दुनियाभर में ई-समाचारपत्रों का विकास
- कीर्ति सिंह
दुनियाभर में अस्सी के दषक के अंत में ई-समाचारपत्रों का बीजारोपण हुआ था। इसी दौरान अमेरिका में कुछ समाचार-पत्र समूहों ने कप्यूटर में संभावनाओं को समझा और डायल-अप बुलेटिन बोर्ड की मदद से अपने पाठकों को समाचार उपलब्ध कराने आरंभ किये। इस सेवा में वर्गीकृत विज्ञापन, मनोरंजन व कारोबारी सूचनाएं और समाचार हेडलाइंस षामिल की गयी।
प्रिंट पत्रकारिता सभी प्रकार की पत्रकारिताओं की जननी है। आॅनलाइन होने के मुकाम तक पहुंचने के लिए इसे सालों का सफर तय करना पड़ा। स्वरूप, प्रस्तुतीकरण, विषय वस्तु में निरंतर बदलाव करके और नई-नई तकनीकों के साथ सामंजस्य स्थापित कर प्रिंट पत्रकारिता सर्वाधिक परिवर्तन के दौर से गुजरी है। इंटरनेट पर सूचनाओं का कारोबार सीधे रूप में प्रारंभ नहीं हुआ और न ही सीधे भारत में पहली बार ई-समाचारपत्र पैदा हुए। साठ के दषक में अमेरिका में इंटरनेट का जन्म हुआ और आमजन में सूचनाओं का दायरा विस्तृत करने में लगभग बीस साल लग गए। समाचार-पत्र प्रकाषक समूह लंबे समय तक आॅनलाइन पब्लिषिंग प्लेटफार्म के रूप में इंटरनेट का सही-सही अनुमान ही नहीं लगा पाए। वर्ल्ड वाइड वेब के आगमन के बाद ही तरीके से ई-समाचारपत्रों का पदार्पण इंटरनेट पर हुआ।
ई-समाचारपत्रों का जन्म
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दुनियाभर में अस्सी के दषक के अंत में ई-समाचारपत्रों का बीजारोपण हुआ था। इसी दौरान अमेरिका में कुछ समाचार-पत्र समूहों ने कंप्यूटर में संभावनाओ को समझा और डायल-अप बुलेटिन बोर्ड की मदद से अपने पाठकों को समाचार उपलब्ध कराने आरंभ किये। इस सेवा में वर्गीकृत विज्ञापन, मनोरंजन व कारोबारी सूचनाएं और समाचार हेडलाइंस षामिल की गयीं। सन् 1991 में षिकागो ट्रिब्यून कंपनी ने अमेरिका आॅनलाइन में निवेष किया। ई-समाचारपत्रों के विकास से कंप्यूटर और विषेषकर इंटरनेट का तकनीकी विकास जुड़ा हुआ है। इंटरनेट के विस्तार में बेहतर आॅपरेटिंग सिस्टम और ग्राफिक्स युजर इंटरफेस का बड़ा योगदान रहा है। क्योंकि इसके बाद आम ग्राहक भी कंप्यूटर पर आसानी से माऊस की मदद से काम कर सकता था। आरंभ में अधिकांष कंप्यूटर और इंटरनेट कंपनियों ने अपने ग्राहकों के लिए टेक्सट के रूप में समाचार सेवा आरंभ की। नब्बे के दषक के दौरान द् इलेक्ट्रोनिक ट्रिब ने पहली कंप्यूटर आधारित इलेक्ट्रोनिक न्यूजपेपर सेवा आरंभ की। ये पेपर बीबीएस साॅफ्टवेयर का उपयोग करता था। इसी अवधि में स्विटजरलैंड में टिम बर्नर्स ली ने हाइपर टेक्सट मार्कअप लैंग्वेज ;भ् ज् ड स्द्ध ईजाद कर ली। इंटरनेट आध्ाारित सामग्री के लिए यह भाषा एक बड़ा वरदान साबित हुई। मई 1992 में षिकागो ट्रिब्यून ने दुनिया का पहला ई-समाचार पत्र षिकागो आॅनलाइन के नाम से अमेरिका आॅनलाइन ;। व् स्द्ध की वेबसाइट पर समाचार सेवा आरंभ की थी। क्योंकि षुरूआती काल में किसी भी समाचारपत्र की अपनी अलग से वेबसाइट नहीं होती थी। सन् 1992 में ही चारलो आॅब्जरर्वर ने कनेक्ट आॅब्जर्वर नाम से एक समाचार सेवा आरंभ की। इसे भी बीबीएस साॅफ्टवेयर की मदद से देखा जा सकता था। सन् 1992 के मध्य तक अमेरिका और कनाडा में 11 समाचार पत्रों ने इंटरनेट पर अपनी मौजूदगी दर्ज करा दी थी। यह साल ई-समाचारपत्रों के लिए षानदार साबित हुआ, क्योंकि 9 जून, 1992 को अमेरिकी कांग्रेस ने इंटरनेट के व्यावसायिक प्रयोग से पाबंदी हटा दी। परिणामस्वरूप इंटरनेट पर ई-समाचारपत्रों का तेजी से विकास हुआ। सन् 1993 में पहला वेब ब्राउजर मोजैक भी इसके अगले ही साल 1993 में बाजार में उतारा गया। ब्राउजर की मदद से इंटरनेट पर काम करना काफी आसान हो गया था। सर्फिग सुविधा की तरक्की के एक माह बाद ही फ्लोरिडा विष्वविधालय के पत्रकारिता विभाग ने दुनिया की पहली पत्रकारिता वेबसाइट आरंभ कर दी थी।
वैश्विक धरातल पर
------------------------ षिकागो आॅनलाइन के लांच होने के दो साल बाद सन् 1994 में अमेरिका आॅनलाइन के ग्राहकों की संख्या छह लाख को पार कर गयी। इसकी लोकप्रियता को देखते हुए द् न्यूयाॅर्क टाइम्स ने इसी साल अमेरिका आॅनलाइन पर /ज्पउमे लाॅच किया। जल्दी ही मिनियापोलिस स्टार ट्रिब्यून ने भी इंटरनेट पर अपनी षुरूआत कर दी। इसी वर्ष दुनिया का पहला और पूरी तरह से वेब आधारित समाचारपत्र द पाॅलो अल्टो वीकली षुरू हुआ ;केरेल्सन, 2003द्ध। अगले डेढ़ साल में अधिकतर आॅनलाइन समाचारपत्रों की अपनी वेबसाइट अस्तित्व में आ चुकी थीं ;हाल,2001द्ध। यह छोटी सी अवधि समाचारपत्रों के लिए चुनौतियों से भरी थी। जैसे आॅनलाइन समाचार-पत्रों का लेआउट डिजाइन, प्रकाषक के स्तर पर सांगठनिक ढांचा कैसा हो और पाठकों की प्राथमिकताओं व डेमोग्राफिक्स में होने वाले परिवर्तन को किस प्रकार देखा जाये।
जल्द ही अमेरिका की मीडिया कंपनी टाइम वार्नर ने वेब पर अपनी अलग साइट पाथफाइंडर के नाम से आरंभ की। धीरे-धीरे अमेरिका के सभी बड़े समाचार पत्र समूहों ने अपने आॅनलाइन संस्करण आरंभ करने की योजना बना ली। लाॅस एंजिलेस टाइम्स और न्यूयोर्क न्यूजटुडे ने अपने आॅनलाइन संस्करण षुरू किये। अमेरिका ही नहीं पूरे यूरोप में मीडिया में आॅनलाइन क्रांति को लेकर समाचार-पत्र समूहों में उत्साह दिखाई देने लगा। एक अनुमान के अनुसार सन् 1994 के अंत तक पूरे यूरोप में करीब 200 समाचार पत्र अपना आॅनलाइन संस्करण आरंभ कर चुके थे। ;डेविड कैर्लसन 2009 अस्तित्व के लिए संघर्षएक समय के बाद महसूस होने लगा कि इंटनेट संस्करण तेजी से आरंभ हो रहे हैं परंतु उनसे आय ना के बराबर हो रही है। सन् 2001 में अमेरिका और कनाडा में विज्ञापन से होने वाली आय घटने की वजह से बड़े समाचार संगठनों ने अपने आॅनलाइन आॅपरेषन से जुड़े स्टाफ की छंटनी कर दी। अधिक पाठक ना होने के कारण ई-समाचारपत्रों को मिलने वाले विज्ञापन कम होना प्रारंभ हो गये। आय में तेजी से आयी इस गिरावट के बाद अनेक ई-समाचारपत्र संकट में घ्िार गये। इसका एक कारण कंप्यूटर और इंटरनेट से जुड़ी कंपनियों में संकट की स्थिति भी थीै यही वह समय था जब पूरी दुनिया आर्थिक मंदी के चक्र से घिरी हुर्ह थी। इसके अलावा ई-समाचारपत्रों के पास कोई सफल बिजनेस माॅडल भी नहीं था। आर्थिक संकट के बावजूद परंपरागत समाचार पत्रों की तुलना में ई-समाचारपत्रों ने अपनी विषेषता और उपयोगिता को निरंतर महसूस करवाया। सन् 2002 में निल्सन की अनेक रिपोर्टो ने साबित किया कि वल्र्ड ट्रेड सेंटर पर आक्रमण के बाद और इराक पर अमेरिकी व अन्य सेनाओं के आक्रमण के बाद पाठकों ने प्रकाषित अखबारों की तुलना में उनके आॅनलाइन संस्करणों का अधिक सहारा लिया। इस दौरान सीएनएन डाॅट काॅम और गूगल न्यूज पर रिकाॅर्ड क्लिक हुए।
एशिया में प्रसार
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जल्दी ही एषियाई देषों में भी समाचार-पत्रों ने इंटरनेट की तरफ कदम बढ़ाना आरंभ कर दिया। सन् 1995 में सिंगापुर बिजनेस टाइम्स, मेलबोर्न ऐज, और सिडनी माॅर्निग हेराल्ड ने अपने आॅनलाइन संस्करण षुरू कर दिये थे। इस साल के अंत तक आॅनलाइन समाचार पत्रों की संख्या इस प्रकार थी- अमेरिका ;208द्ध, यूरोप ;56द्ध, लातिन अमेरिका ;16, कनाडा ;16, एषिया ;11, आस्ट्रेलिया और एषियाई देष ;11, न्यूजीलैंड ;5, अफ्रीका ;2 ;डेविड कैर्लसन 2009
वर्ष 1995 में ही समाचार समिति एसोसिएटिड प्रैस ने आॅनलाइन समाचार-पत्रों को सूचना पहुंचाने के उद्देष्य से द् वायर नामक अपनी वेब सेवा आरंभ की। वाॅल स्ट्रीट जर्नल ने भी इसी वर्ष इंटरएक्टिव संस्करण वेब पर चालू किया लेकिन यह एक पेड वेबसाइट थी जिसके लिए वार्षिक षुल्क चुकाना जरूरी था। सन् 1996 में षिकागो ट्रिब्यून अमेरिका आॅनलाइन से अलग अपनी नई न्यूज पेपर साइट आरंभ की। इस वेबसाइट पर षिकागो ट्रिब्यून ने अपने प्रकाषित संस्करण के सभी हिस्से षामिल किये गये। ब्रिटिष ब्राॅडकास्टिंग काॅर्पोरेषन ;ठठब्द्ध ने 1997 में बिटेन में वेब news.bbc.co.uk नाम से अपनी साइट आरंभ की।
आॅनलाइन पत्रकारिता की भूमिका एवं महत्व को देखते हुए पुलित्जर बोर्ड ने 1997 में आॅनलाइन प्रकाषित हुई खबरों और लेखों के लिए अलग से पुरस्कारों की घोषणा की। इस समय तक दुनियाभर में अखबारों में इंटरनेट संस्करण आरंभ करने की होड़ ष्षुरू हो चुकी थी। कुछ देषों में ये विकास दर लगभग दो सौ प्रतिषत भी रही है। क्योंकि अंतरराष्टीय षेयर बाजार में डाॅट काॅम कंपनियों की कीमतें आसमान छू रही थीं। सभी बड़े औद्योगिक समूह, जो अन्य उत्पादों में लगे थे, उन्होंने इस नये उभरते कारोबार में रूचि दिखानी आरंभ कर दी थी।
इस प्रकार एकाएक सभी समाचार समूह आॅनलाइन मंच पर अपनी पहचान के लिए आकर्षित होने लगे। इसके पीछे ठोस कारणों की तलाष करने हेतु गंभीर अध्ययन हुए। जिनसे कई महत्वपूर्ण तथ्य निकल कर आए। 1999 में की गयी पेंग की षोध यहां विषेषतौर से उल्लेखनीय है। इनके अनुसार परंपरागत समाचार-पत्रों के आॅनलाइन संस्करणों को आरंभ रने के पीछे प्रमुख कारण अधिकाधिक पाठकोें तक पहुंचना ;40 अध्ाक आय अर्जित करना ;26ःद्ध और अपने प्रिंट संस्करणों का अधिक प्रचार करना था। न्यूजपेपर एसोसिएषन आॅफ अमेरिका ;छ।।द्ध के एक अन्य अध्ययन ;2002द्धके मुताबिक अमेरिका में आॅनलाइन समाचार-पत्र स्थानीय समाचारों को जानने के लिए मुख्य स्त्रोत थे।
भारतीय ई-समाचारपत्रों का सफर
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सन् 1995 में भारत में इंटरनेट का आगमन हुआ और भारत को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कंप्यूटरों से जुड़ने का पहली बार अवसर प्राप्त हुआ। डेविड केर्लसन की टाइमलाइन के अनुसार 1995 के अंत तक आस्ट्रेलिया और एषियाई देषों में कुल मिलाकर केवल 11 समाचार पत्र आॅनलाइन थे। जबकि सन् 1998 में पूरे एषिया में 223 समाचार-पत्र आॅनलाइन हो चुके थे ;डमलमतए 1998द्ध। भारत में समाचार-पत्रों को सीध्ो आॅनलाइन करने की बजाय सर्वप्रथम नये माध्यम में संभावनाओं की तलाष की गई।
आलेखबेनेट एंड काॅलमेन जैसी बड़ी कंपनियों ने सूचनाओं के उद्देष्य से इंटरनेट प्रकाषन में हाथ आजमाने की कोषिष की। हालांकि भारतीय परिवेष की सूचनाएं भारत में इंटरनेट आने के पहले ही आॅनलाइन थी। ये सूचनाएं केवल गैर प्रवासी भारतियोे को ही उपलब्ध होती थी। राजेष जैन नामक एक भारतीय युवक ने 1995 में भारत में इंटरनेट प्रारंभ होने से पांच महीने पहले यानी मार्च में एक वेब पोर्टल लांच किया। इस पोर्टल के लिए अमेरिका के सर्वर की मदद ली। वेब पोर्टल का नाम पदकपंूवतसकण्बवउ रखा गया। राजेष जैन के अनुसार यह भारत का पहला वेब पोर्टल था। पहले पहल इस पर समाचारों व सूचनाओं का प्रकाषन होता था। सूचनाओं के लिए विषय सामग्री अलग-अलग मीडिया स्त्रोतों से जुटाई जाती थी। ये स्त्रोत थे द इंडियन एक्सप्रेस, इंडिया टुडे, डाटाकेस्ट, रिडर्स डाइजेस्ट, केनसोर्स, क्रिसिल, सेंटर फाॅर माॅनीटरिंग द इंडियन इकाॅनोमी, डीएसपी फाइनेंषियल इत्यादि। पोर्टल के लांच होने के दो दिन बाद ही यूनियन बजट को लाइव कवर किया गया। टेलीविजन सैट लगे एक कमरे में विष्लेषकों और पत्रकारों के एक समूह को बैठाया गया, ताकि टेलीविजन पर बजट देखकर वे तुरंत अपनी टिप्पणियां दे सकें। जैसे ही टिप्पणियां प्राप्त होती, तुरंत प्रभाव से टाइप कर वेबसाइट पर अपलोड कर दिया गया।
