो तपस्या और असंयम की पाराकाष्टाओं के बीच में है। अपने बदन में कुछ शक्ति डालने के लिये, उन्होने एक बरह्मनि से कुछ खीर ली थी। वे एक पीपल के पेड़ (जो अब बोधि वृक्ष कहलाता है) के नीचे बैठ गये प्रतिज्ञा करके कि वे सत्य जाने बिना उठेंगे नहीं। वे सारी रात बैठे और सुबह उन्हे पूरा ज्ञान प्राप्त हो गया। उनकी अविजया नष्ट हो गई और उन्हे निर्वन यानि बोधि प्राप्त हुई और वे ३५ की उम्र तक बुद्ध बन गये। उनका पहला धर्मोपदेश वाराणसी के पास सारनाथ मे था जो उन्होने अपने पहले मित्रो को दिया। उन्होने भी थोडे दिनो मे ही बोधि प्राप्त कर ली। फिर गौतम बुद्ध ने उन्हे प्रचार करने के लिये भेज दिया।
महापरिनिर्वाण
पालि सिद्धांत के महापरिनिर्वाण सुत्त के अनुसार ८० वर्ष की आयु में बुद्ध ने घोषणा की कि वे जल्द ही परिनिर्वाण के लिए रवाना होंगे। बुद्ध ने अपना आखिरी भोजन, जिसे उन्होंने कुन्डा नामक एक लोहार से एक भेंट के रूप में प्राप्त किया था, ग्रहण लिया जिसके कारण वे गंभीर रूप से बीमार पड़ गये। बुद्ध ने अपने शिष्य आनंद को निर्देश दिया कि वह कुन्डा को समझाए कि उसने कोई गलती नहीं की है। उन्होने कहा कि यह भोजन अतुल्य है।
इन्दिरा गांधी
19 September 2013
जीवन परिचय
स्वतंत्र भारत की पहली महिला प्रधानमंत्री रही इंदिरा गांधी का जन्म प्रसिद्ध नेहरू परिवार में 19 नवंबर, 1917 को इलाहाबाद में हुआ था. इंदिरा गांधी का पूरा नाम इंदिरा प्रियदर्शिनी गांधी है. इनके पिता पं. जवाहर लाल नेहरू देश के पहले प्रधानमंत्री होने के साथ साथ वकालत के पेशे से भी संबंधित थे. इंदिरा गांधी का परिवार आर्थिक रूप से संपन्न होने के साथ-साथ बौद्धिक रूप से भी काफी सशक्त था. इनके पिता और दादा (मोतीलाल नेहरू) दोनों ही स्वतंत्रता आंदोलनों में अपनी सक्रिय भूमिका निभा रहे थे जिसका प्रभाव इंदिरा गांधी पर भी पड़ा. परिवार की राजनीति और स्वतंत्रता संग्राम में अत्याधिक सक्रियता और मां कमला नेहरू की बीमारी की वजह से बालिका इंदिरा को शुरू से ही पढ़ाई के लिए अनुकूल माहौल उपलब्ध नहीं हो पाया था, जिस कारण इनकी प्रारंभिक शिक्षा घर पर ही हुई. आगे की शिक्षा इन्होंने पश्चिम बंगाल के विश्वभारती विश्वविद्यालय और इंगलैंड के ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी से प्राप्त की.
इंदिरा गांधी का व्यक्तित्व
पढ़ाई में एक सामान्य दर्जे की छात्रा रही इंदिरा प्रियदर्शिनी गांधी को विश्व राजनीति में लौह-महिला के रूप में जाना जाता है. वैयक्तिक तौर पर वह एक दृढ़ निश्चयी और निर्णय लेने में आत्म-निर्भर महिला थीं. माता की खराब सेहत और पिता की व्यस्तता के चलते उनका अधिकांश बचपन नौकरों के साथ बीता. भले ही राजनैतिक पृष्ठभूमि और स्वतंत्रता आंदोलनों की वजह से उन्हें परिवार का अपेक्षित दुलार प्राप्त नहीं हो सका, लेकिन ब्रिटिश काल में भारत के बिगड़ते हालातों ने उन्हें इन आंदोलनों और संपूर्ण स्वाधीनता की जरूरत को भली प्रकार समझा दिया था. इन्दिरा गांधी ने अपने पिता को कार्यकताओं को संबोधित करते हुए सुना था. परिवार में अकेले होने के कारण उनका अधिकतर समय पिता की नकल करते हुए ही गुजरता था. उनके जैसी भाषण शैली में उनके पिता पं जवाहर नेहरू के प्रभाव को महसूस किया जा सकता था. ऐसी सामाजिक और पारिवारिक परिस्थितियों ने उन्हें एक मजबूत व्यक्तित्व प्रदान किया जो आगे चलकर उनके सफल राजनैतिक जीवन का आधार बना.
