नए रंग से रेलों के जनरल कोच का ‘रंग’ भी बदलेगा ?
19 Jun 2018
भारतीय रेल फिर रंग बदलने वाली है। रेलवे के 164 साल के इतिहास में यह दूसरा बड़ा मौका है, जब रेलवे का व्यापक तौर पर ‘मेक अोवर’ का प्लान है। यह सब रेल यात्रियों को अच्छे सफर ( दिन नहीं !) का अहसास कराने के लिए किया जा रहा है। इसके तहत रेलों को ज्यादा आधुनिक, सुविधा सम्पन्न और तेज बनाया जा रहा है। लेकिन सर्वाधिक चर्चा इसके रंग को बदलने को लेकर है। इसलिए भी कि करीब ढाई दशकों से खुद को नीले रंग में रंगा देखकर खुद रेलें भी उकता गई होंगी। सो, अब इसे गाढ़े पीले और ब्राउन रंग में रंगा जाएगा। रेलों के प्रति गहरी सहानुभूित रखने वाले इस रंग की गहराई में जाने की कोशिश कर रहे हैं। यानी गाढ़ा पीला और ब्राउन यानी वास्तव में क्या? कुछ लोगों को मानना है कि इसे ‘भगवा’ कहने की जगह डार्क यलो अथवा ब्राउन जैसे अगल-बगल के शब्दों का इस्तेमाल किया जा रहा है।
खबर यह भी है कि इस बदले हुए रंग की पहली रेल दिल्ली-पठानकोट एक्सप्रेस होगी। इसमें कुल 16 कोच हैं। इस पूरी ट्रेन का रंग जून के आखिर तक बदल दिया जाएगा। ऐसे कुल 30 हजार कोचों का रंग बदला जाएगा। हालांकि जो वीआईपी ट्रेंने हैं, वो अपने पुराने रंग में ही दौड़ती नजर नहीं आएंगी। रंग रोगन के अलावा कुछ और सुविधाएं भी रेलों में जोड़ने का दावा है। मसलन आराम दायक सीट, वैक्युम बाथरूम और हर सीट पर मोबाइल चार्जर आदि। इसके अलावा चुनिंदा ट्रेनो में बायो टाॅयलेट की जगह विमान की तरह वैक्युम बायो टाॅयलेट लगाए जाएंगे। ऐसे 500 वैक्युम टाॅयलेट का आॅर्डर दे भी दिया गया है। थोड़े में समझें तो रेलों को भी एयरोप्लेन सा बनाने की मंशा है। इसके अलावा अहमदाबाद से मुबंई बुलेट ट्रेन का प्लान तो है ही।
भारतीय रेल सुविधा, सुरक्षा और समय की पाबंदी के मामले में दुनिया में िकसी भी क्रम पर रही हो, लेकिन रेलवे ट्रैक की लंबाई और इन पर चलने वाली गाडि़यों के मामले में वह विश्व की चौथी सबसे बड़ी रेलवे है। रेल विभाग लगभग 11 हजार 500 किमी लंबे ट्रैक पर कुल 12 हजार 617 ट्रेनें चलाता है। इनसे रोजाना औसतन 2 करोड़ से ज्यादा यात्री सफर करते हैं। दूसरे शब्दों देश की कुल आबादी का दो फीसदी हिस्सा रेल के सफर में रहता है। रेलों को देश की धमनियां भी कहा जाता है। वो अपने ढंग से भारत राष्ट्र को जोड़कर और जिंदादिल रखती हैं। बिना रेल के आज के भारत की कल्पना मुश्किल है।
यूं अपने प्रांरभ से लेकर रेलों में काफी अंतर आया है। वे ज्यादा आधुनिक हुई हैं। लेकिन रंग को लेकर रेलवे का रवैया परंपरावादी ही रहा है। इसके पीछे सोच यह भी हो सकती है कि बाहरी रंग बदलने में पैसा खर्च करने की जगह रेलों को यात्रियों की अपेक्षा के अनुरूप ढालने की ज्यादा जरूरत है। लेकिन इसके लिए रेलों का बाहरी मेक-अप भी बदलना जरूरी है, यह समझने में देश को सवा सौ साल लग गए। 