धीरे-धीरे पोर्टल के मालिक ने गैर-समाचार वेबसाइट भी आरंभ की। सबसे पहले ाीवरण्बवउ नाम से अपना सर्च इंजन षुरू किया। उसके बाद खेल, मनपसंद, इंडियालाइन, समाचार, धन, बावर्ची, इतिहास, और न्यूजएषिया ;एषियन क्षेत्रों से समाचारद्ध आदि सेवाएं भी देनी प्रारंभ कर दी। सन् 1999 में सत्यम इंफोवे ने इस पोर्टल को खरीद लिया। वर्तमान में आॅनलाइन समाचारों का उत्पादन एक व्यवसाय की भांति फल-फूल
रहा है। महानगरों, छोटे ष्षहरों और कस्बों हर कहीं से प्रकाषित एक छोटा सा समाचार पत्र और स्थानीय टेलीविजन चैनल भी इंटरनेट पर अपनी मौजूदगी बनाए हुए हैं। इंटरनेट पर सूचनाओं के स्थानीयकरण का चलन 2000 के बाद तेजी से बढ़ा है। इससे पहले वेब पोर्टल के माध्यम से सभी प्रकार की सामग्री एक ही साइट पर मिलती थी। वेब पोर्टल के माध्यम से सूचनाओं के वितरण का एक उद्देष्य कहीं-न-कहीं इंटरनेट की लोकप्रियता का अनुमान लगाना भी था।
इस तरह से 1995 में इंटरनेट में निहित संभावनाओं के मद्देनजर सभी प्रकार की विषय-सामग्री पोर्टल के माध्यम से उपलब्ध करवाने का चलन षुरू हुआ। इसी क्रम में 1995 में रिडिफ्यूजन विज्ञापन एजेंसी के सह संस्थापक अजीत बालकृष्णन ने रेडिफ डाॅट काॅम नाम से एक वेब पोर्टल बनाया। रिडिफ अपनी ई-मेल सेवा के लिए सर्वाधिक लोकप्रिय हुआ। सन् 1996 में बैनेट एंड काॅलमैन लिमिटेड कंपनी ने इंटरनेट की दुनिया में आने का फैसला किया। टाइम्स इंटरनेट के प्रेजीडेंट सुनील राजशेखर के अनुसार उनकी कंपनी नए माध्यमों में छिपी संभावनाओं को खोजना चाहती थी। इसलिए इसने अपने सभी ब्रांडों को आॅनलाइन करने का फैसला लिया। कंपनी का एकमात्र लक्ष्य आर्थिक लाभ कमाना था। सबसे पहले उसने फेमिना और फिल्मफेयर मनोरंजन पत्रिकाओं को आॅनलाइन किया। उसके बाद कंपनी के सर्वाध्ाक बिक्री होने वाले समाचारपत्रों टाइम्स आॅफ इंडिया और द इकोनोमिक टाइम्स को भी इंटरनेट पर डाल दिया। हालांकि डिजीटल स्वरूप मे इंटरनेट पर दिखने वाले इन समाचार-पत्रों की विषय-वस्तु व समाचार प्रकाषित संस्करणों से ही उठायी जाती थी। नये माध्यम में संभावनाओं की तलाष के बाद बीसीसीएल ने भी 1998-99 में आखरिकार इंडियाटाइम्स डाॅट काॅम नाम एक पोर्टल शुरू कर दिया।आरंभिक भारतीय ई-समाचारपत्र भारत में आॅनलाइन पत्रकारिता का प्रारंभिक चरण नब्बे के दशक का मध्य माना जाता है। जबकि इस दशक के अंतिम वर्षो को नेट पत्रकारिता के दूसरे चरण की संज्ञा दी गई है। क्योंकि दूसरे चरण में हिंदी समाचारपत्रों ने भी इंटरनेट पर आना षुरू कर दिया था। इंटरनेट हिंदी पट्टी के समाचारपत्र प्रकाषकों के लिए एक बड़ी चुनौती बनकर आया था। ये बड़ी चुनौती थी हिंदी फोंट का उपलब्ध न होना। विदेषों से तकनीक तो आयात कर ली गई थी पर उसे अपने परिवेश के अनुरूप ढालकर प्रयोग करने की जिम्मेदारी स्वयं भारत की थी।
भारत में ई-समाचारपत्रों की शुरूआत 1995 से ही मानी गई है। जहां तक वेब पत्रकारिता की शुरूआत की बात है तो, 1992 में वर्ल्ड वाइड वेब जारी होने के बाद 1995 तक विश्व में यूजनेट पर करीब ढाई हजार समाचार ग्रूप छा गये। 1995 में चेन्नई से प्रकाषित दैनिक अंग्रेजी पत्र ‘हिन्दू’ ने नेट संस्करण शुरू किया। इसी के साथ देषी वेब पत्रकारिता ने जोर पकड़ा और 1996 में ‘टाइम्स आॅफ इंडिया और ‘द हिन्दुस्तान टाइम्स’ ने अपना इंटरनेट संस्करण षुरू किया। और आज इनकी संख्या में दिनों दिन बढ़ोत्तरी हो रही है। सन् 1997 में दैनिक जागरण ने ‘जागरण डाॅट काॅम’ 1998 में अमर उजाला ने ‘अमरउजाला डाॅट काॅम’, दैनिक भास्कर ने ‘भास्कर डाॅट काॅम’, 1999 में ‘वेबदुनिया डाॅट काॅम’ और 2000 में प्रभात खबर ने ‘प्रभातखबर डाॅट काॅम’ नाम से अपनी समाचार साइट लाॅच कर दी।
जनवरी, 2011 में जागरण समूह ने अग्रेजी में जागरणपोस्ट डाॅट काॅम नाम से अपनी नई वेबसाइट लांच की। लेकिन बेहतर प्रदर्षन न कर पाने के कारण वेबसाइट की काफी आलोचना हुई। जागरण पोस्ट के नाम से लांच यह वेबसाइट हिंदी पट्टी के अखवारों की दूसरी अंग्रेजी वेबसाइट बन गई है। क्योंकि इसके पहले भास्कर समूह ने भी अपनी अंग्रेजी सेवा वाली अलग से समाचार वेबसाइट लांच कर दी थी। लगभग एक साल के भीतर ही जागरण समूह ने अपने ई-समाचारपत्र के रंग-रूप, डिजाइनिंग को लेकर भी काम किया। याहू कंपनी के साथ किये करार की समाप्ति की घोषणा के साथ ही नए यूआरएल पते के साथ इंटरनेट पर अपनी पुराने ई-समाचारपत्र को नए कलेवर मे प्रस्तुत किया। जनवरी 2012 में जागरण ने नए नाम से www.jagran.com इंटरनेट पर अपना हिंदी ई-समाचारपत्र चालू कर दिया। फिलवक्त जागरण समूह का पुराना ई-समाचारपत्र भी www.in.jagran.yahoo.com यूआरएल के साथ इंटरनेट पर देखने को मिल सकता है।
बेहतरी की तरफ कदम मई, 2011 में प्रवासी भारतीयों को लक्ष्य कर अमरउजाला ने news.amarujala.com नाम से अंग्रेजी में अपना ई-समाचारपत्र चालू किया। इस तरह से एक-एक करके फरवरी, मार्च और अप्रैल में अमर उजाला समाचार समूह ने एजूकेशन, केट और काॅमपेक्ट नाम से तीन वेबसाइट षुरू की। ;एक्सचैंज फाॅर मीडिया,काॅम,19 मई,2011द्ध जबकि अमर उजाला का हिंदी ई-समाचारपत्र इससे पहले से ही वेब पर उपलब्ध था। अंग्रेजी पत्रकारिता के क्षेत्र में पहला ई-समाचारपत्र द हिंदू ने भी साल 2006 में अपने आॅनलाइन संस्करण में कुछ परिवर्तन किए। अपने ई-समाचारपत्रके साथ अपने प्रकाषित दैनिक का पीडीएफ वर्जन अर्थात् ई-पेपर संस्करण भी पाठकों को उपलब्ध करवाया।
इसी तर्ज पर राजस्थान पत्रिका ने 2008 में अपनी वेबसाइट का पहले से अध्िाक इंटरएक्टिव एवं वेब आधारित सुविधाओं से भरपूर बनाते हुए नए आकर्षक स्वरूप में पुनः लोकार्पण किया। इंटरनेट पर आगमन के बाद भारतीय ई-समाचारपत्रों के विकास का यह दूसरा दौर कहा जा सकता है। जब समाचार वेबसाइट अपनी प्रस्तुति पर गंभीरतापूर्वक विचार कर रही हैं। अधिकाधिक यूजर, हिट रेट्स एवं विज्ञापन जुटाने की प्रतिस्पर्धा में अपने आॅनलाइन संस्करणों को अधिक समृद्ध बनाने मे लगी हैं। यूजर की सुविधानुरूप मोबाइल संस्करण हेतु अपने अखबारों के हल्के स्वरूप उपलब्ध करवा रही हैं। ई-समाचारपत्र इस मुकाम तक पहंुच चुके हैं कि अब यह कहा जा सके कि लंबे इंतजार के बाद इन्होंने अपने लिए पाठक जुटा लिए हैं। परंतु ये नहीं कहा जा सकता कि भारतीय ई-समाचारपत्रों की चुनौतियां खत्म हो गई हैं। यूनिकोड फोंट व क्षेत्रीय भाषाओं पर आधारित नए साॅफ्टवेयर प्रोग्राम ने भाषा संबंधी समस्या को सुलझाया है। विदेषों में ई-समाचारपत्रों की पठनीयता पर हुए षोध बताते हैं कि समाचारपत्रों की प्रकाषित प्रति आॅनलाइन समाचार पत्रों की अपेक्षा पाठकों को अधिक सुविधाजनक लगती हैं। अतः डेस्कटाॅप, लैपटाॅप, ई-रीडर, मोबाइल स्क्रीन पर असुविध्ााजनक अनुभव के मद्देनजर विषेष डिस्पले तकनीक पर काम प्रारंभ हो चुका है। निस्संदेह भारतीय ई-समाचारपत्रों को भी अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए समय के साथ खुद को संवर्दि्धत करने की आवष्यकता महसूस होती रहेगी। और ई-समाचारपत्रों में परिष्कर्ण, संवर्द्धन का ये सिलसिला यूं ही चलता रहेगा। नये माध्यम की निरंतर परिवर्तनषील प्रकृति की बदौलत ई-समाचारपत्रों के क्षेत्र में अभी बहुत कुछ होना बाकी है। विकास की ये प्रक्रिया यहीं थमी नहीं है। बीबीसी हिंदी डाॅट काॅम की संपादक सलमा जैदी का मानना है कि आॅनलाइन पत्रकारिता अभी पूरी तरह जमीनी स्तर से नहीं जुड़ पायी है। महंगी तकनीक एवं कंप्यूटर, ब्राॅडबैंड कनैक्षन में उच्च क्षमता का अभाव ये तमाम कारण उनके अनुसार आॅनलाइन पत्रकारिता के फैलाव में बाधक हैं। इस तथ्य में सौ प्रतिषत सच्चाई है।
ई-समाचारपत्रों का भविष्य
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आज जिस स्वरूप में ई-समाचारपत्र दुनिया भर मे दिखाई दे रहे हैं, वह अत्यधिक संवर्दि्धत एवं परिष्कृत स्वरूप है। निरंतर सालों तक कई फेर-बदल के बाद ई-समाचारपत्रों ने मानक शक्ल अख्तियार की है। मानक षक्ल से अभिप्राय ई-समाचारपत्रों का ले-आउट, स्वरूप एवं डिजाइनिंग, समाचारों का प्रस्तुति का तरीका, नेवीगेष्नल सुविधाएं इत्यादि से है। ठीक इसी दृष्टिकोण से पष्चिम में अनेक षोध हुए हैं। ये शोध यह स्पष्ट करते हैं कि आॅनलाइन समाचार सामग्री तीन स्तरों पर जाकर विकसित हुई है। पहले स्तर पर प्रकाषित समाचार-पत्र की सामग्री को ही आॅनलाइन संस्करणों के लिए ज्यों का त्यो उपलब्ध करवाया जाता था। ई-समाचारपत्रों का दूसरा चरण वह आया जब विषय-सामग्री को इंटरएक्टिव सुविधाओं जैसे सर्च इंजन, हाइपरलिंक्स और उपयोगकर्ता अपने अनुसार सामग्री को ढाल कर प्रयोग कर सके आदि सुविधाओं के साथ उपलब्ध करवाया जाने लगा। तीसरे स्तर पर जाकर आॅनलाइन समाचार-पत्रों के लिए प्रकाषित समाचार-पत्र सामग्री से अलग मौलिक सामग्री का निर्माण किया जाने लगा।
पिछले कुछ सालों के दौरान बाजार में विज्ञापनों के बंटवारे पर नजर डालें तो ये स्पष्ट हो जाता है कि ई- समाचारपत्रों के पाठकों की संख्या बढ़ने के साथ-साथ उनकों मिलने वाले विज्ञापनों की संख्या भी निरंतर बढ़ रही है। आय बढ़ने के साथ ही समाचार-पत्र समूह अपने इंटरनेट संस्करण कार्यालय में कर्मचारियों की संख्या भी बढ़ा रहे हैं। निःसंदेह कहा जा सकता है कि ई-समाचारपत्रों का भविष्य उज्जवल है और ई-समाचारपत्रों की संख्या के साथ-साथ इनके पाठकों की संख्या में भी निरंतर बढ़ोतरी होगी। दिनोंदिन ई-समाचारपत्रों पर उपलब्ध सामग्री की मात्रा और गुणवत्ता बढ़ रही है। अपने पाठकों की पसंद के अनुरूप ई-समाचारपत्र नये प्रयोग कर रहे हैं और पहले से बेहतर और सुंदर बन रहे हैं। भारत में भले ही आज ई-समाचारपत्रों के प्रसार का कोई असर प्रकाषित संस्करणों पर नहीं दिखाई दे रहा लेकिन ऐसा भविष्य में नहीं होगा ये अभी दावे से नहीं कहा जा सकता।
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जनसंचार एवं मीडिया प्रौद्योगिकी संस्थान,
कुरूक्षेत्र विष्वविद्यालय, कुरूक्षेत्र 136119, हरियाणा
व्यवस्था और पत्रकारिता
- सुरेन्द्र पाठक