इंदिरा गांधी का राजनैतिक योगदान
गुलाम भारत की चिंतनीय स्थिति को इंदिरा ने बचपन में ही भांप लिया था. उनको यह समझ आ गया था कि किसी भी राष्ट्र के लिए स्वतंत्रता कितनी जरूरी है. क्रांतिकारियों और आंदोलनकारियों की सहायता करने के उद्देश्य से उन्होंने अपने हम उम्र बच्चों और कुछ मित्रों के सहयोग से ‘वानर सेना’ का गठन किया जिनका उद्देश्य देश की आजादी के लिए लड़ रहे लोगों को गुप्त और महत्वपूर्ण सूचनाएं प्रदान करना था. इंदिरा प्रियदर्शिनी गांधी को राजनीति की समझ विरासत में मिली थी, जिसकी वजह से जल्दी ही उनका प्रवेश राजनीति में हो गया था. यहां तक की पं जवाहर लाल नेहरू भी कई मसलों पर इंदिरा गांधी की राय लेते और उसे मानते भी थे. उचित और तुरंत निर्णय लेने की क्षमता ने कॉग्रेस सरकार में इंदिरा गांधी की महत्ता और उनके कद को कई गुणा बना दिया था. अपने दृढ़ और संकल्पशील आचरण की वजह से वह दो बार देश की प्रधानमंत्री रहीं. खलिस्तान आंदोलन को कुचलने और स्वतंत्र भारत में व्याप्त रजवाड़ों का प्रीवी-पर्स समाप्त करने का श्रेय इंदिरा गांधी को ही जाता है. अपनी राजनैतिक जिम्मेदारी को बखूबी निभाते हुए उन्होंने दो दशकों तक देश को मंदी के हालातों से बचाए रखा. देश को अधिक मजबूत और सशक्त बनाने के लिए इंदिरा गांधी ने कई प्रयास भी किए. इसके अलावा देश में पहला परमाणु विस्फोट करने का श्रेय भी मुख्य रूप से इंदिरा गांधी को ही जाता है.
इंदिरा गांधी की उपलब्धियां
अपने राजनैतिक कार्यकाल में उन्होंने कई उपलब्धियों को हासिल किया जिनमें निम्न प्रमुख हैं.
- बैंकों का राष्ट्रीयकरण सर्वप्रथम इंदिरा गांधी ने ही किया था.
- रजवाड़ों का प्रीवी-पर्स समाप्त करना उनकी एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है.
- ऑप्रेशन-ब्लू स्टार जिससे खालिस्तानी आंदोलन को समाप्त किया गया इंदिरा गांधी के आदेशों के अंतर्गत ही चलाया गया था.
- पांचवी पंचवर्षीय योजना के अंतर्गत गरीबी हटाओ का नारा दिया और देश से निर्धनता समाप्त करने के बीस सूत्रीय कार्यक्रमों का निर्धारण किया गया.
इंदिरा गांधी का निधन
खलिस्तान समर्थकों ने उनके द्वारा चलाए गए ऑप्रेशन ब्लू-स्टार का बहुत विरोध किया लेकिन इंदिरा ने इस ऑपरेशन को वापस नहीं लिया और उनके इस फैसले से नाराज उनके अंगरक्षकों ने ही उन्हें 31 अक्टूबर, 1984 को गोली मार दी.
इंदिरा गांधी का राजनैतिक जीवन काफी उतार-चढ़ाव भरा रहा. देश पर इमरजेंसी लगा मानवाधिकारों का हनन करना हो या खलिस्तान के विरोध में चलाया गया ऑप्रेशन ब्लू-स्टार जैसे कदमों पर आलोचकों और समाजशास्त्रियों द्वारा उनकी आलोचनाएं भी की जाती रहीं. आलोचकों का मानना है कि खलिस्तान के समर्थन में आंदोलन पहले इंदिरा गांधी और ज्ञानी जैल सिंह ने ही शुरू किया था लेकिन फिर बाद में इंदिरा ने ही इस आंदोलन को समाप्त करने के लिए ऑप्रेशन ब्लू-स्टार चलाया. लेकिन अपनी आलोचनाओं से वह घबराई नहीं बल्कि उनका सामना किया और आगे बढ़ीं. अपने फौलादी व्यक्तित्व और सकारात्मक दृष्टिकोण की वजह विश्व में उन्हें सबसे ताकतवर महिलाओं की श्रेणी में गिना जाता है. भारतीय राजनीति में उनके निर्णयों को मिसाल के तौर पर देखा जाता है. आज भी कई युवा जो राजनीति में अपना कॅरियर बनाना चाहते हैं इंदिरा गांधी को ही अपना आदर्श मानते हैं.