1990 में सोचा गया कि रेल का घिसा पिटा कत्थई ( मरून ) कलर बदल कर उसे गहरे नीले रंग में क्यों न रंग दिया जाए। नीला शिव का रंग तो है ही वह गहरी शांति और संजीदगी का प्रतीक भी है। इसके चलते धीरे-धीरे सारी रेल गाडि़यां नीले रंग में रंग दी गईं। जब यह सिलसिला शुरू हुआ था, तब किसी का ध्यान नीले रंग के राजनीतिक एंगल पर शायद ही गया हो। लेकिन बाद में नीले पर बसपा, रिपब्लिकन पार्टी और अकाली दल का पेटेंट-सा हो गया। हालांकि रेलों के व्यवहार में उसके नीले होने का कोई असर नहीं आया। हो सकता है कि रेल आधुनिकीकरण के जुनून में िकसी का ध्यान नीले रंग के इस पाॅलिटिकल एंगल पर भी चला गया हो और उसने रेल को मुसाफिरी रंग के बजाए किसी राष्ट्रवादी (?) रंग में रंगने का नेक सुझाव दे डाला हो।
बहरहाल अच्छी बात यह है कि रेल में कुछ बदल तो रहा है, भले रंग ही सही। वरना हकीकत में रेल सफर अब आपके गंतव्य तक पहुंचने की न्यूनतम गारंटी देता है। हालांकि रेलवे का दावा है कि वर्ष 2017-18 में रेल दुर्घटनाअो में इसके पूर्व के वर्ष की तुलना में काफी कमी आई है। इस साल के दौरान कुल 73 रेल दुर्घटनाएं हुईं, जिनमें 254 रेल यात्रियों ने अपनी जानें गंवाईं। ज्यादातर दुर्घटनाएं रेल संचालन में गंभीर खामियों के कारण हुईं। इसी के चलते ढाई सौ यात्रियों के रेल का सफर जीवन का अखिरी सफर भी साबित हुआ। अभी भी रेलवे के 1217 ऐसे फाटक हैं, जिनपर कोई चौकीदार नहीं है। बाकी सुविधाअों के बारे में कम ही कहा जाए तो अच्छा ।
विडंबना यह है कि रेल आधुनिकीकरण का न्यूनतम असर रेल के जनरल क्लास के कोच में दिखता है। यहां अभी भी बैठने के लिए फट्टेनुमा सीटें होती हैं। ये कोच मनुष्य की सहनशीलता की पराकाष्ठा के जीते-जागते नमूने होते हैं। यहां कोई कहीं भी, किसी पर भी और किसी में भी बैठ सकता है। यहां टाॅयलेट भी ठुंसकर यात्रा करने की जगह है। ऐसे में कई बार यात्रियों को निवृत्त होने के लिए भी किसी स्टेशन का इंतजार करना पडता है या फिर कही चेन पुल करनी पड़ती है। जनरल क्लास में आदमी और सामान के बीच फर्क मिट जाता है। यहां शायद ही कोई यह देखने आता है कि इस कोच में बैठे लोग भी कम ही सही, कुछ पैसे देकर यात्रा कर रहे हैं और उनका भी गंतव्य वही है, जो दूसरे क्लास के यात्रियों का है।
चिंता की बात केवल इतनी है कि नए कलेवर में भी जनरल कोच का केवल बाहरी रंग ही बदलेगा। भीतर की तासीर और जद्दोजहद वही रहेगी। जो हाल मरून के जमाने में था, वह नीले में भी रहा और ‘भगवा’ में भी उसका भाग्य बदले, इसकी कोई गारंटी नहीं है। इतने सालों में एक अंतर जरूर आया है और वह है खुली खिड़कियों पर आड़ी सलाखें। वरना चालीस बरस पहले तकड खिड़की भी डिब्बे के उपप्रवेश द्वार हुआ करती थी। समझदार और दमदार इसीके जरिए घुस कर पहले सीट हथिया लेते थे। इसके बाद हालात और बदतर हुए हैं। दुआ करें कि अब नए रंग के साथ रेलों का भीतरी रंग भी बदलेगा।
अजय बोकिल
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