पत्रकारिता के वैश्विक उद्देश्य मानवता या सामाजिकता के लक्ष्य को पूरा करने की दिशा में प्रकाशित संपादकीय टिप्पणी, आलेखों और समाचारों के चयन के आधार पर स्पष्ट हो सकते हैं। राष्ट्रीय स्तर पर पत्रकारिता के उद्देश्य संविधान और संविधान की मूल भावना की पूर्ति के लिए की गई राजनीतिक गतिविधियों, शासनिक-प्रशासनिक प्रक्रियाओं, जन गतिविध्िायों और उसकी समीक्षा-मूल्यांकन से स्पष्ट होते हैं। ऐसे वैश्विक उद्देश्यों के ध्रुवीकरण के अभाव में ही पत्रकारिता पर भटकाव, मूल्यहीनता और राजनीतिक-व्यवसायिक उद्देश्यों की पूर्ति में कार्य करने के आरोप लगते रहे हैं। संविधान की मूलभावना या संविधान का उद्देश्य भी मानवता या सामाजिकता की पूर्ति के लिए एक व्यवस्था देने का है। जिसके आधार पर जनता की स्वीकृति से शासन-प्रशासन का समूचा ढांचा खड़ा किया गया है। वस्तुतः संविधान मानव में, से, के लिए ऐसी व्यवस्था ;विधि-विधानद्ध है जिसमें मानव परस्पर आपसी स्वीकृति के आधार पर स्वतंत्रता, समता, न्याय, निजता की गरिमा आदि को प्राप्त करने एक व्यवस्था के रूप में आंशिक रूप से शासन को स्वीकार करता है। अन्यथा मानव को स्वयं पर दूसरों का शासन कतई स्वीकार नहीं है। व्यवस्था में जीने और व्यवस्था के जीने में आने वाली सरलता एवं सुविधा उसे स्वयं को किसी शासन की अधीनता स्वीकार करने प्रलोभित करती है। पत्रकारिता इस दिशा में होने वाले प्रयास, श्रम, गतिविधियों, योजनाओं, नीतियों आदि को प्रकाशित, प्रसारित करने का प्रयास है। अतः पत्रकारिता का मूल लक्ष्य मानवता और सामाजिकता के लिए स्पष्ट होता है। मानवता, मानवत्व एवं सामाजिकता को समझने और उसके अनुरूप प्रयास एवं श्रम करने की चेष्टा मानव व्यक्तिगत रूप से और सामूहिक रूप से करता रहा है।
प्रत्येक संविधान एवं हर प्रकार की राज्य व्यवस्था तथा सभी धर्मो का उद्देश्य भी मानवता की पूर्ति ही है। सभी विधि-विधान, राज्य,शासन प्रणालियां और धर्म की नीतियां सामाजिक परंपराएं सभी मानवता के उद्देश्यों की पूर्ति के लिए हैं। संविधान, व्यवस्था, सामाजिकता, ध्ार्म सभी मानव मात्र के लिए है अतः इन सभी में जितना अधिक मानवत्व और मानवता होगी उस आधार पर ही इनकी श्रेष्ठता स्वीकार होगी। यदि संविधान, व्यवस्था, धर्म एवं समाज में मानव विरोधी गतिविधियों के रूप में हिंसा, आतंक, घृणा, द्वेष, लोभ, शोषण है तो उनकी श्रेष्ठता पर संदेह स्वाभाविक है और मानव जाति का उस पर से विश्वास उठना भी स्वाभाविक प्रक्रिया है। सत्ता-तंत्र परिवर्तन धर्म से विमुखता तथा रीतिरिवाजों परम्पराओं में परिवर्तन या सांस्कृतिक परिवर्तन दुनियाभर में होते रहे हैं।
चाहे हिन्दुत्व हो या कोई भी धर्म परंपरा यदि वह अपने तर्क, दर्शन, चिंतन, मूल्य, नीति एवं रीतिरिवाज आदि को दूुसरों से श्रेष्ठ मानती है दूसरों को अपने से हेय मानती है तो स्वभाविक रूप से अहंकार, द्वंद्व, तनाव और रोष होगा ही। मुस्लिम धर्म संगठन हो या हिन्दु धर्म संगठन या फिर यहूदी हो या फिलिस्तीनी श्रेष्ठता का आधार तो मानवता या मानवीय आकांक्षाओं व मानवीय लक्ष्यों की पूर्ति के आधार और उनके मूल्यांकन से होगा। तभी श्रेष्ठता प्रमाणित होगी। अन्यथा अमानवीय या पशु प्रवृत्ति ;पशुताद्ध ही मानी जायेगी। विगत कुछ वर्षो में दुनिया में सम्प्रदाय या धर्म के आधार पर स्वयं को श्रेष्ठ मानने के समस्त परिणाम युद्ध-संघर्ष, आतंक,दंगे-फसाद के कारण बने हैं। जिससे धर्म, सम्प्रदाय, जाति और वर्ग का विभाजन तीखा और गहरा होता गया है। इससे मानवता का हनन हुआ है,धर्म-सम्प्रदाय की मूल भावना पर चोट पहुंची है। कुछ विचारों और चिंतन से दरिद्र व कुंठित धर्म-सम्प्रदाय के कथित नेताओं ने मानव और मानव के बीच दरार पैदा की है। ये धीरे-धीरे गहरी खाईयों में बदलती जा रही हैं।
गोधरा, गुजरात, कश्मीर, पंजाब और जाफना, फिलीस्तीन की रक्तरंजित घ्ाटनाओं के मूल में स्वश्रेष्ठता का अहंकार, गर्वोक्ति एवं दम्भ ही है, जो धर्म की मूल भावना के विपरीत है। इसी प्रकार संविधान की आलोचना बिना वैकल्पिक व्यवस्था की कल्पना किये संविधान रूपी व्यवस्था को नकारना अराजकता को जन्म देता है। ‘राम बड़े हैं या संविधान’ कुरान बड़ी है, शरीयत बड़ी है या प्रजातांत्रिक संविधान ये ऐसे भावनात्मक कथन हैं जो एक स्थापित- स्वीकृत व्यवस्था को तो चुनौती देते हैं। पर उससे श्रेष्ठ व्यवस्था जिससे मानवीयता और सामाजिकता के साथ सार्वभौम व्यवस्था, अखंड स्वराज्य व्यवस्था और सर्वतोन्मुखी समाधान की झलक हो ऐसा मानवीय संविधान को प्रस्तुत करने में पूर्णतः असफल है। संसद में संविधान के मानव विरोध्ाी प्रावधानों ;यदि हैं तोद्ध पर चर्चा करने के लिए अध्ययन, शोध और अनुभव के अभाव में उनकी निंदा, उपेक्षा करना और उन्हें नकारने से तो अव्यवस्था ही खड़ी हुई है। विगत दिनों संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न संसद एवं विधान भवनों में जन प्रतिनिधियों की आपसी सिर फुटौव्वल किसी से छिपी नहीं है। जिसने प्रजातंत्र, मानव की गरिमा व सांसदों की स्वच्छंदता पर भी प्रश्न खड़े किये हैं। केन्द्र सरकार ने संविधान समीक्षा आयोग का गठन जिन संगठनों के हो-हो हल्ला में किया था, ऐसे अनेक संगठन इस देश में रहे हैं जो भारत के संविधान को मानव विरोधी, आधा-अधूरा बताते रहे है। कुछ-कुछ कमी को लेकर आलोचना करते रहे हैं। लेकिन दुख यह है कि उन्होंने संविधान समीक्षा आयोग के समक्ष अपने सुझाव देना भी उचित नहीं समझा, लेकिन उनकी आलोचना का स्वर अभी भी थमा नहीं। है। सरकार या कानून मंत्रालय को संविधान समीक्षा आयोग के गठन के पूर्व ऐसे संगठनों से वैकल्पिक संविधान पर राय लेनी चाहिए थी लेकिन वह नहीं हुआ। संविधान समीक्षा आयोग का पवित्र उद्देश्य एक राजनीतिक हथकंडा मात्र बन कर रह गया था। अन्य आयोगों के श्रम से निर्मित रिपोर्ट की उपेक्षा कर दी गई है। इसकी रपट एवं सुझाव भी लालफीता शाही में कहां धूल खाते रहेंगे, कहा नहीं जा सकता है। संविधान विरोध के परिणामतः जनता में भ्रम- फैला, अन्तद्र्वद्व ने जन्म लिया और संविधान की गरिमा आहत हुई तथा उसके प्रति समाज में, नागरिकों में अनास्था पैदा हुई। यह भी अनेक प्रकार के हिंसक और विभिन्न संघर्ष आंदोलों का कारण बना है।
संवैधानिक संस्थाओं पर अंगुली उठाकर उन्हें संदिग्ध करने का भी प्रयास हुआ। चुनाव आयोग के निर्णय को लेकर जबरदस्त राजनीति हथकंडे सामने आये। परिणाम क्या हुआ देश में संविधान, संवैध्ाानिक संस्थाओं, शासन और न्याय व्यवस्था के प्रति अनास्था बढ़ती जा रही है। यह अनास्था प्रजातंत्र और मानवता के लिए घातक तो है ही, न्याय-सुरक्षा तंत्र को भी कमजोर करने वाली है। चुनाव आयोग, सर्वोच्च न्यायालय, आडीटर जनरल,सतर्कता आयोग, लोकायुक्त एवं ऐसी ही अन्य संस्थाओं पर भ्रमित और व्यवस्था विरोधी राजनेताओं ने अपने स्वार्थ के लिए उनकी विश्वसनीयता को भी संदिग्ध करने का प्रयास किया है। कभी-कभी मीडिया भी इसमें शामिल हो जाता है।
दरअसल शासन के स्तर पर भी ऐसी अनेक नासमझी हो रही है। किसी भी सरकार या तंत्र से जनता का जुड़ाव या आस्था पैदा तब होती है जबकि सरकार या तंत्र सीधे जनता से जुड़ता है। भूमंडलीकरण, उदारीकरण एवं व्यवसायिकता के भ्रमित कुचक्र के चलते सरकार ने विगत वर्षो से शिक्षा, स्वास्थ्य, परिवहन जैसी बुनियादी मानवीय आवश्यकता का निजीकरण करना शुरू कर दिया है। सरकार में शायद कुछ लोग यह सोचते होंगे कि सरकार आम जनता के लिए कुछ भी न करने के बाद भी दंड का कानून संचालित कर सकेगी। आस्था किसी न किसी अपेक्षा या प्रलोभन पर आधारित होती है। यदि सरकार शिक्षा, स्वास्थ्य और परिवहन आदि बुनियादी सुविधाओं से अपने हाथ खींच लेती है और उनका निजीकरण उसे महंगा करता हैतो समाज को संघर्षविहीन, द्वंद्व मुक्त करना असंभव है। यह अनेक प्रकार की समस्याओं को जन्म देगा। लाभ कमाने के लिए खड़ी शिक्षण संस्थाएं, स्वास्थ्य संस्थान तथा महंगा निजी परिवहन आबादी के एक बड़े वर्ग को शासन से स्वाभाविक रूप से काट देगा या काट रहा है। साथ ही यह प्रजातंत्र व शासन के प्रति अनास्था भी पैदा कर रहा है। जिससे समाज में मानव विरोधी असामाजिकता जन्म लेगी तथा सर्वत्र असुरक्षा, भयऔर आतंक का वातावरण बनेगा। महंगी शिक्षा समाज के अभिजात्य वर्ग के मुट्ठीभर लोगों को ऐसी जगह स्थापित कर देगी जहां पर मानवीयता, सामाजिकता संपन्नता प्रतिभाशालियों को होना चाहिए। सत्ता का विकेन्द्रीकरण, ग्राम स्वराज्य व्यवस्था की ओर रूझान, पंचायत राज्य व्यवस्था, विकास में जनभागीदारी कुछ ऐसे प्रयास हैं जिससे शासन और जनता के मध्य जुड़ाव हो सकेगा। लेकिन ग्राम स्वराज्य व्यवस्था को परिवार मूलक बनाना होगा तथा समझदारी लाने के लिए शिक्षा को संस्कार से जोड़ना होगा तथा अस्तित्व मूलक मानव केंद्रित चिंतन रूपी सर्वमानव के लिए सर्वोमुखी समाधान, सार्वभौम व्यवस्था तथा अखंड स्वराज्य व्यवस्था को शिक्षा से जोड़ना होगा। शिक्षा में अनिवार्य रूप से संविधान, व्यवस्था और सामाजिकता, मानवता को पाठ्यक्रम में शामिल करना होगा।
बुनियादी रूप से हम कह सकते हैं कि मानवीयता के संरक्षण, पोषण और संवर्धन के लिए ही संविधान, शासन-प्रशासन और पत्रकारिता है। यदि मानवीयता का संरक्षण होता है तब तो ये अपना प्रयोजन पूरा कर रहे होते हैं अन्यथा नहीं। पत्रकारिता को यदि भटकाव, पतन, मूल्य हीनता जैसी अनेक आलोचनाओं से बचना है तो उसे मानवीयता के सार्वभौम उद्देश्यों को अपनी विषय वस्तु के लक्ष्य के रूप में पहचानना होगा। सामाजिकता को दृष्टि में रखते हुए अपनी सामग्री का चयन व अपने प्रकाशन-प्रसारण की नीतियों का निर्धारण व निश्चियन करना पड़ेगा। अन्यथा पत्रकारिता ्रचार-प्रोपोग्रेंडा तंत्र बनकर रह जायेगी और व्यवसायी व राजनीतिक अपने उल्लू सीधा करने पत्रकारिता व पत्रकारों को प्रलोभन व भय से नियंत्रित करके अनैतिकता, अन्याय, शोषण और चरित्रहीनता की ओर ढकेल देंगे। समाज में उसकी विश्वसनीयता और साख एक माफिया या भयभीत करने वाले गुंडों जैसी हो जायेगी। फिर समाज के परिवर्तन, विकास और जागृति में पत्रकारिता की भूमिका गौण रह जायेगी।
प्रश्न यह है कि आखिर मानवीयता या मानव केंद्रित आकांक्षा, लक्ष्य, आचारण, स्वभाव, दृष्टि आदि का निर्धारण कैसे किया जाये। यह तो सर्वविदित है ही कि मानव के होने ;अस्तित्वद्ध पर कोई प्रश्न नहीं बनता है। अस्तित्व मूलक मानव केंद्रित चिंतन एवं सह-अस्तित्ववाद के प्रतिपादक श्री ए. नागराज शर्मा ने अपनी पुस्तक ‘मानव व्यवहार दर्शन’ में मानव केंद्रित सह अस्तित्ववाद में सार्वभौम व्यवस्था, अखण्ड स्वराज्य रूपी शासन के उद्देश्यों की पूर्ति के लिए मानव केन्द्रित चिंतन किया है। सर्वप्रथम मानव को परिभाषित करते हुए वे लिखते हैं कि मनाकार को साकार करने वाला एवं मनः स्वस्थ्यता का आशावादी मानव है। मानवीय आकांक्षा दो प्रकार की है। एक है, सामान्य आकांक्षाएं जो मानव शरीर के पोषण और संरक्षण को लेकर आहार, आवास, अलंकार ;रोटी,कपड़ा और मकानद्ध के रूप में भौतिक आकांक्षाएं हैं। दूसरी हैं, महत्वाकांक्षाएं जो दूरगमन, दूरदर्शन और दूर श्रवण के रूप में हैं जो सूचना-संचार क्रांति के रूप में मानव जाति के सम्मुख हैं। शासन-प्रशासन में अनेक योजनाएं रोटी-कपड़ा और मकान को केन्द्र में रखकर की जाती हैं। सामान्य आकांक्षाओं की पूर्ति होने से मानव में समृद्धि और अपूर्ति से असंतोष और सतृप्ति आती है। महत्वाकांक्षा की पूर्ति से तृप्ति, अपूर्ति ;कमीद्ध से कौतूहल और अधिकता से असंतोष होता है। यदि विकास योजनाएं ‘शरीर’ की आवश्यकता को लक्ष्य रखकर तैयार होंगी, शिक्षा में भी उसे केन्द्र में रखकर सामग्री तैयार होगी तो मानव के चैतन्य पक्ष या जीवन पक्ष की उपेक्षा होगी। स्वतंत्रता, न्याय, समता, चरित्र, मूल्य विश्वास सम्मान, ममता आदि एवं व्यक्ति की निजता का ज्यादा व सीधा संबंध मानव के शरीर से न होकर जीवन या चैतन्य पक्ष से है जिसे नकार कर संविधान, व्यवस्था, मानवता और सामाजिकता को नहीं समझा जा सकेगा।