अटल बिहारी वाजपेयी
19 September 2013
अटल बिहारी वाजपेयी (जन्म: २५ दिसंबर, १९२४ ग्वालियर) भारत के पूर्व प्रधान मन्त्री हैं। वे भारतीय जनसंघ की स्थापना करने वालों में से एक हैं और १९६८ से १९७३ तक उसके अध्यक्ष भी रहे। वे जीवन भर भारतीय राजनीति में सक्रिय रहे। उन्होने लम्बे समय तक राष्ट्रधर्म, पांचजन्य और वीर अर्जुन आदि राष्ट्रीय भावना से ओत-प्रोत अनेक पत्र-पत्रिकाओं का सम्पादन भी किया। उन्होंने अपना जीवन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक के रूप में आजीवन अविवाहित रहने का संकल्प लेकर प्रारम्भ किया था और देश के सर्वोच्च पद पर पहुँचने तक उस संकल्प को पूरी निष्ठा से निभाया। वाजपेयी राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार के पहले प्रधानमन्त्री थे जिन्होने गैर काँग्रेसी प्रधानमन्त्री पद के 5 साल बिना किसी समस्या के पूरे किए। उन्होंने 24 दलों के गठबंधन से सरकार बनाई थी जिसमें 81 मन्त्री थे। कभी किसी दल ने आनाकानी नहीं की। इससे उनकी नेतृत्व क्षमता का पता चलता है।
आरम्भिक जीवन
उत्तर प्रदेश में आगरा जनपद के प्राचीन स्थान बटेश्वर के मूल निवासी पण्डित कृष्ण बिहारी वाजपेयी मध्य प्रदेश की रियासत ग्वालियर में अध्यापक थे। वहीं शिन्दे की छावनी में २५ दिसम्बर १९२४ को ब्रह्ममुहूर्त में उनकी सहधर्मिणी कृष्णा वाजपेयी की कोख से अटल जी का जन्म हुआ था। पिता कृष्ण बिहारी वाजपेयी ग्वालियर में अध्यापन कार्य तो करते ही थे इसके अतिरिक्त वे हिन्दी व ब्रज भाषा के सिद्धहस्त कवि भी थे। पुत्र में काव्य के गुण वंशानुगत परिपाटी से प्राप्त हुए। महात्मा रामचन्द्र वीर द्वारा रचित अमर कृति "विजय पताका" पढकर अटल जी के जीवन की दिशा ही बदल गयी। अटल जी की बी०ए० की शिक्षा ग्वालियर के विक्टोरिया कालेज (वर्तमान में लक्ष्मीबाई कालेज) में हुई। छात्र जीवन से वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक बने और तभी से राष्ट्रीय स्तर की वाद-विवाद प्रतियोगिताओं में भाग लेते रहे। कानपुर के डी०ए०वी० कालेज से राजनीति शास्त्र में एम०ए० की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। उसके बाद उन्होंने अपने पिताजी के साथ-साथ कानपुर में ही एल०एल०बी० की पढ़ाई भी प्रारम्भ की लेकिन उसे बीच में ही विराम देकर पूरी निष्ठा से संघ के कार्य में जुट गये। डॉ० श्यामा प्रसाद मुखर्जी और पण्डित दीनदयाल उपाध्याय के निर्देशन में राजनीति का पाठ तो पढ़ा ही, साथ-साथ पाञ्चजन्य, राष्ट्रधर्म, दैनिक स्वदेश और वीर अर्जुन जैसे पत्र-पत्रिकाओं के सम्पादन का कार्य भी कुशलता पूर्वक करते रहे।
राजनीतिक जीवन
वह भारतीय जनसंघ की स्थापना करने वालों में से एक हैं और सन् १९६८ से १९७३ तक वह उसके राष्ट्रीय अध्यक्ष भी रह चुके हैं। सन् १९५५ में उन्होंने पहली बार लोकसभा चुनाव लड़ा, परन्तु सफलता नहीं मिली। लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और सन् १९५७ में बलरामपुर (जिला गोण्डा, उत्तर प्रदेश) से जनसंघ के प्रत्याशी के रूप में विजयी होकर लोकसभा में पहुँचे। सन् १९५७ से १९७७ तक जनता पार्टी की स्थापना तक वे बीस वर्ष तक लगातार जनसंघ के संसदीय दल के नेता रहे। मोरारजी देसाई की सरकार में सन् १९७७ से १९७९ तक विदेश मन्त्री रहे और विदेशों में भारत की छवि बनायी।