मानव के समूचे श्रम, शिक्षा, प्रयास के गंतव्य को यदि समझा जाए तो मानव के लक्ष्य के रूप में चार मानवीय लक्ष्यों को सार्वभौम लक्ष्यों के रूप में पहचाना जा सकता है। समाधान ;बौद्धिक और भौतिकद्ध, समृद्धि ;भौतिक एवं बौद्धिकद्ध अभय ;प्राकृतिक,पशुओं से एवं मानव में निहित अमानवीयता रूपी भय से मुक्तिद्ध एवं सह-अस्तित्व ;सामाजिकता एवं सुख से साथ-साथ रहनाद्ध। समाधान का अर्थ है भौतिक रूप से सामान्य आकांक्षाओं की पूर्ति हो जाना एवं बौद्धिक रूप से समस्याओं के क्या, क्यों, कैसे आदि प्रश्नों के उत्तर या हल प्राप्त कर लेना। विज्ञान, शिक्षा और व्यवस्था में मानवीय प्रयास समस्याओं के समाधान के प्रयास के रूप में पत्रकारिता के प्रयोजन को पहचाना जा सकता है। समृद्धि का अर्थ है मानव को शरीर के पोषण-संरक्षण के लिए जरूरी भौतिक-रासायनिक वस्तुओं की आवश्यकता से अधिक होने से है। स्पष्ट है कि आहार, आवास, अलंकार के रूप में मानवीय आवश्यकता के ध्रुवीकरण से आवश्यकताओं का निर्धारण हो सकता है। बौद्धिक समृद्धि का सीधा-सा अर्थ है कि जिन विचार, भाव, मूल्य, चरित्र, नैतिकता संबंध आदि का अभाव लगता हो उसका अभाव हो जाए। अभय प्राप्ति के लिए या भयमुक्त समाज के लिए ही शासन, प्रशासन, सुरक्षा, न्याय
तंत्र हैं शिक्षा संस्कार है। संविधान एवं शासन मानव या नागरिकों को भय से मुक्ति का आश्वासन देता है। भय मूलतः प्राकृतिक आपदाओं के रूप में पशुओं-कीट-पतंगों आदि से शरीर के क्षतिग्रस्त या नष्ट होने के रूप में एवं मानव में निहित अमानवीयता ;क्रूरता, दीनता, अपराध्ा, हिंसा, आतंक, घृणा, द्वेष के रूप मेंद्ध रूपी भय है। यह भय चार कोटी में मानभय, धनभय, तनभय, पदभय के रूप में है। सामाजिक व्यवस्था और सार्वभौम व्यवस्था का ढांचा उपरोक्त भय से मुक्ति के आध्ाार पर ही निर्धारित हो सकता है। मानव का परिवार, समाज, संगठन, समूह, राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय जीवन में साथ-साथ रहना ही सह अस्तित्व है। मानव में सह- अस्तित्व का प्रमाण है। प्रकृति के साथ पारिस्थितिकी संतुलन एवं मानव का मानव के साथ संबंधों एवं संपर्को में सामाजिकता के रूप में प्रामाणिक है।
मानव में सम्पूर्ण दृष्टियां, प्रियाप्रिय, हिताहित, लाभालाभ, न्यायान्य, धर्माधर्म एवं सत्यासत्य हैं। प्रिय, हित, लाभात्मक दृष्टि ही समस्त प्रकार के अन्याय, असामाजिकता एवं शोषण, अत्याचार के मूल हैं जो अव्यवस्था, अराजकता और आतंक का कारण हैं। जबकि ‘न्याय’ ;समस्त संबंध्ाों में उभय तृप्ति के लिए मूल्यों में जीनाद्ध मानव का मानव के साथ सामाजिक संबंध के रूप में समझा जा सकता है और ‘धर्म’ मानव का मानव सहित सम्पूर्ण प्रकृति के साथ सह-अस्तित्व रूपी संबंध एवं ‘सत्य’ मानव का सम्पूर्ण अस्तित्व के साथ संबंध में परिभाषित होता है। ‘सत्य’ को वस्तुगत सत्य, स्थितिगत सत्य और वस्तुस्थिति सत्य के रूप में पहचाना जाता है। न्याय, धर्म, सत्य की समझ के बिना कोई भी व्यवस्था व राज्य की कल्पना नहीं की जा सकती है। अब अनेक राष्ट्रों के परमाणु शक्ति सम्पन्न होने के बाद उन्हें डण्डे से हांकने का कार्य आसान नहीं है।
पशुता, अमानवीयता और अपराध को नियंत्रित करने के लिए भारतीय दण्ड प्रक्रिया संहिता ;दण्ड के प्रावधानद्ध, भारतीय अपराध प्रक्रिया संहिता ;दण्ड निरूपण के प्रावधानद्ध, एवं भारतीय साक्ष्य अधिनियम ;अपराध प्रमाणित करने की प्रक्रियाद्ध से गलती को गलती से, अपराध को अपराध से और हिंसा को हिंसा से निपटने का या उन्मूलन का प्रयास किया जा रहा है। जिसमें न्याय का सर्वदा अभाव है। अपराध करने वाले को सजा के रूप में दुःखी या प्रताडि़त करके न्याय या सुख की मानवीय कल्पना सर्वदा भ्रमित कल्पना है। दूसरे को दुखी करने से दुःख ही बढ़ता है सामाजिकता किसी भी स्थिति में नहीं आती है। परिणामतः अभी तक मानव जाति में अपराध दिनों दिन बढ़ रहा है। बल्कि और ज्यादा घातक तथा संहारकता के रूप में मानवता को कलंकित कर रहा है। दरअसल अपराध नियंत्रण के हथियार के रूप में भय का प्रयोग एवं इस्तेमाल को समझदारी नहीं माना जा सकता है। जेलों को सुधार केन्द्र के रूप में शिक्षा-संस्कार से जोड़ने की दिशा में भी प्रयास हो रहे हैं। सुध्ाार डण्डे से नहीं शिक्षा व समझदारी बढ़ने से ही संभव है। अतः इसके लिये शिक्षा-संस्कार और न्याय-सुरक्षा तंत्र को मजबूत कर गलती को समझदारी से, अपराध को संस्कार से एवं हिंसा को सामाजिकता से दूर किया जा सकता है। पत्रकारिता एवं शासन को मानवीय दृष्टि को समझना जरूरी है। तभी प्रजातंत्र के अभीष्ट स्वतंत्रता ;वास्तविक स्वतंत्रता न कि राजनीति सीमा रेखाद्ध की अक्षुणता बच सकती है अन्यथा निरंकुशता, मनमानी, बढ़ेगी। संविधान और न्याय की उपेक्षा कर आतंकवाद, हिंसा और अलगाव की समस्याओं से नहीं निपटा जा सकता है।
मानवीय आचरण के रूप में मानव के समस्त कार्य मानवीय व्यवहार के रूप में हैं। मानव के समस्त कार्य शिक्षा-संस्कार, न्याय-सुरक्षा, विनिमय-कोष, उत्पादन-कार्य, स्वास्थ्य-संयम के लिए किये गये कार्यो के रूप में हैं जबकि समस्त मानवीय व्यवहार के मूल में नैतिकता, चरित्र और मूल्य हैं। ‘नैतिकता’ को तन, मन, धन रूपी अर्थ के सदुपयोग के रूप में तथा ‘चरित्र’ स्वपुरूष/स्वनारी के साथ प्रजनन कार्य, स्वधन का उपयोग एवं उपभोग एवं संबंध व संपर्क में दयापूर्ण कार्य-व्यवहार से ही निश्चित किया जाता रहा है। जबकि समस्त संबंधों के निर्वाह के लिए ‘मूल्यों’ में जीना ही व्यवहार एवं मानवीयता हैं। मूल्यों के बिना सामाजिकता एवं मानवीयता को परिभाषित नहीं किया जा सकता है। अपनी-अपनी पूर्णता के लिए दूसरे से अनुबंधित होना ही संबंध है। संबंध का प्रयोजन, जागृतिपूर्णता, विकासपूर्णता और आचरणपूर्णता के रूप में हैं।
मानव में मूल्यों की पांच श्रेणियां हैं। स्थापित मूल्य ;विश्वास, सम्मान, प्रेम, श्रद्धा, विश्वास आदिद्ध, शिष्ट मूल्य ;सहजता, सरलता, सौजन्यता, अनन्यता आदि शिष्टाचार के लिएद्ध, मानव मूल्य धीरता ;न्याय के प्रति निष्ठाद्ध, वीरता ;न्याय दिलाने शक्तियों का नियोजनद्ध, उदारता दया एवं कृपा, के रूप में हैं। ;दयात्रअपात्र को वस्तु उपलब्ध कराना। कृपात्रअपात्र को पात्र बनाना। करूणात्रअपात्र को पात्रता एवं वस्तु दोनों देना हैं।द्ध जीवन मूल्य सुख, शांति, संतोष, आनंद के रूप में है। जबकि वस्तु मूल्य, कला मूल्य और उपयोगिता मूल्य के रूप में है। मानवीय आचरण से सामाजिकता, मानवीयता और व्यवस्था का जन्म होता है। मानवीय आचरण को समझे बिना सामाजिक टूटन, सत्ता द्वंद्व, हिंसा-आतंक, अस्थिरता-अराजकता और अन्याय-अनीति से मुक्ति संभव नहीं है। पत्रकारिता को यदि प्रचार मात्र नहीं बनाना है तो न्याय, स्वतंत्रता, समता, व्यवस्था, मूल्य, चरित्र, नैतिकता, रूपी विधि-विधान एवं संविधान को समझना होगा एवं सम्प्रेषित करना होगा। तभी स्वराज्य व्यवस्था की आधार भूमि तैयार हो सकती है।
मानव को समझे बिना और मानवीय आकांक्षा, मानव लक्ष्य, मानवीय आचरण, मानवीय दृष्टि, मानवीय स्वभाव को समझे बिना मानवता के प्रकाशन रूपी पत्रकारिता, मानवता रूपी व्यवस्था के रूप में मानवीय संविध्ाान एवं सामाजिकता संपन्न समाज की कल्पना कैसे की जा सकती है। पत्रकारिता को न्याय, स्वतंत्रता, समता, संविधान, मूल्य, चरित्र, नैतिकता, कार्य-व्यवहार, संबंध आदि को मानवीयता के प्रयोजन में परिभाषित कर उनके अर्थ-आशय की एकरूपता का निर्धारण करना होगा। तभी सार्थक एवं पूर्ण सम्प्रेषण हो सकेगा एवं पत्रकारिता रूपी मानवीय श्रम विकासपूर्णता-जागृतिपूर्णता एवं सम्पूर्ण समाधान के लक्ष्य को उपलब्ध होगा।
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व्याख्याता-पत्रकारिता विभाग, माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय
मीडिया से अ-तटस्थ सवाल
आज मीडिया ‘जन’ का नहीं ‘वर्ग विशेष’ का प्रतिनिधित्व करता है। यही वजह है कि वह हिन्दू मानें न मानें, लेकिन अशोक सिंघल को हिन्दुओं का नेता बना देता है और मुसलमान मानें न मानें इमाम बुखारी को उनका नेता बना देता है, इनके विचारों को लगातार इस तरह से प्रचारित-प्रसारित किया जाता है कि मानों यह देश के समस्त हिन्दू-मुसलिमों के विचार हों, यही कारण है कि जब पुरी के शंकराचार्य किसी सर्वमान्य हल या सभी दलों के लोंगों द्वारा बातचीत से हल निकाले जाने की बात करते हैं तो उसकी चर्चा ज्यादा नहीं की जाती है, सिर्फ धार्मिक नेताओं के संबंध में ही नहीं राजनेताओं के संबंध में भी यही स्थिति है, आज अनेक राजनेता ऐसे हैं जिनका मीडिया प्रबंधन इतना मजबूत है कि कोई चुनाव लड़े और जीते बिना ही वे जनता के नेता बने हुए हैं।
आज मीडिया, कांग्रेस या भाजपा का विरोधी अथवा समर्थक भी नहीं है। आज अगर वह विरोधी या समर्थक है तो सत्ता अथवा राज्य का। आज चुनावों के समय मीडिया उस राजनैतिक दल का समर्थन करता है जिसके सत्ता में आने की उम्मीद हो ताकि भविष्य में वह सत्ता के सभी लाभ ले सके। मीडिया में सत्ता या राज्य के विरोध की प्रवृत्ति बहुत ही कम दिखाई देती है। सत्ताध्ाारी राजनीतिक दल का विरोध उसके द्वारा तभी किया जाता है जब उसे लगातार अपनी स्वार्थ पूर्ति में बाधा महसूस होती है। एक खतरनाक प्रवृत्ति मीडिया में देखने को जो मिल रही है वह यह कि एक मीडिया संगठन अलग-अलग प्रदेशों में अलग-अलग दलों की सरकारों का समर्थन करता हुआ दिखाई देता है। कहीं यह कांग्रेस का समर्थन करता है तो कहीं भाजपा का। ऐसी स्थिति में कैसे कहा जा सकता है कि वह किसी दल विशेष का समर्थक है। वह अगर समर्थक है तो सिर्फ सत्ता का, सरकार और राज्य का। इस मीडिया ने गुजरात में इतने बड़े पैमाने पर हुई साम्प्रदायिक हिंसा को रोकने में नाकाम नरेन्द्र मोदी सरकार का समर्थन नहीं तो प्रबल विरोधी भी नहीं किया। इसी प्रकार अन्य राज्यों में गैर-भाजपा सरकारों की जनविरोधी नीतियों को लेकर उनका भी कोई मुखर विरोध नहीं कर रहा है।
कुछ लोगों का कहना है कि गोधरा और उसके बाद की हिंसक घटनाओं के सिलसिले में मीडिया का रवैया भयानक, उत्तेजक और हमलावर रूप में प्रकट हुआ है, जिससे भारत के मुस्लिम समाज का बहुत बड़ा भाग जो शांतिप्रिय जीवन का आकांक्षी है वह भय, निराशा और अलगाव के भाव से ग्रस्त हुआ है, और ऐसे अतिवादी और कट्टर मुसलमान जो इस्लाम को देश और संविधान से ऊपर मानते हैं, एक अवसर के रूप में देखते हैं। वे सोचते हैं कि इस घटना से निराशान्मन बहुसंख्यक मुसलमानों में से एक वर्ग इस्लामिक कट्टरता की तरफ आ सकता है। किन्तु मेरा मानना है कि यह विचार एकतरफा है। हिंसा में संलग्न या उसका पक्षधर कोई भी व्यक्ति चाहे वह हिन्दू हो अथवा मुसलमान, वह अतिवादी होता है, कट्टर होता है। यह बिल्कुल सच है कि कई कट्टर मुसलमान इस स्थिति को एक अवसर के रूप में लेंगे। यहां प्रश्न हिन्दू या मुसलमान का नहीं है। कोई भी कट्टर सोच वाला व्यक्ति ऐसी स्थिति को अवसर के रूप में देखता है। मुस्लिम भी, हिन्दू भी और अन्य किसी धर्म का व्यक्ति भी। ऐसे सभी कट्टर चाहते हैं कि उनके धर्म की कट्टरता की तरफ लोगों का रूझान बढ़े, गुजरात में भी कट्टर हिन्दू और मुसलमान दोनों ने ही इस घटना को एक अवसर के रूप में लिया है।
मीडिया सदैव इस बात का पक्षधर रहा है कि जितनी बड़ी घटना, उतना अधिक स्थान, उतना अधिक महत्व, उतनी ही अधिक चर्चा, उस पर भी यदि एक ही जैसी घटनाएं लगातार महीनों तक होती रहें तो लगातार उतने ही दिनों तक उसकी चर्चा भी की जाती है। फिर प्रतिदिन होने वाली घटनाएं किसी भी दृष्टि से प्रथम दिन से कम नहीं थीं, और किसी-किसी दिन तो उससे भी अधिक गंभीर। वह लगातार समाचार पत्रों के प्रथम पृष्ठ पर प्रथम लीड और चैनलों में भी प्रमुख सुर्खियों में बनी रहती हैं। गुजरात में भी ऐसा ही कुछ हुआ। गोधरा कांड एक दिन हुआ, उस पर चर्चा शुरू हुई उसकी निंदा भी हुई, किन्तु यह बात आगे बढ़ती, इस पर लोगों के द्वारा गंभीर चिंता व्यक्त की जाती उसी बीच हिंसक प्रतिक्रियाएं सामने आ गई। हिंसक प्रतिक्रियाओं की तीव्रता और निरंतरता ने मीडिया का ध्यान गोधरा कांड से हटाकर अपनी ओर खींच लिया। गोधरा कांड दबकर रह गया। इस प्रकार एक ऐसा प्रभाव उत्पन्न हुआ मानो लोग गोधरा कांड की निंदा नहीं कर रहे हैं और बाकी घटनाओं की निंदा कर रहे हैं, जबकि सच यह है कि दोनों ही घटनाओं की निंदा लोगों के द्वारा की गई है। अंतर सिर्फ इतना ही है कि गोधरा की निंदा के लिए एक दिन मिला और उस पर हिंसक प्रतिक्रियाओं की निंदा के लिए कई हफ्ते और महीने मिले। यह मीडिया का तो कसूर नहीं।
गुजरात में हुई साम्प्रदायिक हिंसा को उचित ठहराने के लिए यह तर्क कि महाउत्तेजक कारक गोधरा से पैदा हुई उत्तेजना में प्रतिक्रिया भी अन्तर्निर्मित थी, बहुत ही कमजोर तर्क है। यह तर्क कुछ ऐसा ही तर्क है मानो हत्या की प्रतिक्रिया स्वरूप की गई हत्या को जायज ठहराना, जिसे न तो हमारे देश का कानून उचित मानता है और न ही देश का समाज। इस तरह की घटनाओं पर किसी अन्य तरह की प्रतिक्रिया को तो उचित माना जा सकता है, किन्तु हिंसा के रूप में व्यक्त की गई प्रतिक्रिया को कतई उचित नहीं माना जा सकता है। भले ही यह प्रतिक्रिया हिन्दुओं की तरफ से हो या मुसलमानों की ओर से। ऐसे समय में अपेक्षा की जाती है कि खुले दिमाग से विचार करके लोगों के मन को बदलने की
कोशिश की जाए न कि बदला लेने की, यदि बदला लेने के उद्देश्य से कार्रवाई की जाती है तो यह निरंतर चलने वाली उत्क्रमणीय क्रिया है, जिसका कोई अंत ही नहीं।
क्योंकि इसी तरह के कारकों की खोज करना प्रारंभ कर दें तो एक समाचार उ.प्र. के फैजाबाद से प्रकाशित ‘जनमोर्चा’ में 25 फरवरी को छपा था कि फैजाबाद आते समय बजरंग दल से जुड़े लोगों ने किस प्रकार साबरमती एक्सप्रेस में मुसलमानों का उत्पीड़न किया था। उस समाचार के अनुसार ट्रेन में आये मुसलमानों को लोहे की छड़ों से पीटा गया था, कई मुसलमान औरतों के बुर्को के घूंघट फाड़ दिये थे और यहां तक कि बच्चों को भी नहीं बख्शा गया था। अनुमान था कि यह घटना अयोध्या के आसपास ही किन्हीं स्टेशनों के बीच हुई थी यदि इस समाचार को आधार मानें तो फिर महा उत्तेजक कारक भी गोधरा से स्थानांतरित होकर अयोध्या की तरफ आ जाता है। हम देखते हैं कि इस तरह की बहस का कोई अंत नहीं है। इसलिए हमें उत्तेजक कारकों को खोजने के बजाए शांति कायम करने वाले कारक खोजने की जरूरत है।
कहा जाता है कि गुजरात में भयानक दंगे के दौरान ऐसी बीसियों घटनाएं हुई है जहां हिन्दुओं ने जान पर खेलकर अपने मुस्लिम पड़ोसियों को बचाया। यह समाचार एक-दो गुजराती अखबारों में छपे थे किन्तु राष्ट्रीय कहे जाने वाले अखबारों ने इनका उल्लेख क्यों नहीं कियाघ् ऐसे समाचार दंगों की गर्मी पर ठंडी फुहार का काम कर सकते थे। साम्प्रदायिक सद्भाव कायम करने में ऐसे समाचारों का बड़ा महत्व है, लेकिन हिन्दुओं द्वारा अपने मुस्लिम पड़ोसियों को बचाने के समाचार ही क्योंघ् मुस्लिमों द्वारा भी अपने हिन्दू पड़ोसियों को बचाने के क्यों नहींघ् दोनों ही तरह की घटनाएं गुजरात में देखने को मिली हैं। दोनों को ही महत्व मिलना चाहिए। तभी साम्प्रदायिक सौहार्द की कल्पना हम कर सकते हैं। महिलाओं द्वारा भी सराहनीय शांति प्रयास गुजरात में किये गये, उनकी भी चर्चा कम हुई है। एक मुस्लिम द्वारा दंगों के दौरान लोगों को गीता वितरित की गई, उसकी भी चर्चा समाचार पत्रों ने नहीं की।
इस प्रकार गुजरात के संदर्भ में निष्पक्षता को लेकर पत्रकारिता से यदि कुछ सवाल पूछे जाने हैं तो हमें भी निष्पक्ष होकर ही सवाल पूछने होंगे, तभी शांति कायम करने की पहल हम कर सकते हैं। यदि हम स्वयं अपनी प्रतिबद्धताओं में बंधे रहेंगे तो हमारे द्वारा रखे गये विचार स्वयं उत्तेजित करने का ही प्रयास करेंगे और किसी न किसी एक समाज को वह स्वीकार नहीं होंगे, हमारे विचारों का प्रभाव तभी हो सकता है जब यह दोनों समुदायों को स्वीकार हो, यदि हमें विरोध करना ही है तो जन विरोधी पत्रकारिता का विरोध करना होगा, अन्यथा हमारा सारा श्रम व्यर्थ है।
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व्याख्याता-पत्रकारिता विभाग, माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय ,भोपाल
मीडिया की विश्वसनीयता का सवाल
” विजय दत्त श्रीधर
हम ऐेसे युग में जी रहे हैं जहा सूचना आवश्यक संसाधन है और
स्वयं में एक शक्ति भी। संसाधन के सकारात्मक अर्थ में यह श्सूचना
क्रांतिश् का युग है और शक्ति का नकारात्मक संदेश श्सूचना-विस्फोटश्
के युग की संज्ञा देता है। पौराणिक आख्यानों में वृत्तान्त मिलता है
कि लोकमंगल की कामना से देवर्षि नारद त्रैलोक्य भ्रमण कर सूचना
सम्प्रेषण का कार्य किया करतेे थे। महाभारत-काल में कुरूराज ध्
ाृतराष्ट्र को संजय महाभारत का आंखों देखा हाल सुनाते थे।
अनुभव-ज्ञान-सूचना प्राप्त करना और उसे सम्प्रेषित करना मानव की सहज
वृत्ति है। प्रसंग या विषय कोई भी हो, प्रामाणिक और सम्पूर्ण
तथ्यों की जानकारी त्रुटि रहित आयोजन का आधार होती है। इसीलिए
सूचना को महत्वपूर्ण माना गया है। लोकतंात्रिक व्यवस्था में जन
सशक्तिकरण की अवधारणा सूचना के अधिकार के बिना अधूरी मानी जाती
है। ज्ञान और सूचना के लोकव्यापीकरण की सर्वोच्चता का एक साक्ष्य
पिछले वर्ष सामने आया। बीसवीं शताब्दी के एक हजार सर्व प्रमुख
व्यक्तियों की एक तालिका अमेरिकी शोधकर्ताओं ने तैयार की। इसमें
सबसे ऊपर जर्मन की योहानेस गुटेनबर्ग का नाम लिखा गया।
महान शासकों, प्रशासकों, वैज्ञानिकों, साहित्यकारों, कलाकारों,
दार्शनिकों, राजनेताओं और इतिहास का रूख पलट देने वाले
महान योद्धाओं की उपस्थिति के बावजूद गुटेनबर्ग को यह सम्मान
इसलिए मिला, क्योंकि उन्होंने 1456 में प्रिंटिंग प्रेस का आविष्कार
किया था, जिसमें चंद हाथों में सिमटी ज्ञान और सूचना
की शब्द-सत्ता के लोकव्यापीकरण का मार्ग प्रशस्त हुआ और एक नई
दुनिया विकसित होकर सामने आ सकी।
भारत में मीडिया के प्रथम स्वरूप-प्रिण्ट मीडिया-की नींव 29 जनवरी
1780 को पड़ी, जब जेम्स आगस्टस हिकी ने कोलकाता से “बंगाल गजट
और केलकटा जनरल एडवाराटाइजर” नाम साप्ताहिक समाचार पत्र निकाला।
सूचना की इस शक्ति का अहसास छल-बल से व्यापारिक प्रतिष्ठान से शासक बन
बैठी ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी को था, जिसने 1776 में विलियम
बोल्ट्स को सिर्फ इसलिए बलात् वापस यूरोप भेज दिया था क्योंकि वह
अखबार निकालना चाहता था। उसने घोषणा की थी-“मेरे पास ऐसी
बहुत सारी बातें हैं जो मुझे कहना है और जिनका संबंध हर व्यक्ति
से है।” बोल्ट्स के साथ हुए बर्ताव से हिकी ने सबक लिया। उसने ऐसी
कोई घोषणा नहीं की जो ईस्ट इण्डिया कम्पनी की आंखों में
खटकती, इसलिए वह अखबार निकालने के प्रयास में सफल हो गया। हिकी को
भारत में पत्रकारिता का सूत्रपात करने का श्रेय जाता है और वही भारत में
निर्भीक पत्रकारिता के कारण शासन-व्यवस्था के कोप का पहला शिकार
भी बना। उसे जेल हुई, बलपूर्वक इंग्लैंड रवाना किया गया और
अन्ततः जहाज में ही उसकी मृत्यु हो गई।
इस तरह मीडिया की शक्ति और प्रभाव तथा व्यवस्था से टकराव की मूल
प्रकृति का परिचय मिल जाता है। भारत में स्वतंत्रता संग्राम के दौरान
समाचार- पत्रों की जैसी प्रखर-मुखर भूमिका रही है, वह अपने आप
में इतिहास का समुज्जवल अध्याय है। और जब वर्तमान प्रेस की आजादी की
लड़ाई के दौर की प्रेस से तुलना की जाती है तब इतनी बड़ी खाई
नजर आती है जिसे पाट पाना सर्वथा असंभव है। बहरहाल, आजादी के बाद
प्रिण्ट मीडिया की नई भूमिका के साथ यात्रा आरम्भ हुई। भाषा
में, शिल्प में, शैली में, तथ्य में, कथन में, विषयों के दायरे
में, प्राथमिकताओं में, प्रौद्योगिकी में, तेजी से परिवर्तन और
प्रगति सिससिला चला। प्रचार संख्या में वृद्धि हुई और साज-सज्जा में बदलावा
आया। बीसवीं सदी के समापन पर देश में विभिन्न भाषाओं के
कोई 40,000 समाचार पत्र और आवधिक पत्रिकाएं प्रकाशित हो रहे हैं,
जिनकी प्रचार संख्या आठ करोड़ के ऊपर है।
मीडिया का दूसरा स्वरूप “रेडियो” है। भारत में 1924 में प्रसारण
सेवा ;ब्राडकास्टिंगद्ध की शुरूआत मद्रास प्रेसीडेन्सी रेडिया क्लब के
प्रयासों से हुई। 27 जुलाई 1927 को मुम्बई में रेडियो स्टेशन
खुला। 1936 में आल इण्डिया रेडियो अस्तित्व में आया, जिसे स्वतंत्रता
के पश्चात् 1950 में “आकाशवाणी” नाम दिया गया। वर्तमान में
आकाशवाणी के 187 केन्द्र कार्यरत हैं। 297 ट्रांसमीटर हैं। करीब
18 करोड़ लोग रेडियों के श्रोता है।
15 सितम्बर 1959 को भारत में पहला टेलीविजन केन्द्र “दिल्ली
दूरदर्शन” की प्रसारण सेवा आरम्भ हुई। टेलीविजन सेवा के
विस्तार को 1982 के दिल्ली एसियाड के समय गति मिली और आज वह प्रिण्ट
मीडिया के समानांतर सशक्त स्तंभ है। देश की पचास फीसदी आबादी तक
दूरदर्शन तथा निजी टेलीविजन चैनल्स की पहुंच है। स्टार टी.वी.