१९८० में जनता पार्टी से असन्तुष्ट होकर इन्होंने जनता पार्टी छोड़ दी और भारतीय जनता पार्टी की स्थापना में मदद की। ६ अप्रैल, १९८० में बनी भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष पद का दायित्व भी वाजपेयी को सौंपा गया। दो बार राज्यसभा के लिये भी निर्वाचित हुए। लोकतन्त्र के सजग प्रहरी अटल बिहारी वाजपेयी ने सन् १९९७ में प्रधानमन्त्री के रूप में देश की बागडोर संभाली। १९ अप्रैल, १९९८ को पुनः प्रधानमन्त्री पद की शपथ ली और उनके नेतृत्व में १३ दलों की गठबन्धन सरकार ने पाँच वर्षों में देश के अन्दर प्रगति के अनेक आयाम छुए।
सन् २००४ में कार्यकाल पूरा होने से पहले भयंकर गर्मी में सम्पन्न कराये गये लोकसभा चुनावों में भा०ज०पा० के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबन्धन (एन०डी०ए०) ने वाजपेयी के नेतृत्व में चुनाव लड़ा और भारत उदय (अंग्रेजी में इण्डिया शाइनिंग) का नारा दिया। इस चुनाव में किसी भी पार्टी को बहुमत नहीं मिला। ऐसी स्थिति में वामपंथी दलों के समर्थन से काँग्रेस ने भारत की केन्द्रीय सरकार पर कायम होने में सफलता प्राप्त की और भा०ज०पा० विपक्ष में बैठने को मजबूर हुई। सम्प्रति वे राजनीति से सन्यास ले चुके हैं और नई दिल्ली में ६-ए कृष्णामेनन नार्ग स्थित सरकारी आवास में रहते हैं।
कवि के रूप में अटल
अटल बिहारी वाजपेयी राजनीतिज्ञ होने के साथ-साथ एक कवि भी हैं। मेरी इक्यावन कविताएँ अटल जी का प्रसिद्ध काव्यसंग्रह है। वाजपेयी जी को काव्य रचनाशीलता एवं रसास्वाद के गुण विरासत में मिले हैं। उनके पिता कृष्ण बिहारी वाजपेयी ग्वालियर रियासत में अपने समय के जाने-माने कवि थे। वे ब्रजभाषा और खड़ी बोली में काव्य रचना करते थे। पारिवारिक वातावरण साहित्यिक एवं काव्यमय होने के कारण उनकी रगों में काव्य रक्त-रस अनवरत घूमता रहा है। उनकी सर्व प्रथम कविता ताजमहल थी। इसमें ऋंगार रस के प्रेम प्रसून न चढ़ाकर "यक शहन्शाह ने बनवा के हसीं ताजमहल, हम हसीनों की मोहब्बत का उड़ाया है मजाक" की तरह उनका भी ध्यान ताजमहल के कारीगरों के शोषण पर ही गया। वास्तव में कोई भी कवि हृदय कभी कविता से वंचित नहीं रह सकता। राजनीति के साथ-साथ समष्टि एवं राष्ट्र के प्रति उनकी वैयक्तिक संवेदनशीलता आद्योपान्त प्रकट होती ही रही है। उनके संघर्षमय जीवन, परिवर्तनशील परिस्थितियाँ, राष्ट्रव्यापी आन्दोलन, जेल-जीवन आदि अनेकों आयामों के प्रभाव एवं अनुभूति ने काव्य में सदैव ही अभिव्यक्ति पायी।
अटल जी की प्रमुख रचनायें
उनकी कुछ प्रमुख प्रकाशित रचनाएँ इस प्रकार हैं :
- मृत्यु या हत्या
- अमर बलिदान (लोक सभा में अटल जी के वक्तव्यों का संग्रह)
- कैदी कविराय की कुण्डलियाँ
- संसद में तीन दशक
- अमर आग है
- कुछ लेख: कुछ भाषण
- सेक्युलर वाद
- राजनीति की रपटीली राहें
- बिन्दु बिन्दु विचार, इत्यादि।