और जी.टी.वी. का खासा विस्तार हुआ है। कुछ भारतीय भाषाओं
के क्षेत्रीय टी.वी चैनल्स भी प्रभावी सिद्ध हुए हैं। बहरहाल, यह यक्ष
प्रश्न बरकरार है कि उनका सूचना संचार से कितना वास्ता हैघ् और फूहड़
मनोरंजन तथा अप संस्कृति के प्रचार-प्रसार में कितना समय जाया होता है|
“इण्टरनेट” ज्ञान और सूचना के अनन्त स्त्रोत के रूप में आया है।
लेकिन भारत में उसके विस्तार की गति मन्द है तथा उपयोग करने
वालों की संख्या अभी कम है।
मीडिया के इतने बहुआयामी और व्यापक संजाल तथा भौतिक
मायनों में प्रगति के बावजूद ‘मीडिया की विश्वसनीयता का सवाल’ उठना
अपने आप में एक चुनौती है। यह मीडिया की ही जिम्मेदारी है कि
वह आत्मावलोकन करे और उन बिन्दुओं को तलाशे जिनके चलते
मीडिया की विश्वसनीयता पर प्रश्न चिन्ह लगते हैं। यहां हमें मिर्जा गालिब
का एक शेर याद आता है-
“गालिब बुरा न मान जो वाइज़ बुरा कहे,
ऐसा भी कोई है कि सब अच्छा कहें जिसे।”
यही स्थिति मीडिया की है। मीडिया लोकतांत्रिक समाज के ढांचे
में अपनी भूमिका एक हद तक ठीक ढ़ंग से निभा रहा है। समाज में
चैतरफा जैसी वृत्तियां विकसित हुई हैं और होती जा रही हैं, विराध्
ााभास और विसंगतियां जिस तरह पैठ बना चुकी हैं, उनसे मीडिया भी
मुक्त नहीं है। बाजारवाद के नशे में मूल्य, सिद्धांत, सोच, मर्यादा,
नैतिकता, सामाजिक सरोकार और प्रतिबद्धता जिस तरह समाज के दीगर क्षेत्रों
में अवहेलना और नकार के शिकार बने हैं, कमोबेश पंूजी की सत्ता
ने मीडिया में भी वही हालात पैदा कर दिए हैं। संपादक की संस्था
समाप्त प्राय है और विपणन की ताकतें हावी हो चुकी हैं। रातों-रात
चमत्कारिक ढंग से लखपति से करोड़पति और करोड़पति से अरबपति बनने
के लालच ने कहीं न कहीं दायित्व बोध और आत्म-संयम के अंकुश
को शिथिल किया है। दिशाहीन होड़ और हवस का जहर फैलाया है।
कदाचित् इसीलिए टेलीविजन मीडिया में तथ्यों की पुष्टि करने का धैर्य
नहीं है और प्रिण्ट मीडिया में ऐसा वर्ग पनप चुका है जो जूते बेचने
और अखबार बेचने में कोई फर्क नहीं मानता। अखबार जिसके लिए
माध्यम नहीं, ‘ब्राण्ड’ है।
ब्ीते कुछ महीनों में मीडिया द्वारा खड़े किए गए कुछ हंगामों
पर नजर डालना बेहतर होगा। मुम्बई फिल्म उद्योग में तेजी से चमके
सितारे हैं ऋतिक रोशन। नेपाल के किसी टेबलाॅयड अखबार में खबर
छपी कि ऋतिक ने किसी टी.वी चैनल से बातचीत में नेपाल के बारे में
निन्दाभरी टिप्पणी की है। असलियत तो यह थी-“सूत न कपास जुलाहों
में लट्ठम लट्ठा”, मगर वहां स्थिति ऐसी बिगड़ी की दोनों
देशों के सम्बंध दांव पर लगते दिखे। मीडिया यह हकीकत बयान नहीं
कर सका कि ऋतिक की किसी भी चैनल से कोई बात हुई ही नहीं है।
नेपाल का ही दूसरा उदाहरण। सर्वथा रहस्यमय परिस्थितियों में नेपाल
के राजवंश का निर्मम वध हो गया। भारत के मीडिया ने तथाकथित
खोजी खबरें अमेरिका और ब्रिटेन के पत्र-पत्रिकाओं से उठा कर
छापीं। तब नेपाल के उनके अपने स्त्रोतों और वहां पदस्थ पत्र प्रतिनिध्
ि
ायों का भारतीय मीडिया के लिए औचित्य क्या रहा|
दुनिया भर में एक साथ पाषाण प्रतिमाओं के दुग्ध पान का पाखण्ड
फैलाने में मीडिया की बढ़-चढ़ कर हिस्सेदारी की बात बहुत ज्यादा
पुरानी नहीं है। कुछ ही महीने पहले किसी धर्म ग्रंथ को जलाने
की खबर उड़ी। कुछ जगहों पर फसाद तक की नौबत आ गई। यह कोई
नहीं बता पाया कि क्या सचमुच कहीं ऐसा कुछ हुआ भी थाघ्
कई हफ्तों तक दिल्ली और नोएडा में बंदर-मानव के आक्रमण
का हौवा बना रहा। मीडिया भी जितने मुंह उतनी बातें की रौ में
बह गया। जिस तरह खबरों का प्रकाशन और प्रसारण हुआ, उससे सच्चाई का
पर्दाफाश तो नहीं हो सका ;शायद किसी की दिलचस्पी भी इसमें नहीं
थीद्ध, बल्कि दहशत फैलाने में मीडिया ने बढ़-चढ़ कर भाग लिया
और सनसनी बेचते हुए उपद्रवी मानसिकता की पीठ ही थपथपाई।
जुलाई 2001 में दो शर्मनाक वाकयात हुए। एक टी.वी. चैनल ने
भाजपा की संन्यासी मंत्री उमाभारती की गोविन्दाचार्य के साथ शादी
करा डाली। जहां से भी सूचना मिली हो, उसकी पुष्टि किए बिना खबर
प्रसारित कर दी गई। खबर भीषण विस्फोट की तरह फैली, मगर अन्ततः
कोरी गप साबित हुई। फिर अगले पूरे दिन माफीनामा प्रसारित होता रहा।
दूसरी खबर यह उड़ाई गई कि प्रख्यात तबला वादक उस्ताद जाकिर हुसैन
अब तबला नहीं बजाएंगे। इस खबर से भी सनसनी तो होनी ही थी। बाद
में उस्ताद को प्रतिवाद करना पड़ा कि खबर झूठी है। यदि पहले ही
पुष्टि कर ली गई होती तो मीडिया को शर्मसार नहीं होना पड़ता।
कई बार अखबारों में भी ऐसी खबरे छप जाती हैं, जिनका कोई सिर
पैर नहीं होता। खबर एक होती है मगर अलग-अलग अखबारों में तथ्य
अलग-अलग आते हैं। हालांकि प्रस्तुति और विश्लेषण में भिन्नता
भी हो सकती है, परन्तु तथ्यों में कतई नहीं। मूल मुद्दा यही है
कि समाज में जब एक तरफा मैकडोनल्ड्स, पिज्जा हट, केन्टुकी फ्रायड
चिकन, पेप्सी और कोका कोला, बैली शूज..... जीन्स... शट्र्स की
दीवानगी बढ़ रही है, तब क्या मीडिया को भी वैसे ही जिन्सों के
समान मार्केट पर धावा बोलना चाहिएघ् एक संवेदनशील जन संचार माध्यम
के रूप में अपनी भूमिका का निर्धारण और निर्वाह करना चाहिए अथवा
पंूजी की अंधी दौड़ में अपने प्राण और प्रतिष्ठा को तिलांजलि दे
देनी चाहिए|
कलम के योद्धा दादा माखनलाल चतुर्वेदी ने 1927 में भरतपुर
सम्पादक सम्मेलन की अध्यक्षीय आसंदी से आगाह किया था-“यदि समाचार
पत्र संसार की एक बड़ी ताकत है तो उनके सिर जोखिम भी कम नहीं।
पर्वत की जो शिखरें हिम से चमकती हैं और राष्ट्रीय रक्षा की महान
दीवार बनती हैं, उन्हें ऊॅची होना पड़ता है। जगत में समाचार
पत्र यदि बड़प्पन पाए हुए हैं, तो उनकी जिम्मेदारी भी भारी है।
बिना जिम्मेदारी के बड़प्पन का मूल्य ही क्या हैघ् और वह बड़प्पन तो
मिट्टी के मोल का हो जाता है जो अपनी जिम्मेदारी को नहीं सम्हाल
सकता। समाचार पत्र तो अपनी गैरजिम्मेदारी से स्वयं ही मिट्टी के मोल
का नहीं हो जाता, वरन् वह देश के महान अनर्थो का उत्पादक और
पोषक भी हो जाता है।”
यह चेतावनी 75 बरस पहले दी गई थी। किन्तु जन संचार माध्यमों के लिए
अब भी उतनी ही प्रासंगिक है।
हालांकि यह कहा जाने लगा है कि मीडिया जब पूंजी की हवस का पूरी तरह
गुलाम नहीं बना था, उसकी पृष्ठ संख्या और प्रसार संख्या कम होती थी,
सजावटी चमक-दमक भी नहीं थी, तब उसकी लोक मान्यता, प्रतिष्ठा,
प्रभावोत्पादकता और विश्वसनीयता का ग्राफ कहीं ऊॅचा था। लेकिन
स्थिति अभी हाथ से बिल्कुल निकल नहीं गई है। छपे हुए शब्द और
हुए दृश्यों ने पूरी तरह अर्थ खो दिए हों, ऐसा भी नहीं है।
परन्तु मीडिया को ही यह दायित्व ओढ़ना होगा कि बड़ा होता जा
रहा मीडिया तंत्र, सोच और व्यवहार से बड़प्पन की खुरदरी जमीन पर पांव
टिकाए रखे। दरअसल, ज्ञान और सूचना-संचार के साधन दुधारी तलवार की
तरह हैं। सामाजिक सरोकार, दायित्वबोध और आत्म-संयम से मीडिया इन
संसाधनों का प्रयोग करेगा तो प्रतिष्ठा बचा और बढ़ा पाएगा। पूजीं
की हवस और होड़ में विपथगामी बन गये तथा मीडिया की आत्मा
को ‘ब्राण्ड’ के पत्थर पर सिर पटकने के लिए मजबूर किया जाता रहा तो वह
निष्प्राण हुए बिना नहीं रहेगा। एक बात और, समाचार माध्यम के रूप में
टेलीविजन चैनल्स की हड़बड़ी तथा अधूरेपन ने प्रिण्ट मीडिया को यह
सुअवसर प्रदान किया है कि वह सूचना की प्रामाणिकता और सम्पूर्णता
के रूप में सहज की बाजी मार सकता है। विश्वसनीयता उसे चुनौती विहीन
बनाएगी। अब यह मीडिया के हाथों में है कि वह सूचना आलोक का सतत् प्रवाही स्त्रोत बनना पसन्द करता है या बिजली की तरह एकबारगी कड़क महत्वहीनता के अंधकार में विलीन हो जाना।
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महानिदेशक, माधवराव सप्रे स्मृति समाचार पत्र संग्रहालय, भोपाल
भारत की महान पत्रकारिता के अमिट हस्ताक्षर राहुल बारपुते
इंदौर के लिए यह एक यादगार दिन था। राहुल बारपुते की बेमौसम याद। यह न बारपुते की जयंती थी, न पुण्यतिथि। उनके देहांत 17 साल बाद पहली बार उस लेखनी का कमाल सामने आया,जिसने पत्रकारों और पाठकों की एक पीढ़ी को प्रभावित किया। एक छोटे से शहर में रहकर पूरे देश की पत्रकारिता में अपनी धाक जमाई। राहुल बारपुते का अविस्मरणीय योगदान सिर्फ इंदौर या मध्यप्रदेश की पत्रकारिता तक ही सीमित नहीं है। वे सिर्फ हिंदी पत्रकारिता में भी अपने कृतित्व के लिए याद नहीं किए जाएंगे, बल्कि उन्होंने भारत की पत्रकारिता में भी अपनी अमिट छाप छोड़ी है। उन्हें आदर्श संपादकीय नेतृत्व के रूप में हमेशा याद किया जाएगा, जिन्होंने एक समृद्ध पीढ़ी तैयार की और भावी पीढि़यों के लिए अद्भुत मिसालें पेश कीं। भाषा के लिहाज से बेहद सजग और हर विधा में गहराई से जुड़े एक संवेदनशील रचनाधर्मी व्यक्तित्व। वे आज की पत्रकारिता के लिए एक उजली आशा हैं। एक प्रेरणा। एक ऊर्जावान उपस्थिति। इंदौर के आनंद मोहन माथुर सभागार में रविवार ;14 जुलाई की शाम इंदौर प्रेस क्लब के प्रतिष्ठा प्रसंग ‘राहुल स्मरण‘ में यह उद्गार देश के नामचीन संपादकों ने व्यक्त किए। ‘प्रभात खबर‘ के प्रध्ाान संपादक हरिवंश, ‘जनसत्ता‘ के संपादक ओम थानवी, ‘नईदुनिया‘ के प्रधान संपादक श्रवण गर्ग, वरिष्ठ पत्रकार डाॅ. वेदप्रताप वैदिक, अभय छजलानी और राहुल देव अतिथि वक्ता थे। पत्रकार विजय मनोहर तिवारी द्वारा संकलित अहम दस्तावेज ‘राहुल बारपुते‘ का विमोचन भी किया गया। यह राहुलजी के 30-40 साल पुराने संपादकीय, आलेख, रिपोर्ताज एवं नियमित काॅलम का एकमात्र दुर्लभ संग्रह है, जो उनके देहावसान के 17 साल बाद प्रकाशित हुआ। समारोह में श्री हरिवंश ने कहा कि आज की पत्रकारिता में राहुलजी के कृतित्व से आज भी उम्मीदें जागती हैं। अपने दौर में अगर वे श्रेष्ठ कर पाए तो यह हम सबके लिए एक सबक है कि हम भी अपने समय की जरूरतों के मुताबिक अपने कर्तव्य में खरे उतरें। डाॅ. वैदिक ने कहा कि राहुलजी की खुबी ही यही थी कि न सिर्फ वे अपनी भूमिका में खरे उतरे, बल्कि उन्होंने एक पूरी पीढ़ी को भी तैयार किया। दूसरों की प्रशंसा और प्रोत्साहन में वे वाकई खुला आसमान थे, जैसा कि राजेंद्र माथुर ने उनके बारे में कहा।
श्री थानवी ने कहा कि सच तो यह है कि हमने राहुल बारपुते के किस्से ही सुने हैं। दिल्ली में प्रभाष जोशी और राजेंद्र माथुर जैसे शिखर संपादक इस बात का ताकतवर परिचय थे कि राहुल बारपुते किस कदकाठी के संपादक रहे होंगे। पत्रकारिता में उनका योगदान बहुआयामी है। श्री देव ने कहा कि बारपुते ने इंदौर जैसे छोटे शहर से बड़ी से बड़ी मिसालें सहज रूप में कायम कीं। राजेंद्र माथुर और प्रभाष जोशी जैसे प्रखर संपादक देश को दिए। उनकी लेखनी आज भी प्रासंगिक है। वे दूरदृष्टा चिंतक थे। श्री गर्ग ने कहा कि राहुलजी और उनके समय की पत्रकारिता को याद करना इंदौर में केदारनाथ के दर्शन करने जैसा अनुभव है, लेकिन यह दुखद है कि पत्रकारिता में उनके अवदान को प्रयासपूर्वक भुलाने की कोशिश की गई। यह अनायास स्मरण एक ऐसे आकाश को याद करना है, जिसनेप्रतिभाओें को उड़ान के अनंत अवसर दिए। आज के संपादकों के लिए ऐसा कर पाना नामुमकिन ही लगता है। यह वाकई वे ही कर सकते थे, जिन्हें खुद पर भरोसा था। उन्होंने हमेशा अपने से श्रेष्ठ को भी तवज्जो दी। श्री छजलानी ने कहा कि साठ और सत्तर के दशक में नईदुनिया को पत्रकारिता का विश्वसनीय ब्रांड बनाने में राहुलजी की भूमिका ही महत्वपूर्ण थी। वे सहज-सरल भाषा के प्रति बेहद सजग संपादक थे। कुछ लिखने के पहले काफी कुछ पढ़ने का मंत्र अपने सहयोगियों को उन्होंने ही दिया। मध्यप्रदेश के पूर्व महाधिवक्ता आनंद मोहन माथुर ने राहुल बारपुते के साथ अपने पांच दशक पुराने आत्मीय दोस्ताना रिश्ते को याद किया। 375 पेज की पुस्तक के प्रकाशक मध्यप्रदेश माध्यम के एडिशनल डायरेक्टर सुरेश तिवारी ने कहा कि ऐसी और रचनाओं को प्रकाशित करने में माध्यम सदैव तत्पर है। मंच पर राहुल बारपुते की पोती रेवा नांदेड़कर भी मौजूद थीं।
अतिथियों का स्वागत प्रवीण कुमार खारीवाल, अरविंद तिवारी, सुनील जोशी, कमल कस्तूरी, अतुल लागू, शशीन्द्र जलधारी, सुरेश तिवारी, डाॅ. पल्लवी अड़ाव, अरूण डिके, अरविंद अग्निहोत्री, बालकृष्ण गायके, किशोर कुमार रावल, सत्यानारायण व्यास, अशोक वानखेड़े, ड़ाॅ. हनीष अजमेरा आदि ने किया। प्रेस क्लब अध्यक्ष प्रवीण खारीवाल ने स्वागत भाषण में क्लब की रचनात्मक गतिविधियों की जानकारी दी। पुस्तक के सूत्रधार विजय मनोहर तिवारी ने कहा कि किताब के बहाने राहुलजी के रचना संसार और उनके करीबी मित्रों व सहयोगियों से निरंतर संपर्क एक तीर्थयात्रा के पवित्र अनुभव जैसा था। उन्होंने कहा कि यह काम मूलतः पत्रकारिता के शिक्षण संस्थानों को करना चाहिए था, ताकि विद्यार्थियों को लिखने का सलीका आए और इस बहाने वे पुरानी पीढ़ी के महान संपादकों के व्यक्तित्व से परिचित हों। कार्यक्रम का संचालन मशहूर चित्रकार प्रभु जोशी ने किया। आभार इंदौर प्रेस क्लब के महासचिव अरविंद तिवारी ने माना।
कार्यक्रम में मध्यप्रदेश लोकसेवा आयोग के अध्यक्ष अशोक कुमार पांडे, शास्त्रीय गायिका व कुमार गंधर्व की सुपुत्री कलापिनी कोमकली, प्रसिद्ध सामाजिक कार्यकर्ता मुकंुद कुलकर्णी व डाॅ. वसुंधरा कालेवार समेत कई लेखक, पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता मौजूद थे। समारोह में राजेश जैन द्वारा राहुल बारपुते पर केंद्रित एक स्लाइड शो प्रस्तुत किया गया, जिसमें राहुलजी के अत्यंत दुर्लभ चित्रों के जरिए उनकी सादगी से भरी जीवनशैली की प्रेरक झांकी पेश की गई। इस मौके पर राहुलजी पर विशेष रूप से प्रकाशित प्रेस क्लब टाइम्स और इंदौर प्रेस क्लब की स्मारिका ‘मीडिया खड़ा बाजार में‘ का भी विमोचन हुआ। इंदौर प्रेस क्लब द्वारा आयोजित इस समारोह में मध्यप्रदेश माध्यम, सानंद न्यास, अभ्यास मंडल, नाट्य भारती, आनंद मोहन माथुर चेरिटेेबल ट्रस्ट, अभिनव कला समाज, श्रुति संवाद, श्री मध्यभारत हिन्दी साहित्य समिति,सूत्रधार और प्रेस क्लब टाइम्स सहभागी रहे।
मध्यप्रदेश में कार्टून पत्रकारिता
*देवेन्द्र शर्मा
ब्रिटिश एन्साइक्लोपीडिया आफ कार्टून्स के अनुसार वह कोई भी रेखाचित्र, जिसमें कि विचार निहित हो, कार्टून कहा जा सकता है।
(Any drawing that encapsulates thought can be called a "Car toon"- British Encyclopdia of cartoons) कार्टून, अमूमन रेखाओं और शब्दों के व्यंग्यपूर्ण मेल को कहते हैं। आज के दृश्यप्रधान दौर में सबसे ज्यादा जिस कला का उपयोग हो रहा है, वह कार्टून कला ही है। अखबारों-पत्रिकाओं से लेकर स्टीकर्स-ग्रीटिंग काडर््स तक... और विज्ञापन विजुअल्स से लेकर काॅमिक्स बुक और एनिमेशन फिल्मों तक सर्वत्र कार्टून एक चमत्कारिक संवाद माध्यम के रूप में पूरी विद्यमान है।
यही कार्टून विधा जब अखबारों की गोद में सजी-निखरी तो कार्टून पत्रकारिता के नाम से पहचानी गई। पत्रकारिता की सहोदर कार्टून पत्रकारिता का अपना समृद्ध इतिहास है। इसमें काम करने वाले कार्टूनिस्टों ने भरपूर प्रतिष्ठा पाई। पितामह शंकर से शुरू हुई कार्टून पत्रकारिता की यात्रा में सर्वश्री लक्ष्मण, सुधीर दर, मारियो मिरांडा, काक, अबू अब्राहम और रंगा जैसे दिग्गजों का अपना ही रंग और दौर रहा। राष्ट्रीय पत्रों से जुड़ी नई पीढ़ी में अजित नैनन, राजेन्द्र धोड़पकर, सुधीर तैलंग, गोविंद दीक्षित, शेखर गुरेरा आदि उल्लेखनीय नाम हैं।
क्षेत्रीय कार्टून पत्रकारिता की तरफ नजर दौड़ाने पर स्वीकार करना पड़ता है कि देश की कुल कार्टून पत्रकारिता के मुकाबले मध्यप्रदेश की आंखे काफी देर से खुली हैं। महाराष्ट्र, गुजरात, राजस्थान या दक्षिण के राज्यों के मुकाबले यहां कार्टून का मामला बेहद ठंडा रहा। कार्टून बनाने के इक्का-दुक्का प्रयास हुए भी, तो प्रकाशकों की उदासीनता और धनार्जन की क्षीण संभावना के कारण मुरझाकर रह गए। बमुश्किल, एक उंगली पर गिनने लायक कार्टूनिस्ट मिलेंगे-वो भी छद्म नाम से पार्ट टाइम कार्टूनिंग करने वाले ज्यादा। फिर भी प्रणम्य हैं वे, जिन्होंने मध्यप्रदेश की बंजर कार्टून भूमि में चंद कार्टून बिखे लगाने की ;पार्टटाइम ही सहीद्ध शुरूआत तो की। और प्रेरक मिसाल बन गये।
रतलाम के श्री विनय बोरगांवकर का नाम इस सिलसिले में सर्वप्रथम लेना चाहूॅगा। लगन और मेहनत से दमकते खूब सारे हर विषय के कार्टून, स्वदेश से लेकर चंपक तक। फिर इंदौर के श्री शरद जोशी और यहीं के, लिनो पर काट-काटकर श्रमसाध्य कार्टून बनाने वाले श्री मालवीय। इनके साथ-साथ श्री बसंत पेंढारकर का उल्लेख भी प्रासंगिक है जो कार्टूनज्ञान के जीवंत कोश हैं और जिनकी अपनी लायब्रेरी में कार्टूनविधा पर दुर्लभ पुस्तकें संग्रहित हैं।
इस लेखक ने इन्हीं विभूतियों से प्रेरणा ली और मारियो-दर-लक्ष्मण की कार्टूनिस्ट त्रयी से मन ही मन दीक्षा लेकर अपना जीवन ही कार्टून विधा के नाम लिख दिया। इंदौर के ‘स्वदेश’ में तेरह-चैदह बरस का एक किशोर कार्टून बनाने लगा। स्नातकोत्तर पढ़ाई के बाद सरिता-मुक्ता-चंपक में उसकी बतौर स्टाफ कार्टूनिस्ट नियुक्ति हुई और कुछ अर्से के भीतर ही नई दुनिया ;इंदौरद्ध में कार्टूनिस्ट की पूर्णकालिक नियुक्ति जैसी अनहोनी घ्ाटना प्रदेश में सर्वप्रथम घटी। ईश्वरीय प्रेरणा ने इस लेखक को माध्यम बनाया और प्रसन्नता की बात है कि आज प्रदेश में न केवल कार्टूनकारों की फलती-फूलती बिरादरी है, बल्कि उनमें से काफी लोग पूर्णकालिक कार्टूनिंग भी कर रहे हैं। अपने काम से खासा नाम बनाने वालों में सर्वश्री जवाहर चैधरी, अविनाश, हरिओम, माध्ाव जोशी, शिरीष, लहरी, हाड़ा, कीर्तिश, हरीश, कुमार और नीरज आदि
यह निर्विवाद तथ्य है कि इस विधा का व्यवस्थित शिक्षण और प्रसार हो तो इसमें कॅरियर बनाने की असीम संभावनाएं हैं। मगर इस काम के लिए आगे आए तो कौनघ् राज्य सरकार बेशक, कलाओं के उन्नयन और प्रसार में भरपूर रूचि लेती रही है, लेकिन व्यवस्था विरोधी कटाक्षकारी व्यंग्यचित्रविधा कोई उम्मीद कैसे करे|
ल्ेकिन देर से ही सही, इस बार चमत्कार हो गया। म.प्र. कला परिषद ने माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता राष्ट्रीय विश्वविद्यालय और दक्षिण क्षेत्रीय सांस्कृतिक केन्द्र के साथ मिलकर हाल ही में एक चर्चित कार्टून कार्यशाला का आयोजन कर दिखाया। विगत 20 से 30 सितंबर 2002 तक चलने वाली देश में अपने तरह की अनूठी इस कार्यशाला का उद्घाटन सुप्रसिद्ध कार्टूनिस्ट श्री लक्ष्मण ने किया था। श्री लक्ष्मण के साथ-साथ सर्वश्री सुधीर तैलंग, राजेंद्र धोड़पकर और गोविंद दीक्षित जैसे राष्ट्रीय कार्टूनिस्टों ने जिज्ञासु प्रशिक्षुओं को कार्टूनिंग के उपयोगी पाठ पढ़ाए, बातें की और डिमाॅन्स्टेªशंस दिए। कार्यशाला से प्रेरणा लेकर निश्चय ही कई प्रतिभाएॅ कार्टून-डगर पर सफलता से चल पाएंगी। इस कार्यशाला के सफल परिणाम बताते है। कि प्रदेश के लिए ‘कार्टून पत्रकारिता का कॅरियर’ अब दूर की कौड़ी नहीं। रह गया।
इसके समुचित प्रशिक्षण के लिए जल्दी-जल्दी यदि ऐसे अवसर बुने गए तो इस विधा के जरिए विकास के अवसर खुलेंगे। और फिर मध्यप्रदेश में बमुश्किल पैंतीस बरस पुरानी इस विधा का भी तो आशातीत विकास होगा। -----------------------------------------------------------------
‘नई दुनिया’ इंदौर में नियमित कार्टूनिस्ट
‘सादा जीवन-उच्च विचार‘
‘सादा जीवन-उच्च विचार‘ की बात को श्रद्धेस राहुल जी ने अपने जीवन में सौ प्रतिशत चरितार्थ किया। आमतौर पर सफेद कुर्ता-पायजामा पहनने वाले बाबा का व्यक्तित्व बहुआयामी था। राहुल जी की विद्वता और प्रखर लेखन क्षमता को स्व. बाबू लाभचंदजी छजलानी और स्व. नरेंद्र तिवारीजी ने न केवल पहचाना, वरन उन्हें नईदुनिया से जोड़कर उसकी वैचारिक बुनियाद को मजबूत बना दिया। राहुलजी ने भी अपनी सम्पूर्ण क्षमता और काबिलियत को अखबार में झोंक डाला। उन्हीं के नेतृत्व में अखबार ने हिन्दी पत्रकारिता के राष्ट्रीय क्षितिज पर अपनी विशिष्ट पहचान बनाई। राहुलजी और नईदुनिया एक-दूसरे के पर्याय बन गए।
प्रचार-प्रसार से दूर