पुरस्कार
- १९९२: पद्म विभूषण
- १९९३: डी लिट (कानपुर विश्वविद्यालय)
- १९९४: लोकमान्य तिलक पुरस्कार
- १९९४: श्रेष्ठ सासंद पुरस्कार
- १९९४: भारत रत्न पंडित गोविंद वल्लभ पंत पुरस्कार
जीवन के कुछ प्रमुख तथ्य
आजीवन अविवाहित रहे।
- वे एक ओजस्वी एवं पटु वक्ता (ओरेटर) एवं सिद्ध हिन्दी कवि भी हैं।
- परमाणु शक्ति सम्पन्न देशों की संभावित नाराजगी से विचलित हुए बिना उन्होंने अग्नि-दो और परमाणु परीक्षण कर देश की सुरक्षा के लिये साहसी कदम भी उठाये।
- सन् १९९८ में राजस्थान के पोखरण में भारत का द्वितीय परमाणु परीक्षण किया जिसे अमेरिका की सी०आई०ए० को भनक तक नहीं लगने दी।
- अटल सबसे लम्बे समय तक सांसद रहे हैं और जवाहरलाल नेहरू व इंदिरा गांधी के बाद सबसे लम्बे समय तक गैर कांग्रेसी प्रधानमंत्री भी। वह पहले प्रधानमंत्री थे जिन्होंने गठबन्धन सरकार को न केवल स्थायित्व दिया अपितु सफलता पूर्वक संचालित भी किया।
- अटल ही पहले विदेश मंत्री थे जिन्होंने संयुक्त राष्ट्र संघ में हिन्दी में भाषण देकर भारत को गौरवान्वित किया था।
वाजपेयी सरकार के कार्य
- एक सौ साल से भी ज्यादा पुराने कावेरी जल विवाद को सुलझाया।
- संरचनात्मक ढाँचे के लिये कार्यदल, सॉफ्टवेयर विकास के लिये सूचना एवं प्रौद्योगिकी कार्यदल, विद्युतीकरण में गति लाने के लिये केन्द्रीय विद्युत नियामक आयोग आदि का गठन किया।
- राष्ट्रीय राजमार्गों एवं हवाई अड्डों का विकास; नई टेलीकॉम नीति तथा कोकण रेलवे की शुरुआत करके बुनियादी संरचनात्मक ढाँचे को मजबूत करने वाले कदम उठाये।
- राष्ट्रीय सुरक्षा समिति, आर्थिक सलाह समिति, व्यापार एवं उद्योग समिति भी गठित कीं।
- आवश्यक उपभोक्ता सामग्रियों की कीमतें नियन्त्रित करने के लिये मुख्यमन्त्रियों का सम्मेलन बुलाया।
- उड़ीसा के सर्वाधिक गरीब क्षेत्र के लिये सात सूत्रीय गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम शुरू किया।
- आवास निर्माण को प्रोत्साहन देने के लिए अर्बन सीलिंग एक्ट समाप्त किया।
- ग्रामीण रोजगार सृजन एवं विदेशों में बसे भारतीय मूल के लोगों के लिये बीमा योजना शुरू की।
- ये सारे तथ्य सरकारी विज्ञप्तियों के माध्यम से समय समय पर प्रकाशित होते रहे हैं।
अटल जी की टिप्पणियाँ
चाहे प्रधान मन्त्री के पद पर रहे हों या नेता प्रतिपक्ष; बेशक देश की बात हो या क्रान्तिकारियों की, या फिर उनकी अपनी ही कविताओं की; नपी-तुली और बेवाक टिप्पणी करने में अटल जी कभी नहीं चूके। यहाँ पर उनकी कुछ टिप्पणियाँ दी जा रही हैं।
- "भारत को लेकर मेरी एक दृष्टि है- ऐसा भारत जो भूख, भय, निरक्षरता और अभाव से मुक्त हो।"
- "क्रान्तिकारियों के साथ हमने न्याय नहीं किया, देशवासी महान क्रान्तिकारियों को भूल रहे हैं, आजादी के बाद अहिंसा के अतिरेक के कारण यह सब हुआ ।"
- "मेरी कविता जंग का ऐलान है, पराजय की प्रस्तावना नहीं। वह हारे हुए सिपाही का नैराश्य-निनाद नहीं, जूझते योद्धा का जय-संकल्प है। वह निराशा का स्वर नहीं, आत्मविश्वास का जयघोष है
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