बाबा अपने स्वयं के प्रचार-प्रसार से सदा दूर रहे। उनका मानना था किअखबार जनसेवा और राष्ट्रसेवा के लिए होते है न कि अपने खुद के प्रचार के लिए। उन्होंने मुझे स्टैडिंग आॅर्डर दे रखा था कि उनका फोटो और समाचार उन्हें बताए बगैर कभी न छापा जाए। उन्होंने अपने और परिवार के हितों के लिए अखबार या अपने पद का कभी इस्तेमाल नहीं किया। उनके साथ हुई एक घटना बहुत चर्चित है। एक रोज राहुलजी किसी काम के लिए अपनी साइकिल से सराफा बाजार गए। सराफा की संकरी सड़क पर साइकिल खड़ी करके वे एक दुकान में गए। इसी दौरान सराफा थाने का एक सिपाही आया और वह साइकिल उठाकर थाने जाने लगा। आगे-आगे सिपाही और पीछे-पीछे राहुलजी। थाने में पूछताछ के दौरान जब बाबा ने अपना नाम, पता और स्वयं को नईदुनिया का प्रध्ाान संपादक होना बताया तो वहां मौजूद प्रधान आरक्षक ने फटकार लगाते हुए पुलिसिया भाषा में कहा-झूठ बोलते हो! हम क्या पूरा थाना जानता है कि नईदुनिया के संपादक गोपीकृष्ण गुप्ता ;अखबार के तत्कालीन सिटी रिपोर्टरद्ध हैं। बाबा ने विनम्रतापूर्वक अनुरोध किया कि हेडसाहब, आपकों मुझ पर यकीन न हो तो गोपीजी को फोन लगाकर पूछ लीजिए। गोपीजी को फोन लगाया गया तो उन्होंने प्रध्ाान आरक्षक से कहा-पहले तो उन सज्जन को ससम्मान कुर्सी पर बैठाइए। वो मेरे बाॅस है। वे ही नईदुनिया के प्रधान संपादक हैं-मैं नहीं। गोपीजी कुछ ही मिनटों में थाने पहंुचे। उन्होंने और पुलिसवालों ने बाबा से माफी मांगी, किन्तु बाबा ने फिर भी विनम्रतापूर्वक सिपाही और हेडसाहब की अपनी ड्यूटी निभाने के लिए तारीफ की।
धन-संपदा का मोह नहीं
स्वभाव से अलमस्त एवं फक्कड़ राहुलजी को कभी धन-संपदा का मोह नहीं रहा। इंद्रौर में प्रेस क्लब एक ट्रेड यूनियन संगठन नहीं है,सकेत के पास जब पहली पत्रकार कॅालोनी बनी तो उन्होंने उसमें प्लाॅट लेने में कोई रूचि नहीं दिखाई। इसके बाद जब हम लोगों ;प्रताप चांद, जयकृष्ण गौड़, सतीश जोशी, मैं और अन्य पत्रकारद्ध ने मिलकर “संवाद नगर” नाम से दूसरी काॅलोनी बनाने के प्रयास शुरू किए तब भी बाबा ने दिलचस्पी नहीं दिखाई। सूचना मिलने पर एक दिन श्रीमती विमला बारपुते ;जिन्हें हम आदर से काकू कहकर पुकारते थेद्ध ने मुझे फोन किया। कहने लगीं-शशीन्द्र तुम तो बाबा के नेचर को जानते हो। उनके लिए तो सबकुछ नईदुनिया ही है। घर-परिवार की उन्हें कोई परवाह नहीं है। संवाद नगर की सदस्यता का एक फाॅर्म तुम मुझे लाकर दे दो। प्लाॅट के रूपए भी मुझसे ही ले लेना। इस प्रकार बाबा संवादनगर के सदस्य बन गए। मकान बन जाने के बावजूद वे उसमें रहने नहीं गए। वह मकान बाबा ने रहने के लिए अपने मित्र कला गुरू विष्णु चिंचालकर को दे दिया।
बाबा के साथ आने का मतलब
गृह निर्माण मंडल के निर्माण कार्य पहली बारिश में ही हर जगह से रिसने लगे थे। घटिया निर्माण कार्य को लेकर बाबा समेत सभी पत्रकार सदस्यों में रोष था। मकानों की कीमत भी बहुत ज्यादा थी। तय किया कि यह मामला मुख्यमंत्री ;तत्कालीनद्ध मोतीलाल वोरा के समक्ष रखा जाए। बाबा के सुझाव पर ही हमने मटेरियल की गुणवत्ता की जांच जीएसआईटीएस की लैब में कराई। रिपोर्ट में हमारे आरोप व शंकाओं की पुष्टि हुई। तत्पश्चात बाबा के नेतृत्व में ही एक प्रतिनिधिमंडल मुख्यमंत्री श्री वोरो से मिला और उन्हें जांच रिपोर्ट के साथ ज्ञापन सौंपा। प्रामाणिक जांच रिपोर्ट और इससे भी बढ़कर राहुलजी की उपस्थिति के सामने वोराजी ने संवादनगर के मकानों की कीमतें कम करने में देरी नही की। श्री वोरा ने कहा था- श्राहुलजी जैसे शीर्षस्थ पत्रकार का इंदौर से चलकर भोपाल आना ही ज्ञापन की सच्चाई, ईमानदारी एवं प्रामाणिकता को साबित करने के लिए काफी है।
इंदौर प्रेस क्लबः एक वास्तविक आवश्यकताराहुल बारपुते
सोलह वर्ष के फासले से यह ब्योरेवार याद करना मुश्किल है कि किनपरिस्थितियों में तथा किन लक्ष्यों से प्रेरित होकर प्रेस क्लब की स्थापना हुई थी। मैं जानता हंू कि प्रत्येक विधिवत गठित संस्था का अपना एक लिखित संविधान होता है, लेकिन प्रत्येक विधान में काफी कुछ करने अथवा न करने की गंुजाइश संस्थापकगण रख ही लेते हैं, लिहाजा प्रेस क्लब की इतनें सालों की गतिविधियों को देखकर ही उसके चरित्र और कृतित्व के बारे में कुछ कहा जा सकता है।
प्रेस क्लब एक ट्रेड यूनियन संगठन नहीं है, और न ही वह अन्य कतिपय प्रेस क्लबों की भांति सदस्यों के आमोद-प्रमोद का एक केंद्र है। दरअसल इंद्रौर प्रेस क्लब द्वारा आयोजित अधिकांश कार्यक्रमों का मकसद एक ही रहा है और वह है सदस्यों के मानसिक क्षितिजों का निरंतर विस्तार। प्रेस क्लब में रखे गए मेहमान-वक्ता-रजिस्टर के पन्नों को सरसरी निगाहों से देखे जाने पर भी यह स्पष्ट हो जाता है कि विभिन्न विचारों और दलों के प्रतिनिधि इस संस्था में आते रहे हैं और अपनी बातें मुक्त रूप से क्लब के सदस्यों के सामने रखते रहे हैं। पत्रकारिता की आचरण संहिता का पालन क्लब के सदस्यों ने अभूतपूर्व अखंडता से किया है, जिसका एक अच्छा नतीजा क्लब के मेहमानों और क्लब के सदस्यों के बीच पूर्ण विश्वास के वातावरण के रूप में मिला है। इससे सभी लाभान्वित हुए हैं। वक्ता खुलकर बोले और सदस्यों को विभिन्न प्रश्नों के अलग-अलग पहलू समझ में आए। ऐसा आदान-प्रदान अन्यत्र शायद ही हो पाता।
अपने मानसिक क्षितिजों के विस्तार के अलावा अपनी व्यावसायिक-पटुता बढ़ाने के अन्य प्रयास भी प्रेस क्लब के तत्वावधान में यदा-कदा होते रहे हैं। कुल-मिलाकर प्रेस क्लब एक ऐसा मंच, शायद अनजाने ही, बन गया है, जो पत्रकारिता के स्तर को बढ़ाने में मददगार रहा है। यदि किसी भी व्यवसाय का स्तर सुधारना है, तो उसे ऐसी किसी संस्था की वास्तविक जरूरत होती है। वास्तविक आवश्यकता की पूर्ति करने वाला हर माध्यम टिकाऊ होता ही है। शायद इसीलिए प्रेस क्लब सोलह वर्ष तक बना रह सका और आगे भी बना ही रहेगा। अन्यथा इस प्रेस क्लब के सदस्यों में ही ऐसे अनेक साथी मिलेंगे जिन्होंने कोई एक दर्जन प्रेस क्लब संस्थाओं को बनते-बिगड़ते और मिटते देखा है।
हर सलाह पर अमल किया
मिलनसार राहुलजी जगत मित्र थे। देशभर में उनके लाखों प्रशंसक थे। मेरा उनसे परिचय 1959 में हुआ। वे मेरे दार्शनिक गुरू थे। अभ्यास मंडल को उनका मार्गदर्शन सदैव मिला। अभ्यास मंडल की स्थापना के संदर्भ में राहुलजी की सलाह हमें बहुत काम आई। सम्पत्ति मत बनाओ, शासकीय अनुदान से दूर रहो, संस्था के चुनाव आम सहमति से हों तथा आर्थिक व्यवहार में पारदर्शिता एवं मितव्ययता रखो-इस तरह की तमाम सलाहों पर मैंने और मेरे साथियों ने अभीं तक अमल किया है।
बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी बाबा बड़े मिलनसार थे। वे पूर्ण रूप से समाज-चिंतक थे। अनेक क्षेत्रों के मान्यवर व्यक्ति जैसे हमीद दलवई, प्रो. नरहर कुमेदकर, डाॅ. अनिल सदगोपाल, स्वामी अग्निवेश, चंद्रकांत शाह, यदुनाथ थत्ते, असगर अली इंजीनियर, मेधा पाटकर, ओमप्रकाश रावल आदि उनसे सलाह मशविरा करने आते थे। राहुतजी महान थे। फिर भी वे मुझ जैसे व्यक्तियों से भी बड़ी आत्मीयता से बातें करते और समस्याओं का समाधान करते थे।
बेबाक राय रखते
1980 में गुजरात में श्अंतर भारतीश् का चिंतन शिविर हुआ। सात प्रदेशों के 45 वरिष्ठ कार्यकर्ता बलसाड़ जिले के फणसा ग्राम में जमा हुए। शिविर तीन दिन का था। इंदौर से राहुलजी, गुरूजी चिंचालकर एवं मैं रेल से अनारक्षित तृतीय श्रेणी में सफर कर फणसा पहुंचे। दैनिक कार्यक्रमों के अलावा रात्रि 9 बजे राहुलजी कुर्सी पर बैठते और हम सभी शिविरार्थी दरी पर। चर्चा सत्र में कोई भी व्यक्ति किसी भी विषय पर प्रश्न करता और राहुलजी उस पर अपनी राय देते थे। रात दो बजे तक सवाल-जवाब का दौर चलता था। अध्यात्म, राजनीति, अर्थशास्त्र, शिक्षा सुधार तथा समाज के विभिन्न विषयों पर बाबा सहज रूप में अपने बेबाक विचार प्रस्तुत करते थे। उनके साथ बिताए वे तीन दिन जीवन के अमूल्य क्षण थे।
काकू जैसी सेवाभावी पत्नी
राहुलजी सांसारिक संन्यासी थे। लोधीपुरा में उनका निवास अत्यन्त साध्ाारण एवं मध्यवर्गीय परिवार जैसा था। उनका वैचारिक स्तर इतना ऊंचा था कि कार-बंगला जैसी भौतिक सुख-सुविधाएं उनके लिए तुच्छ थीं। राहुलजी की पत्नी विमलाजी को सब आदर से श्काकूश् कहते थे। वे नौकरी करती थीं। एक शासकीय हायर सेकेंडरी स्कूल की प्राचार्य थीं। नौकरी की व्यस्तता के बावजूद काकू घर की सारी व्यवस्थाओं और जिम्मेदारियों को बखूबी निभाती थी। राहुलजी से मिलने आने वाले अनगिनत मेहमानों की खातिरदारी में काकू कोई कोर-कसर नहीं छोड़ती। बिना किसी त्रास व परेशानी के खुशी-खुशी अतिथि सत्कार करने का कार्य काकू जैसी सेवाभावी पत्नी ही कर सकती है। घर-परिवार के प्रति समर्पित काकू एक आदर्श गृहिणी और पतिव्रता महिला थीं। बाबा ने हाय-फाय जीवन की कभी कामना नहीं की। संवाद-से भाषण की उनकी कला अद्भुत थी। किसी भी आयु के व्यक्ति से वे सहज रूप से संवाद करते थे।
जब में निरुत्तर हो गया
एक बार राहुलजी ने अभ्यास मंडल के बाईग्राम प्रकल्प के बारे में मुझसे पूछा-श्ग्रामीण क्षेत्र में काम करने का तुम्हारा उद्देश्य क्या हैघ्श् मैंने उत्तर दिया-‘ग्रामीणों की सेवा करना तथा उनमें जागरूकता बढ़ाना।‘ बाबा ने कहा-‘सेवा का व्रत अच्छा है, परन्तु जागरूकता बढ़ाकर ग्रामीणों की अपेक्षाएं बढ़ेंगी, उसका तुम्हारे पास क्या उपाय है! मैं निरूत्तर था। सचमुच उन्होंने समस्या के एक गंभीर बिन्दु पर मेरा ध्यान आकर्षित किया था।
अनूठे कार्यो में सहयोग
राहुलजी ने अपने निकटतम मित्रों का एक अनौपचारिक समूह बनाया था। ये सभी मित्र अपनी-अपनी क्षमतानुसार राशि इकट्ठा कर किसी अनूठे कार्य में संलग्न व्यक्तियों को आर्थिक सहायता प्रदान करते थे। मगर इसका कोई समाचार किसी अखबार में प्रकाशित नहीं होता था। यह दर्शाता है कि वे आत्म प्रचार से कितना परहेज रखते थे। वास्तव में बाबा ने एक अलौकिक एवं सार्थक जीवन जीया। इस तरह की शख्सियतें मानव जीवन के लिए प्रेरक होती हैं।
-प्रेस क्लब टाईम्स से साभार
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